गोवा में “वेलिंगकर वैचारिक घमासान” :– संघ भाजपा की मुश्किलें

जैसा कि सभी जानते हैं हाल ही में, गोवा प्रांत के संघ प्रमुख प्रोफ़ेसर सुभाष वेलिंगकर को RSS ने सभी जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया है. सुभाष वेलिंगकर किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, फिर भी जो लोग नहीं जानते उनके लिए संक्षेप में यह जानना जरूरी है कि वेलिंगकर गोवा में संघ की ओर से नींव का पत्थर माने जाते हैं. जिस समय पूरे गोवा में संघ की केवल एक शाखा लगा करती थी, यानी लगभग पचास साल पहले, उसमें भी वेलिंगकर सहभागी हुआ करते थे. इन पचास-पचपन वर्षों में प्रोफ़ेसर सुभाष वेलिंगकर ने मनोहर पर्रीकर से लेकर पार्सेकर जैसे कई भाजपा नेताओं को सिखाया-पढ़ाया और परदे के पीछे रहकर उन्हें राजनैतिक रूप से खड़ा करने में मदद की. तो फिर ऐसा क्या हुआ कि सुभाष वेलिंगकर जैसे खाँटी संघी और जमीनी व्यक्ति को पदमुक्त करने की नौबत आ गई? इसकी जड़ में भाजपा को लगी सत्ता की लत और उनकी वादाखिलाफी. आईये देखते हैं कि आखिर हुआ क्या है…

“वेटिकन पोषित” मीडिया ने हमें यह बताया है कि प्रोफ़ेसर वेलिंगकर अंग्रेजी माध्यम स्कूलों का विरोध कर रहे थे, इसलिए उन्हें हटा दिया गया… लेकिन यह अर्धसत्य” है. असल में सन 1990 से गोवा सरकार की यह नीति रही है कि सरकार केवल कोंकणी और मराठी भाषा में पढ़ाने वाले प्राथमिक विद्यालयों को अनुदान देगी. इसका मतलब यह नहीं था कि गोवा में अंग्रेजी स्कूल नहीं चलेंगे, वे भी चलते रहे, लेकिन उन्हें शासकीय अनुदान नहीं मिलता था, वे चर्च के अपने निजी स्रोतों से पैसा लाते और स्कूल चलाते थे. अर्थात 2011 तक स्थिति यह थी कि कोंकणी भाषा में पढ़ाने वाले 135 स्कूल, मराठी भाषा में पढ़ाने वाले 40 स्कूल शासकीय अनुदान प्राप्त करते थे, और अंग्रेजी माध्यम के किसी भी स्कूल को अनुदान नहीं दिया जाता था. सन 2011 के काँग्रेस शासन में यह नीति बदली गई. चर्च और अंग्रेजी प्रेमी पालकों के दबाव में गोवा की काँग्रेस सरकार ने अंग्रेजी माध्यम स्कूलों को भी शासकीय अनुदान देने की घोषणा कर दी. इसका नतीजा यह हुआ कि लगभग 130 स्कूल रातोंरात इसका फायदा उठाकर “केवल अंग्रेजी माध्यम” के स्कूल बन गए, ताकि अंग्रेजी के दीवानों को आकर्षित भी कर सकें और सरकारी अनुदान भी ले सकें. ये सभी स्कूल चर्च संचालित थे, जो उस समय तक मजबूरी में कोंकणी और मराठी भाषा के माध्यम से पढ़ाते थे, लेकिन चूँकि पढ़ने वाले बच्चों की संख्या काफी मात्रा में थी, इसलिए फीस का लालच तो था ही, इसलिए बन्द करने का सवाल ही नहीं उठता था, परन्तु जैसे ही “अंग्रेजी माध्यम स्कूलों को भी” शासकीय अनुदान मिलेगा, यह घोषित हुआ, इन्होंने कोंकणी और मराठी भाषा को तिलांजली दे दी.

