मोदी होने के मायने

नरेंद्र मोदी जीत गए। भारतीय लोकतंत्र के अब तक के सबसे प्रचंड बहुमत को साथ बीजेपी को लेकर वे संसद में आ गए। चुनाव तो खैर वे जीते ही हैं, मगर देश का दिल भी जीत कर संसद में पहुंचे हैं। इस जीत के बाद पूरे देश को, और हमारे – आपके जैसे कई करोड़ लोगों को भी लग रहा है, कि जैसे यह मोदी की नहीं खुद की जीत हुई हो। नतीजे आए। और वैसे ही आए जैसा कि उनके आने की उम्मीद किसी और को तो पता नहीं थी या नहीं थी, मगर बीजेपी के कुछ लोगों को जरूर थी। ओम प्रकाश माथुर स्मृति इरानी, मंगल प्रभात लोढ़ा, और अमित शाह जैसे मोदी के बहुत करीबी लोग बहुत पहले से कह रहे थे कि नतीजे क्या और कैसे होंगे। सारे के सारे शुरू से ही 272 के पार की बातें कर रहे थे। लेकिन सीटें आई इससे भी ज्यादा। इन नतीजों का विश्लेषण करें, तो इतना तो साफ है कि देश की जनता ने बीजेपी के कमल को वोट देने से पहले मोदी की छवि में गुजरात के विकास का मॉडल भले ही न देखा हो, मगर एक बहुत मजबूत नेता होने का विश्वास उनमें जरूर देखा। देश को यह विश्वास, न तो राहुल गांधी दिखा पाए, न उनकी माता सोनिया गांधी में दिखा और न ही प्रियंका गांधी में इसका प्रकटीकरण हो पाया। अलग अलग तो छोड़ दीजिए, कुल मिलाकर एक साथ में भी तीनों में लोगों को वह विश्वास नहीं दिखा, जो मोदी में देश ने दिखाया। मोदी ने देश को जगाया कि जो काम साठ महीने में होना चाहिए था, वह कांग्रेस की सरकारें साठ साल में भी नहीं कर पाईं। उन्होंने विकास के लिए उनके गुजरात का मॉडल दिखाया। और लोगों ने भरोसा किया।

हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी सबसे बड़ी बिडंबना यही है कि उसने व्यक्तिवाद और परिवारवाद से आजाद होने की चाहत में कांग्रेस से छुटकारा पाकर मोदी की महानता में खुद को सुरक्षित समझा है। देश जिस वक्त कांग्रेस की व्यक्तिवादी राजनीति की आलोचना कर रहा था और जनता किसी अन्य नेता की तलाश में थी तो संयोग से मोदी के रूप में एक अन्य व्यक्ति देश की आंखों से लेकर मन तक में बसा जा रहा था। देश की जनता को एक ऐसी सरकार चाहिए थी, जो मजबूत लगे, और जिम्मेदारी लेनेवाली लगे। देश को राहुल गांधी जैसा आदमी शक्ल और सूरत से तो पसंद था, मगर जिम्मेदार कभी नहीं लगा। कांग्रेस  जो काम साठ साल में नहीं कर सकी, मोदी भले ही साठ महीने में उन्हें कर पाएं या नहीं, यह अलग बात होगी, लेकिन वे देश की जनता के बीच इस बात को लेकर उम्मीद का आसमान बनाने में भरपूर सफल रहे हैं। सच्चाई यह है कि हमारे देश की जनता को पंचवर्षीय योजनाओं का हिसाब नहीं चाहिए। उसे, काम चाहिए और वह भी बहुत तेज गति के साथ। नरेंद्र मोदी गति के उस प्रबंधन और काम की रफ़्तार के प्रतीक के रूप में पहचान बनाने में कामयाब रहे। दुनिया के किसी भी चुनाव के दौरान अब तक के किसी भी अभियान के मुकाबले मोदी के सबसे तेज, ताकतवार और मजबूत किस्म की तूफानी गति के अभियान का भी इस उम्मीद को जगाने में जबरदस्त सहयोग रहा।

