दलबदलू : हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद ? 

    वर्तमान दौर में हमारे देश में राजनीतिज्ञों की छवि ऐसी बन चुकी है कि यदि आप किसी भी अभिभावक से पूछें कि क्या वह अपनी संतान को नेता बनाना पसंद करेगा ? तो शायद ही इसके जवाब में कोई 'हाँ' कहता दिखाई दे। दरअसल आम तौर से राजनीति में तीन श्रेणियों के लोग ही सक्रिय दिखाई देते हैं। पहली श्रेणी उन लोगों की जिन्हें राजनीति पारिवारिक विरासत में मिली है। सरल भाषा में जिन्हें परिवारवादी राजनीतिज्ञ कहा जाता है। दूसरी श्रेणी के वह लोग जो छात्र राजनीति या गांव पंचायत की सियासत से निकलकर आये हैं। और अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि तीसरी श्रेणी में वह लोग आते हैं जो अपने जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो पाते और पूर्णतयः अयोग्य होते हैं। इसी श्रेणी  प्रायः सम्प्रदायवादी,जातिवादी,क्षेत्रवादी राजनीति कर सफलता का शार्ट कट अपनाते हैं। बाहुबली व दबंग छवि के लोग भी प्रायः इसी श्रेणी में गिने जा।अपवाद स्वरूप कुछ ही लोग राजनीति में ऐसे होते हैं जो उच्च शिक्षा ग्रहण कर और अंतरात्मा से देश की सेवा करने की ग़रज़ से राजनीति में पदार्पण करते हैं। चूँकि ऐसे लोगों की संख्या कम होती है इसलिये कुल मिलकर नाकारे राजनीतिज्ञों का वर्ग इनपर भी हावी हो जाता है। और इसी दुर्भाग्यशाली परिस्थितियों का ही परिणाम है कि हमारा देश की राजनीति में इस समय चरित्रवान व विचारवान लोगों की कमी है जबकि अपराधी,स्वार्थी,चरित्रहीन, साम्प्रदायिकतावादी ,जातिवादी,मक्कार,झूठे,बेईमान,दलबदलू,अवसरवादी तथा पूर्वाग्रही लोगों की भरमार है। आपने देखा होगा कि कभी पत्रकार ने किसी एम एल ए से ही MLA  का फ़ुल फ़ार्म पूछा और वह नहीं बता पाया। दूसरों को वन्देमातरम जबरन पढ़ाने के लिये मर मिटने के लिये तैयार कई लोगों से कैमरे के सामने लाईव डिबेट में जब वन्देमातरम सुनाने के लिये कहा गया तो वह स्वयं नहीं सुना पाया। अधिकांश नेताओं में जहालत के ऐसे अनेक प्रमाण सुनने को मिल जायेंगे।

     जब ऐसे लोगों के राजनीति करने का मक़सद ही धनार्जन,स्वार्थ, और अपने राजनैतिक भविष्य को सुरक्षित रखना हो तो ज़ाहिर है वहां विचारधारा या वैचारिक प्रतिबद्धता नाम की चीज़ कोई  महत्व  रखती। ऐसे ज़मीर फ़रोशों और मौक़ा परस्तों को भले ही जनता पहचानने में चूक कर देती हो और उनके 'वैचारिक धर्म परिवर्तन' या दलबदल के बाद यहां तक कि कल के नंगे भूखे नेताओं के धनाढ्य  बन जाने के बाद भी बार बार जनता उन्हें निर्वाचित भी करती रहती हो। परन्तु उनके इस चरित्र से उस दल के नेता भी भली भाँती वाक़िफ़ होते हैं जहाँ वे अपने स्वार्थवश व अपना राजनैतिक भविष्य संवारने के नाम पर पनाह लेते हैं। ऐसे दलों के नेता चतुराई वश अपना कुंबा बढ़ाने की ग़रज़ से उन्हें पनाह देकर उनके जनाधार का लाभ तो उठा लेटे हैं परन्तु दल बदल या विचार परिवर्तन की इस स्वार्थपूर्ण प्रक्रिया में वह नेता यह भूल जाता है कि उसपर 'दलबदलू ' होने का ठप्पा भी लग चुका है। राष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्तर पर ऐसे तमाम स्वार्थी व मौक़ापरस्त नेता मिल जायेंगे जिन्हें आज वही पार्टियां दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फेक चुकी हैं जिनका या तो मक़सद पूरा हो चुका है या अब उनकी वहाँ कोई ज़रुरत नहीं। वर्तमान चुनाव में भी ऐसे अनेक नेता दर दर भटकते दिखाई दे रहे हैं जिन्हें उनकी पार्टी ने इस बार प्रत्याशी नहीं बनाया। जबकि कल उन्होंने यही सोच कर दल बदल किया था कि नये दल में उनका राजनैतिक भविष्य सुरक्षित रहेगा। यहां मैं बिना नाम लिये एक उदाहरण देना चाहूंगा। एक व्यक्ति को कांग्रेस ने पहले जज फिर एक राज्य का मुख्यमंत्री बनाया। जबकि उसमें मुख्यमंत्री बनने का कोई गुण नहीं था सिवाए इसके कि उसके पिता बड़े राजनेता थे। बाद में वह सज्जन भाजपा में चले गये। आज चूँकि भाजपा वहां संघ पृष्ठभभूमि के नेताओं को पूरी तरह आगे ला चुकी है इसलिये उस राज्य में उसे आयातित नेताओं या दलबदलुओं अथवा विचार परिवर्तन करने वालों की फ़िलहाल कोई ख़ास ज़रुरत नहीं इसलिये भाजपा ने उन पूर्व मुख्यमंत्री महोदय को "पन्ना प्रमुख " बना कर उनकी राजनैतिक हैसियत का अंदाज़ा करा दिया है।  