2012 में मनोहर पर्रीकर के नेतृत्त्व में गोवा विधानसभा का चुनाव लड़ा गया. इसमें पर्रीकर ने चर्च के साथ रणनीतिक गठबंधन किया लेकिन साथ ही संघ (यानी वेलिंगकर) को यह आश्वासन भी दिया कि अंग्रेजी माध्यम स्कूलों को जो अनुदान दिया जा रहा है, वह बन्द कर देंगे. छः जून 2012 को पर्रीकर सरकार ने अधिसूचना जारी करके कहा कि सरकार अब पुनः कोंकणी और मराठी भाषा के स्कूलों को अनुदान देगी, लेकिन जो स्कूल 2011 में “केवल अंग्रेजी माध्यम” स्कूल में परिवर्तित हो गए हैं, उनकी सरकारी सहायता भी जारी रहेगी. यहाँ तक कि उस अधिसूचना में यह भी लिख दिया गया कि केवल वही अंग्रेजी माध्यम स्कूल, जो अल्पसंख्यकों द्वारा चलाए जाते हैं, उन्हीं को सरकारी पैसा मिलेगा. यह सरासर वेलिंगकर के “भारतीय भाषा बचाओ आंदोलन” और उनसे किए गए वादे के साथ धोखाधड़ी थी. इस निर्णय ने वेलिंगकर को बुरी तरह नाराज कर दिया, लेकिन चर्च के दबाव में पर्रीकर सरकार ने अपना निर्णय नहीं बदला. पर्रीकर के केन्द्र में जाने के बाद लक्ष्मीकांत पार्सेकर मुख्यमंत्री बने, और दस अगस्त को ही उन्होंने भी घोषणा कर दी कि अल्पसंख्यकों (यानी ईसाई) द्वारा संचालित अंग्रेजी माध्यम स्कूलों को अनुदान जारी रहेगा.

प्रोफ़ेसर सुभाष वेलिंगकर के क्रोध की मूल वजह यह भी है कि गोवा की भाजपा सरकार ने शासकीय अनुदान की यह मिठाई “केवल” अल्पसंख्यक संस्थानों द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों को ही दी है. यानी यदि कोई हिन्दू व्यक्ति अंग्रेजी माध्यम का स्कूल चलाए तो उसे शासकीय अनुदान नहीं मिलेगा. भारत में शिक्षा को लेकर भेदभाव निजी अथवा सरकारी से ज्यादा “बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक” का है. इसीलिए मध्यान्ह भोजन से लेकर शिक्षा का अधिकार तक जब भी कोई क़ानून अथवा नियम बनाया जाता है, तो वह केवल बहुसंख्यकों द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों पर सख्ती से लागू होता है, जबकि अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित स्कूलों को इसमें छूट मिलती है. वेलिंगकर के नाराज होने की असल वजह यही थी कि 1990 से लेकर 2011 तक जो नीति थी, उसी को भाजपा ने पुनः लागू क्यों नहीं किया? जबकि भाजपा खुद भी “भारतीय भाषाओं” और हिन्दी-मराठी-कोंकणी के प्रति अपना प्रेम जताती रही है, फिर सत्ता में आने के बाद चर्च के सामने घुटने टेकने की क्या जरूरत है? लेकिन चूँकि पर्रीकर को गोवा में जीत इसीलिए मिली थी कि चर्च ने उनका साथ दिया था, इसलिए वे चर्च के अहसानों तले दबे हुए थे. उधर केन्द्र में प्रकाश जावड़ेकर ने संसद में यह बयान देकर कि, “अल्पसंख्यक संस्थानों के शिक्षा व अनुदान नियमों के साथ किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं की जाएगी…” वेलिंगकर को और भी भड़का दिया.

प्रोफ़ेसर वेलिंगकर पिछले कुछ वर्ष से कोंकणी और मराठी भाषा को बचाने के लिए “भारतीय भाषा बचाओ आंदोलन” (BBSM) के नाम से आंदोलन चलाए हुए हैं. संघ के तपे-तपाए नेता होने के कारण जनता को समझाने व एकत्रित करने में वे माहिर हैं, इसीलिए सैकड़ों जमीनी संघ कार्यकर्ता भी उनके साथ हैं. इस समस्या का एकमात्र हल यही है कि केन्द्र सरकार संविधान के 93वें संशोधन पर पुनर्विचार करे और शिक्षा का अधिकार क़ानून की पुनः समीक्षा करके उसमें समुचित बदलाव लाए. अन्यथा यह समस्या पूरे देश में चलती ही रहेगी और अल्पसंख्यक संस्थानों को हमेशा “रक्षा कवच” मिला रहेगा, और वे अपनी मनमानी करते रहेंगे. ईसाई संस्थाएँ अपने अनुसार अंग्रेजी को प्राथमिकताएँ देंगी जबकि मदरसा संचालित स्कूल उर्दू को. इस बीच बहुसंख्यक संचालित संस्थाओं का हिन्दी (एवं क्षेत्रीय भाषाओं) के माध्यमों से चलने वाले स्कूल दुर्दशा का शिकार बनेंगे और अंग्रेजी का प्रभुत्व बढ़ता ही जाएगा. जापान, रूस, कोरिया व चीन जैसे कई देशों में यह सिद्ध हुआ है कि “प्राथमिक शिक्षा” केवल और केवल मातृभाषा में ही होना चाहिए, अन्यथा बच्चे के मानसिक विकास में बाधा आती है. अंग्रेजी को कक्षा आठ या दस के बाद लागू किया जा सकता है.

