नारी स्मिता – सवाल भरोसे का ?

     दुनिया के अन्य देशों की तुलना में हमारे देश में नारी स्मिता व सम्मान की सबसे अधिक दुहाई दी जाती है। बल्कि इसका ढोल पीटा जाता है। नारी को देवी तुल्य बताने से लेकर स्वयं उसे पूजने तक का घोर प्रदर्शन किया जाता है। नारी के नाम पर तरह तरह की योजनायें ,पुरस्कार,सम्मान और न जाने क्या क्या घोषित किये जाते हैं। नारी आरक्षण के श्रेय को लेकर राजनैतिक दलों में घमासान मचा दिखाई देता है। 'नारी वंदना ' जैसे मधुर शब्द महिला आरक्षण के सम्बन्ध में सुनाई देते हैं। नवरात्रों में कन्या पूजन देखिये तो ऐसा लगेगा कि भारत नारी स्मिता व सम्मान का विश्व में सबसे बड़ा आदर्श राष्ट्र है। मज़े की बात यह है कि नारी स्मिता व सम्मान की रक्षा की बातें भी वही पुरुष समाज बढ़ चढ़कर करता है जिसपर नारी शोषण का इलज़ाम सहस्त्राब्दियों से लगता आ रहा है। परन्तु यह सारी बातें महज़ 'बातें' ही मात्र हैं। क्योंकि हमारे देश में विवाहित पत्नी को छोड़ भागने वाले लोग गृहस्थ जीवन की सफलता के मन्त्र देते सुनाई देते हैं। गोविन्द "ईश्वर " तुल्य गुरु अपनी शिष्यों से बलात्कार करते और हमारे ही देश की विभिन्न जेलों में सज़ाएं काटते दिखाई देते हैं। देश की संसदीय व्यवस्था में घुसे अनेक व्यभिचारी सत्ता संरक्षण में महिला स्मिता की धज्जियाँ उड़ाते दिखाई देते हैं। इसी भारत महान में पुरुषों की भीड़ महिलाओं को नग्न कर दौड़ाती,पीटती व सामूहिक बलात्कार करती है। निर्भया जैसी ह्रदय विदारक घटनायें तो देश में कहीं न कहीं होती ही रहती हैं। केंद्रीय मंत्री स्तर के लोग नारी व्यभिचार में पकड़े जाने के बावजूद सत्ता द्वारा 'बेदाग़' बरी कर दिये जाते हैं। और तो और नारी शोषण का आरोप लगाने वाली महिलाओं को ही सत्ता व मीडिया की जुगलबंदी सवालों के घेरे में खड़ा कर देती है और राजनैतिक नफ़े-नुक़सान के मद्दे नज़र आरोपी को बचाती दिखाई देती है।  गोया सीधे शब्दों में हमारे देश में नारी स्मिता पर 'प्रवचन पिलाने' वाले पुरुष समाज की कथनी और करनी में एक बड़ा अंतर साफ़ दिखाई देता है। महिला हितों पर भाषण देने वाले सदन में ब्ल्यू फ़िल्म देखते क़ैद हुये। और इसी दोगली व्यवस्था का सबसे भयावह सच यह भी है कि स्वयं को शिक्षित बताने वाली महिलायें भी किसी महिला की इस्मत व आबरू की शर्त पर नहीं बल्कि अपनी अपनी 'पार्टी लाईन' व पार्टी निर्देशों के अनुसार किसी पीड़ित महिला या आरोपी दुष्कर्मी के पक्ष या विपक्ष में खड़े होने का निर्णय लेती हैं। गोया ऐसी पेशेवर औरतों की अंतरात्मा ही मर चुकी होती है। और इस से भी बड़ी बेशर्मी गोया डूब मरने जैसी बात यह भी है कि अब पीड़ित महिला व आरोपी बलात्कारी या हत्यारे का पक्ष -विपक्ष उसके धर्म के आधार पर तय होने लगा है। दर्जनों उदाहरण हमारे 'महान भारत ' में ऐसे मिलेंगे जबकि आरोपी बलात्कारियों के पक्ष में रैली,जुलूस,धरना प्रदर्शन आयोजित हुये। अदालत से लेकर सत्ता व प्रशासन तक हत्यारे बलात्कारियों के हक़ में फ़ैसला लेते दिखाई दिये ? आसिफ़ा और बिलक़ीस बानो दो ही नाम ऐसे उदाहरण के लिये काफ़ी हैं।  