      दलबदलुओं ख़ासकर विपरीत विचारधाराओं में दलबदल करने वाले नेताओं के साथ एक और 'खेल' खेला जाता है। उन्हें सार्वजनिक रूप से उस विचारधारा के विरुद्ध मुखरित होकर बोलने को कहा जाता है जिसे वे छोड़ कर आये हैं। और मजबूरी वश चूँकि उसे अपने राजनैतिक भविष्य की चिंता होती है इसलिये वह पार्टी के मूल नेताओं से भी ज़्यादा मुखरित होकर बोलता है। यहाँ कुछ उदाहरण पेश हैं। जैसे हिमंत विस्वा सरमा। यह पहले कांग्रेस के विश्वस्त नेताओं में थे। परन्तु जब से भाजपा में गए हैं तब से इनकी कारगुज़ारियां,इनके वक्तव्य सब कुछ भाजपाई या संघ संस्कारित नेताओं से कहीं बढ़कर हैं। ऐसा इसलिये है कि इन्हें अपनी मुख्यमंत्री की कुर्सी बचाये रखने के लिये स्वयं को यह प्रमाणित करना है कि वे संघ व भाजपा की सभी उम्मीदों पर खरे उतरेंगे। इसी तरह शहज़ाद पूनेवाला जैसे दलबदलुओं को भाजपा, प्रवक्ता बनाकर कांग्रेस पर उसी के शस्त्र से प्रहार करवाती है। पिछले दिनों कांग्रेस के ही एकऔर प्रवक्ता गौरव बल्लभ भाजपा में शामिल हुये। कल तक उन्हें देश में कांग्रेस से बड़ी कोई भी धर्मनिरपेक्ष पार्टी नज़र नहीं आती थी। परन्तु पार्टी छोड़ते ही उन्होंने भाजपा की भाषा बोलते हुये कांग्रेस को सनातन विरोधी बताना शुरू कर दिया।

     दरअसल इसमें ज़मीरफ़रोश नेताओं की ग़लती कम जबकि इन्हें समर्थन देने वाली आम जनता की ग़लती ज़्यादा है। विचार परिवर्तन यानी वैचारिक यू टर्न लेने के बावजूद तथा यह समझने के बावजूद कि अमुक नेता ने केवल पार्टी प्रत्याशी न बनाये जाने के लिये दलबदल किया है यानी वह नेता स्वार्थी है फिर भी जनता उसके पीछे लगी रहती है ? लोगों को पता है कि अमुक नेता भ्रष्टाचारी है और केवल अपने आप को सुरक्षित रखने के लिये सत्ता की शरण में जा रहा है,फिर भी ऐसे नेता के समर्थक उसकी जयजयकार करते रहते हैं ? जनता ने ख़ुद सोचना पड़ेगा कि जो नेता उस पार्टी के वफ़ादार न हुये जिसमें रहकर उन्हें मान,नाम,इज़्ज़त,शोहरत,पद रुतबा पहचान आदि वह सब कुछ मिला जिसकी वजह से ही कोई दूसरा दल आज उनकी 'क़ीमत' लगा रहा है, वह स्वार्थी नेता भला जनता,अपने मतदाताओं व अपने वादों के प्रति कैसे वफ़ादार हो सकता है ? बक़ौल मिर्ज़ा ग़ालिब – हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद? जो नहीं जानते वफ़ा क्या है।

                                                                 

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