मोदी अब सरकार में हैं। और अगले पांच साल तक वे निर्बाध रूप से हमारे प्रधानमंत्री रहेंगे। अब कोई नीतिश कुमार नाम का आदमी, ‘मैं भी दाढ़ीवाला हूं, मैं भी मुख्यमंत्री हूं, इसलिए मैं भी पीएम बन सकता हूं’ जैसे जुमले उछालकर मोदी की बराबरी में न तो खड़ा हो सकता और न ही अपने 99 फीसदी उम्मीदवारों की जमानत जब्त करानेवाली पार्टी का कोई झाड़ूवाल – केजरीवाल बहुत सीधा सादा होने का दिखावा करके सत्ता को चुनौती दे सकता। मोदी ने साठ साल में सत्ता में रही कांग्रेस को उस सिर पीटनेवाली स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है, जहां गठबंधन से सरकार बनानेवाली देश की सवा सौ साल पुरानी पार्टी कांग्रेस को गठबंधन करके विपक्ष बनाने की मजबूरी को जीना पड़ रहा है। दरअसल, सच तो यह है कि इतना कुछ हो जाने के बावजूद अब भी अगर जिन पार्टियों  को लगता है कि वे नरेंद्र मोदी से मुक़ाबला करना चाहते हैं, तो उन्हें अपनी पार्टी और सरकारों के कामकाज का तरीक़ा बदल देना पड़ेगा। और सबसे पहले उनको काम करके साबित करना होगा, जो कि मोदी के लिए भी बहुत आसान नहीं था, फिर भी उन्होंने गुजरात में करके दिखाया।

राजस्थान में मोदी ने कांग्रेस को सूपड़ा साफ कर दिया। 25 में से पूरी 25 सीट उन्होंने जीतीं। ऐसा ही गुजरात, दिल्ली, उत्तराखंड आदि कुखेक राज्यों में हुआ। कांग्रेस का खाता ही नहीं खुला। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास के अब तक के सबसे बड़े पराक्रमी बहुमत के रथ पर सवार मोदी की मारक अदाओं ने बीजेपी के बाहर और भीतर भी अपने तमाम विरोधियों और आलोचकों को अवाक कर दिया है। देश के बुद्धिजीवी और राजनीतिक विश्लेषक भी मानने लगे हैं कि कांग्रेस अगर आगे भी सोनिया गांधी और राहुल गांधी की पारिवारिक पार्टी नहीं भी बनकर रहती है, तो भी कांग्रेस को अब भूल जाना चाहिए। क्योंकि कांग्रेस अब अगर बदल भी जाएगी तो भी कुछ मामलों में वैसी ही रहेगी। वह निर्वीकार तो कभी भी नहीं बन पाएगी। क्योंकि वहां की सारी अपार और अपरंपार शक्तियां तो अंततः गांधी परिवार और उसकी परंपराओं में ही नीहित रहेंगी। जबकि वक्त की मांग कुछ और है। असल बात यह है कि कांग्रेस को अपना बरसों से चला आ रहा कांग्रेसी वर्क कल्चर बदलना होगा, जो फिलहाल तो आसानी से संभव नहीं दिखता। वैसे, कांग्रेस को आज जो हश्र हुआ है, वह चुनाव के छह महीने पहले से ही सभी को साफ था। कांग्रेस और उसके कारिंदे भी इसे समझ तो रहे थे, मगर आंख पर बंधी पट्टी खोलकर वे देखना ही नहीं चाह रहे थे।

इस चुनाव के नतीजों को नरेंद्र मोदी की धुंआधार मेहनत और अपरंपार सफलता के पार भी देखना चाहिए। राहुल गांधी का कांग्रेस के कबाड़े में भरपूर योगदान रहा। लंबे समय तक देश के गांव – गली – मोहल्लों में घर – घर घूमने के बाद भी वे देश की माटी के मिजाज को समझ नहीं पाए। फिर कांग्रेस के सत्यानाश में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का भी कोई कम योगदान नहीं है। जिस पार्टी ने उनको दो दो बार पीएम बनाया, जिसने उनके हर पाप का बचाव किया और जिसको हर तकलीफ में संजीवनी सूंघाकर मजबूत बनाया, उसने कांग्रेस के लिए क्या किया, यह भी सबसे बड़ा सवाल है। आलम यह है कि कांग्रेस का असल वोट बैंक मुस्लिम, देश के बहुत सारे राज्यों में बीजेपी की ताल पर बहुत ज्यादा थिरकने लगा है। मोदी का विकास का मंत्र उसे भी सुहा रहा है। उसने कांग्रेस के हाथ, मायावती के हाथी, एसपी की साइकिल, लालू की लालटेन वगैरह की असलियत समझ ली है। बड़ी संख्या में दलित भी मोदी के नाम पर जुड़ गया है और ओबीसी ने भी कांग्रेस से किनारा करके बीजेपी का दामन थाम लिया है। देश को लगने लगा है कि 42 साल के होने के बावजूद राहुल गांधी 62 साल के बूढ़े होते नरेंद्र मोदी के मुकाबले मेहनत नहीं कर सकते। उनमें किसी किस्म की ताकत ही नहीं है, जो देश चलाने वाले किसी व्यक्ति में होनी चाहिए। कांग्रेस को इसीलिए हर जगह, हर तरह से देश ने खारिज कर दिया है। अब कांग्रेस का फिर से खड़ा होना अपने को तो बहुत आसान नहीं लगता। आपको लगता हो तो मुबारक।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)