वेलिंगकर का मूल सवाल यह है कि यदि पूरे देश में कई वर्षों से अंग्रेजी की शिक्षा प्राथमिक स्तर से दी जा रही है, फिर भी देश के युवाओं की अंग्रेजी का स्तर ऊँचा क्यों नहीं उठ रहा है? क्यों अमेरिका जाते समय उन्हें अंग्रेजी की विभिन्न परीक्षाओं में बैठना पड़ता है? बहरहाल, पिछले दो वर्ष से वेलिंगकर लगातार पर्रीकर और पार्सेकर पर शाब्दिक हमले करते रहे हैं. चूँकि वेलिंगकर भाजपा में किसी पद पर नहीं थे, इसलिए उन्हें कोई गंभीरता से नहीं सुन रहा था, परन्तु इस मुद्दे को लेकर वेलिंगकर के सैकड़ों समर्थकों ने जिस तरह गोवा दौरे के समय भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को काले झण्डे दिखाए थे, उसने मामला और बिगाड़ दिया है. संघ मुख्यालय ने इसे गंभीरता से लेते हुए अंततः प्रोफ़ेसर सुभाष वेलिंगकर को बाहर का रास्ता दिखा ही दिया, और ऐसा लगता है कि आगे भी गोवा सरकार पर चर्च का दबाव एवं अंग्रेजी का प्रभुत्व बरकरार ही रहेगा.

इस घटनाक्रम की राजनैतिक परिणति कैसे होती है यह तो जल्दी ही होने वाले विधानसभा चुनावों में पता चल ही जाएगी, लेकिन जिस तरह से वेलिंगकर के समर्थन में शिवसेना, भाजपा, संघ और खासकर महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी के सदस्य खुल्लमखुल्ला रूप में जुड़ रहे हैं, उसे देखते हुए भाजपा की राह आसान नहीं होगी. स्वयं वेलिंगकर ने भी कहा है कि वे अपने संगठन BBSM के तहत गोवा की चालीस में से कम से कम 35 सीटों पर उम्मीदवार खड़े करेंगे, और वे खुद चुनाव नहीं लड़ेंगे. यदि गोमांतक पार्टी सरकार छोड़कर उनके साथ आती है तो वे उसका स्वागत करेंगे. उल्लेखनीय है कि गोमांतक पार्टी का भी मुख्य मुद्दा भाषा बचाओ, गोवा की मूल संस्कृति बचाओ ही रहा है. जिस तरह वेलिंगकर खुलेआम मनोहर पर्रीकर और पार्सेकर पर विभिन्न आरोप लगा रहे हैं, इससे लगता है कि मामला बेहद गंभीर है, क्योंकि प्रोफ़ेसर वेलिंगकर ने कभी भी कोई राजनैतिक महत्वाकांक्षा नहीं दिखाई है. इस बीच पाँच सितम्बर की ताज़ा खबर यह है कि संघ से हटाए जाने के बावजूद वेलिंगकर ने कहा है कि वे पहले की तरह शाखा लगाते रहेंगे, अपनी रिपोर्ट नागपुर भेजते रहेंगे. बताया जाता है कि वेलिंगकर के मुख्य मुद्दे के समर्थन में संघ के लगभग दस हजार कार्यकर्ता भी हैं जो फिलहाल खुलकर सामने नहीं आ रहे हैं.

देखना होगा कि भाषा बचाओ आंदोलन और शिक्षा में चर्च के दखल का यह मुद्दा गोवा के निवासियों के दिल को कितना छूता है, लेकिन संघ और भाजपा ने जिस तरह से वेलिंगकर के मुद्दों को लटकाए रखा, उनसे वादाखिलाफी की और प्रकरण का बड़े ही भद्दे तरीके से समापन किया, वह पार्टी और खासकर विचारधारा के लिए निश्चित ही चिंताजनक बात है…

(ये लेखक केे अपनें विचार हैं , ये आवश्‍यक नहीं है कि भारत वार्ता इससे सहमत हो)