राम की रियासत में भाजपा की सियासत

१९९२ में राम की जिस अयोध्या ने हिंदुत्ववादी ज्वर के जरिए भारतीय जनता पार्टी को २ लोकसभा सीटों से १८५ सीटों तक पहुंचाया था, आज पुनः कुरुक्षेत्र का मैदान बन गई है। फर्क सिर्फ इतना है कि उस वक़्त संघ, विश्व हिन्दू परिषद्, भाजपा तथा उससे जुड़े तमाम आनुवांशिक संगठनों ने देश की हिंदूवादी जनता में धार्मिक उन्माद का ऐसा बीज बोया था जिसे रोक पाना सरकारों के बूते के बाहर की बात हो गई थी। खैर १९९२ से लेकर २०१३ तक राजनीति की एक पीढ़ी बदल गई है और शायद धार्मिक उन्माद का वह वातावरण भी अब नौजवानों के खून में उबाल नहीं मारता। किन्तु धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता के दोहरे मापदंडों के चलते राजनीतिक दल आज भी धार्मिक उन्माद को बढ़ावा दे रहे हैं।

ताजा मामला अयोध्या में २५ अगस्त से शुरू होने वाली ८४ कोस की अयोध्या परिक्रमा पर संत समाज और समाजवादी पार्टी के आमने-सामने आने से जुड़ा है। अखिलेश सरकार ने विहिप की इस महत्वाकांक्षी यात्रा पर प्रतिबंध लगाते हुए अयोध्या से जुड़े ६ जिलों में धारा-१४४ लागू कर दी है वहीं राज्य में अपनी ख़ोई ज़मीन को वापस पाने की जद्दोजहद में जुटा संघ परिवार भी सरकार को चुनौती देता नज़र आ रहा है। हालांकि २० दिन चलने वाली और प्रदेश के ५ जिलों से होकर गुजरने वाली इस पारंपरिक यात्रा का वास्तविक समय चैत्र माह में होता है किन्तु चार माह के अंतराल में ५ राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों तथा अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव के चलते विहिप यात्रा के पारंपरिक समय को भी बदलने के लिए तत्पर दिखाई दे रहा है। मतलब साफ़ है, वोटों के ध्रुवीकरण से सत्ता प्राप्ति की कोशिशें। और यह सत्ता-सुख विहिप के लिए नहीं वरन भाजपा के लिए है।

हालांकि विहिप की इस यात्रा को लेकर संघ परिवार तो साथ निभा रहा है किन्तु भाजपा ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं। वैसे उत्तरप्रदेश में इस धार्मिक उन्माद की जड़ तो उसी दिन पड़ गई थी जिस दिन समाजवादी पार्टी ने प्रदेश की सत्ता संभाली थी। रही-सही कसर नरेन्द्र मोदी के दूत और उत्तरप्रदेश भाजपा प्रभारी अमित शाह ने अयोध्या जाकर पूरी कर दी थी। तभी यह आभास हो गया था कि प्रदेश में आने वाले माह धार्मिक उन्माद को बढ़ावा देंगे। जहां तक विहिप का संतों के साथ मिलकर इस यात्रा को निकालने का प्रश्न है तो सारी कवायद अयोध्या में भव्य राम मंदिर के लिए हो रही है जबकि पूरा देश जानता है कि यह मसला अब देश की सर्वोच्च अदालत में विचाराधीन है। विहिप सहित संघ परिवार का कहना है कि प्रस्तावित यात्रा की पृष्ठभूमि इस वर्ष हुए इलाहाबाद कुम्भ में ही बना ली गई थी और हाल ही में विहिप का एक शिष्ट मंडल सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव और प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से मिला था जहां दोनों के व्यवहार ने प्रदेश की राजनीति में कुछ बड़े बदलाव के संकेत दिए थे किन्तु मुस्लिम वोटों की फसल काटने को तैयार मुलायम ने विहिप को तगड़ा झटका देते हुए उनकी मांग और उम्मीद; दोनों पर कुठाराघात कर दिया।

