राजनीति बनी धंधा

 

इस लेख को लिखने का मकसद केवल और केवल मतदाताओं को जागरूक करना हैं। जीवन की गाड़ी को चलाने के लिए श्रम अर्थात् धन की आवश्यकता पड़ती है जिसके लिए मानव कोई न कोई जीविकापार्जन का माध्यम चुनना है फिर चाहे वो कोई व्यवसाय हो, नौकरी हो, चोरी-चकारी, दलाली या अन्य। सभी में अत्याधिक श्रम की आवश्यकता होती है। धार्मिक मतानुसार मनोविज्ञान एवं दर्शन की दृष्टि से सर्व सम्पन्न होने के पश्चात् समाज को लौटाने की बारी आती है जिसे समाज सेवा के नाम से भी जाना जाता है। कुछ विरले निष्काम  लेकिन अधिकांश सा काम अर्थात् केवल स्वार्थ सिद्धि के लिए ही इस समर में उतरते हैं। यूं तो नीति केवल समय, काल, परिस्थितिजन्य आधार पर एक काम चलाऊ तौर तरीका होती है, सिद्धांत नहीं। जो भी नीत से हटा पतन की ओर हो गया है। इतिहास गवाह है फिर बात चाहे रावण की हो या महाभारत की। आज शासक राजधर्म मूल केवल राजनीति की ही उधेडबुन में न केवल खुद उलझे हुए हैं बल्कि इसकी स्वार्थ सिद्धि के लिए नरबलि, नरसंहार, जाति धर्म का जहर घोल पूरे समाज के ताने-बाने को भी बुरी तरह से भिन्न-भिन्न करने में जुटे हुए हैं। आज राजनीति का मतलब केवल अपना उल्लू साधना ही रह गया है।

नेता का अर्थ ही है समाज का रोल मॉडल करना लेकिन आज जिस तीव्र गति से संविधान के मंदिरों में दागियों की संख्या बढ़ी हैं वह किसी से छिपी नहीं हैं। आखिर इन सबका दोषी कौन हैं? यदि हम मूल में जाए तो पाते है कि राजनीतिक पार्टियां ही मुख्य दोषी है, जो जानबूझकर दागी एवं अपराधियों को न केवल संरक्षण प्रदान करती है बल्कि उन्हें चुनाव में टिकट दे  अभय का कवच भी प्रदान करती हैं जब न्यायपालिका ऐसों पर न्याय का डण्डा चलाती है तब से संविधान पर चोट का हवाला दे, मौसेरे भाई बनने भी देर नहीं लगाते।

अब पांच राज्यों मंे चुनाव का शंखनाद हो चुका है चुनाव आयोग ने भी अवांछित तत्वों पर लगाम कसना शुरू कर दिया है। अब पैसे की ठसक वाले भी सहमें नजर आ रहे हैं। अब असली मालिक यानी वोटर के गली की खाक छानने के लिए सेवकों की नोटंकी शुरू हो गई है। अब जब चुनाव को मात्र 20 दिन रह गये है। ये ही 20 दिनों की नेताओं की नोटंकी 5 साल मलाई खाने का रास्ता दिखायेगी ओैर फिर वही सिलसिला जनता को जनता न समझ खून चूसने का काम शुरू होगा।

ये समय जनता के लिए बडा ही महत्वपूर्ण है उनका एक निर्णय देश की दिशा एवं दशा बदल सकता हैं। यहां जनता को चौकन्ना हो जाति, धर्म, पार्टीबाजी से ऊपर उठ केवल  प्रत्याशी के चाल चरित्र एवं यदि वह पहले भी आपका प्रतिनिधि रहा है तो उसका उचित मूल्यांकन कर सजा और पारितोष देने का निर्णय लेना चाहिए। मसलन जीतने या हारने के बाद आपके दुख दर्द एवं क्षेत्र के विकास, व्यवहार में वह प्रत्याशी कैसा रहा, यह वक्त है हिसाब किताब का, यदि यहां जनता से चूक हुई तो फिर पांच साल खुद को रौंदवाने के लिए तैयार रहे। होना तो यह भी चाहिए की उम्मीदवार से उनकी घोषणाओं को 100/- के स्टाम्प

पेपर पर शपथ पत्र के रूप में वैधानिक बना विचार करें, ताकि भविष्य में यदि वो मुकरे तो उन्हें न्यायालय में घसीटा भी जा सकें।  क्योंकि आपके मत से ही ये शासक बनते है। अपने वोट की कीमत को पूरे होशों हवाश में तय करना होगा। तभी राजनैतिक पार्टियों को भी न केवल सबक मिल सकेगा बल्कि, दागियों एवं प्रत्याशियों को जनता के ऊपर थोपने की प्रवृति हिटलरशाही में भी सुधार होगा।

चुनाव में प्रत्याशियों को आज राजनीति पार्टिया जनता पर थोपती है तभी आए दिन टिकिट बेचनेे के आरोप भी लगना आम बात सी हो गई हैं, और फिर शुरू होता है विद्रोह, आरोप, प्रत्यारोप का सिलसिला। इस चुनाव में कमोवेश कुछ ऐसी ही स्थिति आज सभी बड़ी राजनीतिक पार्टियों में है। आखिर इतना प्रपंच क्यों? झमेला क्यों? क्योंकि निचले स्तर का कार्यकर्ता भी जाना गया है। जिसके पास कुछ भी नहीं था वह चुनाव जीतने के बाद कैसे धन कुबेर बन गया? तो वही बार बार क्यों? और कोई क्यों नहीं? यही से राजनीति धंधे के रूप में शुरू होती है कुछ पंूजी लगाओ और उम्मीद से ज्यादा पाओ।

जनता को चुनाव की इस घडी में लुटेरों एवं सेवकों को पहचान स्वस्थ लोकतंत्र में अपनी अहम भूमिका निभाने की जिम्मेदारी के कढ़े निर्णय के साथ लेना ही होगी।