सजा ऐसी कि रूह कांप जाए

निर्भया के बलात्करियों को अदालत ने दोषी तो पाया है लेकिन वह उन्हें फांसी देगी या नहीं, यह उहापोंह बनी हुई है। सारा ही देश बिलबिलाया हुआ है। जिस तरह पांचवें अपराधी को अवयस्क होने का फायदा दिया गया है उससे लोगों को शक हो रहा है कि अदालत इन अन्य चारों बलात्कारियों के प्रति भी शायद नरमी दिखाए। फांसी न दे। कम सजा दे। चाहे तो उम्र कैद भी न दे। अगर ऐसा हुआ तो कहने की आवश्यकता नहीं कि देशवासियों का गुस्सा बलात्कारियों से ज्यादा जजों की तरफ मुड़ जाएगा।

लेकिन क्या न्यायाधीशों के निर्णय जनता के ‘मुड’ से प्रभावित होने चाहिए ? क्या उनके फैसलों का आधार शुद्ध कानून नहीं होना चाहिए? जनता का मूड या तेवर तो भावावेश की उपज होता है। भीड़ के मनौविज्ञान को समझने वालों को पता है कि वहां विवेक और तर्क को कोई स्थान नहीं होता है। ऐसी स्थिति में जज क्या करें?  ऐसी स्थिति में जजों को खुद से एक सवाल पूछना चाहिए कि जिस कानून पर उनका निर्णय आधारित होता है उस कानून का आधार क्या है? उस कानून का उदेश्य क्या है? वह कानून बनाया ही क्यों गया है? उस कानून से आखिरकार समाज और राज्य प्राप्त क्या करना चाहता है? जो कानून अब तक चला आ रहा है, क्या उससे उन लक्ष्यों की सिद्धि हो रही है, जिसके लिए वह बनाया गया था?

यदि अदालतें अपना फैसला सुनाते समय इन मूलभूत प्रश्नों पर विचार करने लगें तो उसके फैसले क्रांतिकारी होगें और जन भावना का सम्मान भी करेंगे। बलात्कारियों को अब तक जो सजा दी जाती है वह चोरों और डाकूओं से भी कम है। चोर और डाकू जितनी बड़ी संख्या में पकड़े जाते हैं, बलात्कारी उनके मुकाबले दस प्रतिशत भी नहीं पकड़े जाते।

पारिवारिक प्रतिष्ठा और लाज-शर्म के इस कुकर्म को पीडिताएं ही दबा देती हैं और हिम्मत करके जो मामले सामने आ जाते हैं, उनमें से कितने लोग दंडित होते है? 10 फीसद भी नहीं। यानी हमारी सामाजिक व्यवस्था और कानून व्यवस्था में बलात्कार को एक स्वाभाविक अपरिहार्यता मान लिया है। इसलिए इतने भयंकर जनाक्रोश के बावजूद बलात्कार की दर्जनों घटनाएं रोज अखबारों और चैनलों की शोभा बढ़ाती रहती है। अंग्रेजों के काल में बने इस लचर-पचर कानून से बलात्कार पर काबू पाना असंभव है।

इस कानून का उद्देश्य भी अधूरा और सीमित है। इसमें बलात्कार को दंडित करने का प्रावधान तो है लेकिन यानी बलात्कारी को हतोत्साहित करने का प्रावधान इस कानून में नहीं है। बलात्कारी हतोत्साहित तभी होंगे जबकि उसकी सजा हत्या से भी अधिक होगी। निर्भया के बलात्कारियों को फांसी की सजा काफी नहीं है। उनकी सजा उतनी ही भयंकर होनी चाहिए, बल्कि उससे भी ज्यादा होनी चाहिए, जितनी कि उन्होंने ‘निर्भया’ को दी थी। अदालत इन राक्षसों को ऐसी सजा दे और इस ढंग से दे कि बलात्कार का इरादा रखने वालों की रूह कांप जाए।