मोदी के हनीमूनकाल बीतने का इंतजार तो कीजिये

रक्षा मंत्री की खोज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को करनी है और बीजेपी के अध्यक्ष की खोज संघ परिवार को करनी है। लेकिन दोनों ही खोज में दोनों ही सहमति होनी चाहिये। इसलिये रक्षा मंत्री होगा कौन यह सवाल बीतते वक्त के साथ सरकार के लिये बड़ा होता जा रहा है, वहीं अध्यक्ष को लेकर भी आरएसएस के लिये परिस्थितियां उलझ रही हैं। फैसला जल्दबाजी में होना नहीं चाहिये। यह आरएसएस का विचार है और रक्षा मंत्रालय कभी भी वित्त मंत्री के पास रहता नहीं यह सरकार चलाने वाले अब खुले तौर पर मान भी रहे हैं और कह भी रहे हैं । क्योंकि रक्षा मंत्रालय का बजट ही अगर वित्त मंत्री बनाने लगे तो रक्षा मंत्रालय का नजरिया और सरकारी खजाने की जरुरत किसे ज्यादा है, यह उलझ जायेगा। वहीं अगले चार -पांच महींनो के भीतर आधे दर्जन राज्यों में चुनाव होने है तो राजनाथ गृह मंत्री रहते हुये कैसे बीजेपी को संवारेंगे यह भी

बड़ा सवाल है। तो दोनों पदो को लेकर कई फार्मूले हैं। पहला फार्मूला आडवाणी कैंप का।

 

अगर आडवाणी स्पीकर बन जाये तो जोशी रक्षा मंत्री हो जाये । दूसरा फार्मूला आडवाणी विरोधी कैप का है। सुरेश प्रभु को बीजेपी में शामिल कराकर रक्षा मंत्री बना दिया जाये। लेकिन यहा संघ की हरी झंडी चाहिये। क्योंकि सुरेश प्रभु शिवसेना छोड़ चुके है और शिवसेना इससे रुठ सकती है। और तीसरा फार्मूला सत्ता के गलियारे का है। अरुण शौरी को रक्षा मंत्री बना दिया जाये। हालांकि अरुण शौरी का नाम योजना आयोग के उपाध्यक्ष के तौर पर भी लिया जा रहा है। लेकिन इसके सामानांतर चौथे फार्मूला भी चल निकला है। जसवंत सिंह को वापस बीजेपी में ले लिया जाये और यशंवत सिन्हा को बीजेपी की सत्ता के मुख्यधारा में ले आया जाये। लेकिन अभी यह सिर्फ फार्मूले हैं। और किसी भी नाम पर आखरी मुहर संघ से चर्चा के बाद ही लगेगी । लेकिन संघ की चिन्ता को बीजेपी के अध्यक्ष को लेकर कही ज्यादा है। और वहां तीन नाम तेजी से उभरे हैं। जेपी नड्डा, ओम माथुर और अमित शाह । इन तीन चेहरों में कौन बीजेपी का अध्यक्ष होगा। इस पर संघ पहले बीजेपी के भीतर सहमति चाहता है। और मुश्किल यह है कि बीजेपी के भीतर मौजूदा वक्त में सिर्फ पीएम मोदी की ही तूती बोल रही है। तो अध्यक्ष बनने की कतार के तीनों चेहरे मोदी की पंसद ही माने जा रहे हैं। और संघ अभी खामोश है। क्योंकि सरकार और पार्टी का फार्मूला पहली बार साथ साथ चल रहा है। लेकिन सरकार का नजरिया इस दौर में वाकई सरकार चलाने और उस दौड़ाने का है। इसलिये जिन मुद्दो पर सवार होकर बीजेपी सत्ता तक पहुंची उसे भी पहले साधना है और लोकसभा में बहुमत से ज्यादा होते हुये भी राज्यसभा को कैसे साधा जाये इसके उपाय भी निकालने है क्योंकि एनडीए के पास सिर्फ 65 सांसद ही राज्यसभा में है।

 