ज़ाहिर है सारा विवाद वोट बैंक की राजनीति के तहत है। एक ओर मुस्लिम वोट हैं तो दूसरी ओर हिंदुत्व की प्रयोगशाला में तैयार हो रहे हिन्दू वोट। सपा को अपना जनाधार बचाना है तो विहिप को भाजपा के लिए प्रदेश में वोटों की तादाद बढ़ाना है। दोनों की अपनी सियासी मजबूरियां हैं जिनसे कोई इनकार भी नहीं कर रहा किन्तु राज्य में अंदर ही अंदर सुलग रही धार्मिक उन्माद की चिंगारी को बुझाने की गरज किसी में नहीं है। इस पूरे विवाद में कांग्रेस भी हाथ सेंकने के लिए कूद पड़ी है और उसने सपा सरकार के फैसले को उचित ठहराया है। वहीं विहिप और संघ की कूटनीति प्रस्तावित यात्रा को निकालकर बड़े पैमाने पर वोटों के ध्रुवीकरण पर टिकी है। ज़ाहिर है यदि बीच का रास्ता नहीं निकाला गया तो कुरुक्षेत्र में तब्दील होती अयोध्या एक बार फिर देश की राजनीति में अहम् बदलाव का कारण बनेगी|

 

इतिहास गवाह है कि ऐसी धार्मिक यात्राएं राजनीति में दूरगामी परिणामों की साक्षी रही हैं। इनसे आम आदमी का भले ही कोई भला नहीं हुआ हो किन्तु राजनीतिक दलों की राजनीति अवश्य चमकी है। हालांकि इस यात्रा को लेकर जिस तरह की राजनीति हो रही है वह निश्चित तौर पर स्वहितों को बढ़ावा देने की कवायद है। १९९०-९१ में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर फैजाबाद में कारसेवकों और हिन्दुओं पर गोली चलवाने वाले मुलायम पर सांप्रदायिकता का तमगा नहीं लगना इसी राजनीति का परिणाम है। बहरहाल अयोध्या में ८४ कोस की यात्रा को लेकर सपा सरकार से लेकर विहिप व अन्य पक्षों को संयम का परिचय देना चाहिए था जो नदारद है। जहां तक बात कांग्रेस की है तो कांग्रेस ने हमेशा मुस्लिम समुदाय का सियासी इस्तेमाल ही किया है| राम मंदिर आंदोलन के वक़्त कांग्रेस के नेता एक ओर जहां मुस्लिम समुदाय को हिन्दू कट्टरता का भय दिखाकर उन्हें अपने पाले में ले रहे थे तो दूसरी ओर कांग्रेस के एक बड़े नेता; जो उस वक़्त मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री हुआ करते थे; साधू-संतों को सरकारी हवाई जहाज से देश का भ्रमण कराते थे ताकि वे उनसे प्रभावित हो राम मंदिर आंदोलन में कांग्रेस की अग्रणी भूमिका को साबित कर सकें और राम मंदिर आंदोलन का मुद्दा संघ परिवार और भाजपा को लाभ न पहुंचा सके| आज वही नेता जब बाटला हॉउस एनकाउंटर पर सवाल खड़े करते हैं तो उनकी मंशा पर शक होता है|

कांग्रेस को विशुद्ध रूप से ब्राह्मणों की पार्टी कहा जाता रहा है मगर कांग्रेस में अल्पसंख्यक राजनीति का चलन राजीव गांधी के जमाने में शुरू हुआ| वही राजीव गांधी जब निचली अदालत के फैसले पर राम मंदिर का ताला खोलते हैं तो क्या कांग्रेस के अल्पसंख्यक हितों पर कुठाराघात नहीं होता? इतिहास को छाती से चिपकाए रखने में मेरा कोई निजी हित नहीं है मगर इतिहास को झुठलाया भी तो नहीं जा सकता। इस मुद्दे पर भी कांग्रेस दो धडों में बंटी नज़र आ रही है। कुछ नेता यात्रा को जायज ठहरा रहे हैं तो कुछ धार्मिक उन्माद फैलाने का जरिया। अब जबकि तलवारें दोनों ओर से बराबर खिंच चुकी हैं तो यह स्पष्ट है कि उत्तरप्रदेश से लेकर देश की राजनीति गरमाने वाली है। यात्रा की तिथि जैसे-जैसे नजदीक आ रही है; आम जनता से लेकर राजनीतिक दल तक पशोपेश में हैं किन्तु राजनीति की कुटिल चालों को आजमाने से वे अब भी बाज नहीं आ रहे।