नीतीश, आरक्षण और छुरा

पिछले हफ्ते बिहार के मुख्यमंत्री नीतीशकुमार की शराबबंदी के बारे में मैंने दो लेख लिखे थे लेकिन अब यह तीसरा लेख भी लिखना पड़ रहा है। आज अखबारों में पढ़ा कि के. वीरमणि सम्मान ग्रहण करते हुए उन्होंने कहा कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए गैर-सरकारी नौकरियों में भी 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए और सरकारी नौकरियों में वह 50 प्रतिशत से भी ज्यादा होना चाहिए। उन्होंने मुसलमानों और ईसाइयों के लिए भी आरक्षण की मांग की। तर्क यह दिया कि मजहब बदलने से जात थोड़े ही बदल जाती है। इन आरक्षणों के लिए उन्होंने संविधान में संशोधन की मांग की है।

यदि ये सब बातें उन्होंने सिर्फ थोक वोट पाने के लिए की हैं तो उसमें कोई हर्ज नहीं है। राजनीति का मतलब ही वोट और नोट है। अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए हर नेता जाल बिछाता है लेकिन यदि नीतीश जैसे प्रबुद्ध नेता सचमुच इन बातों में विश्वास करते हैं तो यह चिंता का विषय है। नीतीश अभी बिहार के मुख्यमंत्री और संयुक्त जनता दल के अध्यक्ष है लेकिन अगले दो साल में वे प्रधानमंत्री पद के गंभीर उम्मीदवार बन जाएंगे। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे आरक्षण की सड़ी-गली व्यवस्था के विरुद्ध लोक-अभियान चलाएंगे।

भारत में आरक्षण बिल्कुल फेल हो गया है। यह वास्तव में दलितों और वंचितों की पीठ में झोंका हुआ छुरा है। उनकी सिर्फ मलाईदार परतों की दूसरी और तीसरी पीढ़ी के लोग आरक्षित पदों पर एकाधिकार जमाए हुए हैं। असली जरुरतमंदों की इन सरकारी आरक्षित पदों तक कोई पहुंच ही नहीं है। शिक्षा में जरुरतमंद दलितों और वंचितों को 80 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए और जन्म के आधार पर कोई भेद-भाव न किया जाए तो भारत दिन-दूनी रात चौगुनी उन्नति करेगा। नौकरियों में आरक्षण की समाप्ति के साथ नीतीश जैसे नेता से उम्मीद की जाती है कि जैसे उन्होंने शराबबंदी का आंदोलन चलाया है, वैसे ही वे ‘जात तोड़ो’ आंदोलन भी चलाएंगे। भारत में जाति-प्रथा की जड़ को हरी रखने वाली सबसे सड़ी हुई खाद का ही दूसरा नाम है-आरक्षण।