तो इसके लिये रास्ता किसी भी तरह जयललिता को साध लाने का शुर हो चुका है। एआईएडीएमके के 11 सांसद राज्यसभा में है । और अगर एआईएडीएमके किसी तरह से बीजेपी के साथ जुड़ जाती है तो यह नरेन्द्र मोदी के लिये सबसे बड़ी राहत होगी। 3 जून को जयललिता दिल्ली आ रही हैं। माना जा रहा है कि तमिलनाडु से जुड़े मुद्दे को लेकर जयललिता प्रधानमंत्री को एक ज्ञापन सौपेंगी। लेकिन अंदरुनी संकेत यही है कि जयललिता के साथ बीजेपी रणनीतिक समझौता करना चाहेगी। जिससे संसद में कोई बिल राज्यसभा के पटल पर पहुंचकर रुके नहीं। वहीं मुद्दों को साधने के लिये पीएम अब अपनी सरकार को मथने के लिये तैयार है। क्योंकि महंगाई ,रोजगार,भ्रष्टाचार और कालाधन का मुद्दा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की निगाहों में है, जिनके आसरे सरकार की साख बननी है। क्योंकि इन्हीं मुद्दों की पीठ पर सवार होकर नरेन्द्र मोदी सत्ता तक पहुंचे हैं।  लेकिन सीधे इनका नाम लेकर सरकार अभी से जनता के सामने सरकार को कोई ऐसा एजेंडा रखना नहीं चाहती है, जिससे जनता दिन गिनने लगे कि जो वादे पूरे किये गये वह कब पूरे होंगे या पूरे होने में देरी तो नहीं हो रही है। इसलिये महंगाई की जगह अर्थव्यवस्था को दुरस्त करने की बात कही गयी। रोजगार की जगह इन्फ्रास्ट्रक्चर और निवेश के साथ योजनाओ को पूरा करने पर जोर दिया जा रहा है। भ्रष्टाचार की जगह सुशासन और पारदर्शिता का जिक्र है और कालाधन को लेकर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर एसआईटी गठन का एलान है। तो क्या नरेन्द्र मोदी इस सच को समझ चुके हैं कि चुनावी प्रचार में मुद्दों का जिक्र तो किया जा सकता है लेकिन मुद्दों को पूरा करने के लिये समूची सरकार को एक तार में पिरोना जरुरी है। इसलिये पहला कदम हर मंत्री को सौ दिन के प्लान के दायरे में लाना जरुरी है। क्योंकि लक्ष्य सामने नहीं होगा तो फिर जनता की उम्मीदों पर खरा उतरना भी मुश्किल हो जायेगा। ध्यान दें तो प्रधानमंत्री मोदी ने बेहद बारीकी से उन दो भारत को जोडने की शुरुआत दूसरी कैबिनेट की बैठक में ही दिखला दी जिनके बीच खाई बेहद चौड़ी है । एक तरफ न्यूनतम को पूरा करने का लक्ष्य जिसमें सड़क पानी बिजली, इलाज और शिक्षा है। तो दूसरी तरफ विकास की वह धारा जिसकी तरफ देश का बीस करोड उपभोक्ता बेचैनी से देख रहा है। यानी अटकी योजनायें,विदेशी निवेश की संभावनाये और इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करना सरकार की प्राथमिकता है।

लेकिन सबसे बडी बडी मुश्किल खुदकुशी करते किसान से लेकर रोजगार के लिये रोजगार दफ्तर में बढती युवाओ की तादाद पर रोक कैसे लगेगी इसका कोई फार्मूला कहीं नहीं है।  इसके उलट कारपोरेट और औघोगिक घरानों की ताकत बढ़ रही है।

 

उन्हीं के लाभ या कहे उन्हीं के जरीये विकास का समूचा खाका खड़ा किया जा रहा है। इसका एक नजारा पीएम के शपथ ग्रहण समारोह में नजर आया तो दूसरा नजारा सड़क बिजली पानी से लेकर शिक्षा और अस्पताल तक के लिये अब मंत्रालय कारपोरेट से उनकी कार्ययोजना मांग रहे हैं। जिससे अगले 100 दिनो का एजेंडा तय कर सके। ध्यान दें तो यूपीए-2 में इसी तरह मंत्रालयों की रिपोर्ट कार्ड तैयार करने का आधार मंत्रियो की योजनाओ से जोड़ा गया था । और उस वक्त हर मंत्री कारपोरेट के आसरे ही विकास योजनाओ का खाका तैयार करने में ही भरोसा पाले हुये था। और संयोग से तभी राडिया कांड हुआ था। लेकिन मोदी के युग में इतनी पारदर्शिता तो आ ही गयी है कि क्रोनी कैपिटलिज्म पर शपथ ग्रहण में ही सहमति दिखायी दे गयी। अंबानी-अडानी ही नहीं बल्कि सवा छह सौ कुर्सियां सिर्फ कारपोरेट और औघोगिक घरानों के नाम पर लगी थीं। और पहली बार कार्ड में भी छपा था कि आपको इंडस्ट्रिलिस्ट वाली कतार में बैठना है। तो आगे कैसे-कैसे क्या -क्या होगा । इसके संकेत तो

हर कोई समझ रहा है लेकिन यह हनीमून काल है। इसलिये हनीमून-काल के बीतने का इंतजार कीजिये।