राजनीतिक नक्सलवाद

वाद और प्रतिवाद के बीच कई प्रकार के वादों का न केवल जन्म हुआ बल्कि इन्हें राजनीति की विषैली हवाओं ने अमन चैन की फिजा में जहर घोल कई लोगों को काल के गाल में असमय ही सुला दिया, फिर बात चाहे नक्सलवाद, भाई भतीजावाद, जातिवाद, धर्मवाद, क्षेत्रवाद, आरक्षणवाद ही क्यों न हो।

आज राजनेता जिस तरह की विषैली राजनीति कर रहे हैं उससे न केवल लोकतंत्र कलंकित हो रहा है बल्कि संविधान तंत्र का भी क्षरण हो रहा है, फिर बात चाहे, भाषा, जाति, धर्म के आधार पर देश के टुकड़े-टुकड़े कर छोटे-छोटे राज्यों के बनाने की ही बात क्यों न हो। कही ये नेता पुनः सामंतशाही की ओर तो नहीं बढ़ रहे?

आज देश बड़े-बड़े विषधरों से घायल हो लहुलुहान हो बेैहोशी की हालत में हैं। पड़ोसी देश चीन और पाकिस्तान तीखी नजर रख समय-समय पर फायदा उठा अपनी कार्यवाही को अंजाम देता ही रहता है।

देश के संविधान निर्माताओं ने संविधान बनाते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा कि उसके अंग विधायी पालिका, न्याय पालिका एवं कार्यपालिका में से कोई भी अपनी मनमानी न कर सके और निरंकुश न बन सके। निःसंदेह तीनों की अपनी महत्वता हेैंं, तीनों अंगों एवं जनता के बीच कड़ी के रूप में खबरपालिका भी एक सशक्त माध्यम हैं, लेकिन समस्या तब शुरू होती है जब इनमें से कोई भी अपने को श्रेष्ठ एवं महान मानने की ठान लेता है। यूं तो समय-समय पर विधायीपालिका एवं न्यायपालिका के मध्य टकराव देखने में आते ही रहते हेैं लेकिन विगत् एक दशक से इनमें टकराव की आवृत्ति ज्यादा बढ़ी हैं, फिर बात चाहे हाईकोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट के निर्णय दागियों को चुनाव न लड़ने की बात हो, जाति आधारित रेलियों पर प्रतिबंध की बात हो, केन्द्रीय सूचना आयोग द्वारा राजनीतिक पार्टियों को जवाबदेह बनाने की हो या एम्स में सुपर स्पेशियलाइजेशन में आरक्षण कोटा न होने की बात हो, सभी माननीय इन्हें न केवल कोसने में जुटे हुए है बल्कि ‘‘मुझे मत रोको, मुझे मत टोको’’ की तर्ज पर संविधान के मंदिर में जबरन अपने अनुकूल नियम बनाने की मनमानी पर भी उतारू हो गए है जो किसी भी दृष्टि से लोकतंत्र एवं जनतंत्र के अनुकूल नहीं है। हमारे जनप्रतिनिधि एक और गंभीर बीमारी अपने को ‘‘सुपरमेन’’ बाकी को कचरा समझने की समझ एवं बढ़ते अहंकार के चलते कभी कानून तो कभी सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों को न मानने व इसे बदलने की जिद से न केवल लोकतंत्र बल्कि संविधान को भी खतरे में डाल रहे है जिसके परिणामस्वरूप संवैधानिक खतरा भी पैदा हो गया है।

तानाशाही ओैर राजनीतिक नक्सलवाद का एक और नमूना हाल ही में उत्तर प्रदेश में रेत माफियाओं के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करने वाली दुर्गा शक्ति नागपाल के सहारे आई. ए. एस. विरादरी को हद में रहने का संदेश भी दे दिया ‘‘दुल्हन वही जो पिया मन भाये’’

तीसरा ‘‘सूचना का अधिकार’’ जिसे कांग्रेेस पारदर्शी एवं जवाबदेह प्रशासन के लिए अपनी एक लेण्डमार्क उपलब्धि गिनाते न थकती थी वह खुद ही न केवल डरी सहमी हैं बल्कि नेक नियति से भी फिरती ही नजर आती है ये बात अलग हैं कि सभी राजनीतिक दल अपनी बेशर्मी को छिपाने के लिए मोसेरे भाई बन अजीब सी अभूतपूर्व एकता दिखाने में न केवल जुटे हुए हैं बल्कि ‘‘सूचना के अधिकार’’ से बाहर निकलने के लिए बड़ी बेसब्री से तड़प भी रहे हैं। वही सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जज संतोष हेगड़े राजनीतिक दलों को ‘‘सार्वजनिक निकाय’’ की ही श्रेणी में रखते हैं। मेरे मतानुसार भी ‘‘राजनीतिक दलों’’ को ‘‘सूचना का अधिकार’’ अधिनियम के तहत् आना ही चाहिये, क्योंकि ये जनता से पैसा उगाते है, शासकीय रियायतों का उपयोग करते है, उससे भी बढ़कर ये दल सरकार चलाने में भागीदारी निभाते है, साथ ही सरकारी योजनाओं को न केवल प्रभावित करते है बल्कि ‘‘राजनीतिक दल’’ के लिए विभिन्न कार्यक्रमों का भी आयोजन कर सरकारी धन को भी खर्च करते है। ऐसे में सरकारी आयोजन एवं दलीय आयोजन में भेद करना न केवल मुश्किल होता है बल्कि असंभव भी हो जाता है, इसी ताल-मेल का फायदा सभी राजनीतिक दल समय-समय पर उठाते रहते हैं।

राजनीतिक दलों का एक घटिया तर्क की जब हम अपनी जानकारी ‘‘चुनाव आयोग’’

को देते है तो ऐसे में दूसरी ऐजेन्सी क्यों? ऐसा ही तर्क स्वेैच्छिक संगठन या अन्य आम-जन के संगठन भी उठा सकते हैं। यदि राजनीतिक दल अपने को पाक-साफ मानते है तो अन्य को जानकारी देने में आना-कानी क्यों? जनता से पर्दा क्यों? नजरे क्यों चुराई जा रही हैं? कही ये सीना जोरी तो नहीं? आदर्श प्रस्तुत करने की जगह राजनीतिक फांसिस्टवाद, राजनीतिक, नक्सलवाद का सहारा क्यों?

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि आज विधायी पालिका के सदस्यों को जिन जनहित के मुद्दों को उठाना चाहिए, देश को सही दिशा दिखाना चाहिए। वे ही कही न कही पार्टी एवं वोट हितों को साधने में जुटे हुए हैं। जिस संसद में देश की समस्याओं पर चिन्तन होना चाहिए, नीति नियन्ताओं को अच्छी नीति बनाना चाहिए को छोड़ सत्रों को केवल राजनीति का अखाड़ा बना शोर गुल की भेंट चढ़ाना ही एक नियति सा बन गया है।

आखिर में निर्णय माननीयों को ही लेना है कि राजनीति में कितनी पारदर्शिता, नीति एवं सुचिता हो।