      कुछ समय पूर्व हमारे देश में 'मी टू' नामक एक अभियान छिड़ा था। इस अभियान ने अनेक नामी ग्रामी लोगों के चेहरों से नक़ाब उठाई। अनेक लोगों के भविष्य बर्बाद कर दिये। तमाम स्वयंभू बुद्धिजीवी व्यभिचार के आरोपों से घिरे नज़र आये। कुछ लोग अपने चेहरे से नक़ाब हटने के बाद आत्महत्या कर बैठे। क्या नेता क्या अभिनेता,जज क्या अधिकारी क्या धर्मगुरु क्या तो पवित्रतम रिश्ते क्या ,सभी दाग़दार हो चुके हैं। बाप,भाई,ताया-चाचा,मामा जीजा,साला कौन सा रिश्ता है जो हमारे देश में दाग़दार होने से बचा हो ? पिछले दिनों राजस्थान के दौसा के लालसोट क्षेत्र के राहु वास थाने में एक ऐसी घटना घटी जिससे भरोसे का ख़ून होता साफ़ दिखाई दिया। इस क्षेत्र में तैनात एक सब इंस्पेक्टर भूपेंद्र सिंह ने एक पुलिस कांस्टेबल की चार वर्ष की बेटी से ही दुष्कर्म कर दिया। आरोप है कि रिपोर्ट दर्ज कराने के विषय पर थाने में पीड़िता के पिता के साथ पुलिस कर्मियों ने इतनी मारपीट की कि उसका हाथ भी टूट गया। इस घटना के बाद थाने में हंगामा इतना बढ़ गया कि ग़ुस्साये लोगों की भीड़ थाने में पहुंच गयी। और थाने में छुपकर बैठे बलात्कार आरोपी सब इंस्पेक्टर को बालों व कपड़ों से खींच कर थाने से बाहर घसीटते हुये ले आई और सड़कों पर घसीट घसीट कर उसकी पिटाई करती रही। बहुत मुश्किल से पुलिस ने आक्रोशित भीड़ से आरोपी एसआई को छुड़ाया। इस समय घायल आरोपी एसआई का दौसा ज़िला अस्पताल में इलाज चलने व साथ ही दुष्कर्म के मामले में उसे गिरफ़्तार करने का भी समाचार है।

    क्या अविश्वास के इस वातावरण में महिला स्मिता के दावों पर यक़ीन किया जा सकता है ? हमारे समाज की एक बड़ी त्रासदी यह भी है कि स्वयं बच्चों के परिजन भी अपने बेटी को नियंत्रित रखने पर पूरा ज़ोर लगा देते हैं। उसके लिये तरह तरह के दिशा निर्देश जारी होते है। क्या पहनना,कहाँ जाना ,कब जाना ,किसके साथ जाना,किस लिए जाना जैसे अनेक सवाल केवल लड़कियों तक ही सीमित रहते हैं। और उन्हीं मां बाप के लड़के ऐसे सवालों से बरी रहती हैं। उनपर कोई नियंत्रण नहीं  होता और वे बेलगाम घूमते फिरते व गर्ल फ़्रेंड बनाते हैं। यानी अभिभावकों की कथित तौर पर संस्कारी बनाने की चिंता केवल लड़कियों के लिये ही सीमित रहती है लड़कों के लिए नहीं ? कुछ तो लड़कों के असंस्कारी होने और कुछ पाश्चात्य चलन ने और कुछ शोहदों को नज़र अंदाज़ करने व इन्हें मिलने वाली छूट ने भी देश में नर नारी के बीच उपजे अविश्वास के वातावरण को और अधिक बढ़ावा दिया है।

      जब हम महाभारत में द्रौपदी प्रकरण देखते हैं तो पता चलता है कि किसी स्त्री  को जुए में भी हारा जा सकता है और यह अधिकार भी पुरुषों के ही पास है ? सीता हरण भी हमें यही संदेश देता है कि युगों युगों से महिलायें निर्बल व अबला ही समझी जाती रही हैं। वर्तमान दौर में क्या आरक्षण इन समस्याओं का समाधान है ? क्या 33 या 50 प्रतिशत आरक्षण हमारे देश में नारियों के प्रति अपनाये जा रहे दोहरेपन के रवैये को समाप्त करने की दिशा में सहायक होगा ? शायद हरगिज़ नहीं। महिला आरक्षण या महिला विकास सम्बन्धी अन्य योजनायें  परिजनों व सगे सम्बन्धियों ,उच्चाधिकारियों,गुरुजनों आदि की कामुकता व उनकी वासना से आख़िर किसी नारी को कैसे बचा सकती हैं। दरअसल नारी अस्मिता की रक्षा का सवाल योजनाओं का हीं बल्कि नारी पुरुष के मध्य भरोसे का मोहताज है और यह भरोसा ऐसे घर परिवार समाज शिक्षक व गुरुजनों द्वारा पैदा किया जा सकता है जो स्वयं भी चरित्रवान हों और नारी अस्मिता की रक्षा के प्रति गंभीर हों ? गोया नारी स्मिता एक सवाल है विश्वास का भरोसे का ?