विचारधारा से भटकाव, और संघ से विमुखता… – बदली हुई भाजपा

कहावत है की “आधी छोड़, पूरी को धाए, न आधी मिले न पूरी पाए”. अर्थात हाथ में मौजूद आधी रोटी को छोड़कर पूरी रोटी लपकने के चक्कर में हमेशा ऐसा होता है की हाथ में जो आधी रोटी रखी है, वह भी छिन जाती है. जिस समय भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को गोवा में संघ के कार्यकर्ता काले झण्डे दिखा रहे थे, उस समय भाजपा और संघ के कई विचारकों के दिमाग में यही उक्ति कौंधी होगी. भाजपा जैसी “अनुशासित” कही जाने वाली पार्टी के अध्यक्ष को प्रोफ़ेसर सुभाष वेलिंगकर के नेतृत्व में संघ के ही कार्यकर्ता काले झण्डे दिखाएँ और नारेबाजी करें, तो कोई सामान्य गैर-राजनैतिक व्यक्ति भी बता सकता है की स्थिति वाकई गंभीर है. परन्तु इसके समाधान की दिशा में कदम बढ़ाना तो दूर, भाजपा नेतृत्व के दबाव में आकर संघ मुख्यालय से प्रोफ़ेसर सुभाष वेलिंगकर को उनकी संघ संबंधी सभी जिम्मेदारियों से मुक्त करने संबंधी आदेश आ गया.

“…भाजपा जब भी विपक्ष में होती है तब उसके मुद्दे कुछ और होते हैं, लेकिन सत्ता में आने के बाद उसके सुर बदल जाते हैं…” ऐसा आरोप अभी तक विपक्षी लगाते थे, परन्तु अब भाजपा और संघ के भीतर से ही आवाज़ें उठने लगी हैं कि “सत्ता प्रेम” (या कहें कि सत्ता का नशा) भाजपा पर ऐसा भारी हो चला है कि यह पार्टी तेजी से अपनी “वैचारिक जमीन” छोडती चली जा रही है. यानी जो पार्टी और संगठन अपनी विचारधारा से ही पहचाना जाता था, अब वही केवल सत्ता पाने और बचाए रखने के लिए जिस तरह अपनी मूल विचारधारा से कटता जा रहा है, वह दूसरों के लिए आश्चर्यजनक और पार्टी के समर्पित, निष्ठावान और जमीनी कार्यकर्ताओं के लिए दुखद अनुभव लेकर आ रहा है. इस लेख में ऐसे ही कुछ “वैचारिक स्खलन” के उदाहरण संक्षेप में समझने की कोशिश करेंगे. ज़ाहिर है सबसे पहले गोवा और प्रोफ़ेसर सुभाष वेलिंगकर… चूंकि गोवा एक बहुत ही छोटा राज्य है, और फिलहाल “केवल दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र NCR” में विचरने वाले तथाकथित “राष्ट्रीय मीडिया” में इस राज्य के बारे में अधिक कवरेज नहीं दिया जाता, इसलिए अधिकाँश पाठकों को गोवा में चल रहे इस वैचारिक घमासान के बारे में पूरी जानकारी नहीं होगी. चलिए पहले इसी को समझ लेते हैं….

सुभाष वेलिंगकर किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, फिर भी जो लोग नहीं जानते उनके लिए संक्षेप में यह जानना जरूरी है कि वेलिंगकर गोवा में संघ की ओर से नींव का पत्थर माने जाते हैं. जिस समय पूरे गोवा में संघ की केवल एक शाखा लगा करती थी, यानी लगभग पचास साल पहले, उसमें भी वेलिंगकर सहभागी हुआ करते थे. इन पचास-पचपन वर्षों में प्रोफ़ेसर सुभाष वेलिंगकर ने मनोहर पर्रीकर से लेकर पार्सेकर जैसे कई भाजपा नेताओं को सिखाया-पढ़ाया और परदे के पीछे रहकर उन्हें राजनैतिक रूप से खड़ा करने में मदद की. तो फिर ऐसा क्या हुआ कि सुभाष वेलिंगकर जैसे खाँटी संघी और जमीनी व्यक्ति को पदमुक्त करने की नौबत आ गई? इसकी जड़ में भाजपा को लगी सत्ता की लत और उनकी वादाखिलाफी. आईये देखते हैं कि आखिर हुआ क्या है…

“वेटिकन पोषित” मीडिया ने हमें यह बताया है कि प्रोफ़ेसर वेलिंगकर अंग्रेजी माध्यम स्कूलों का विरोध कर रहे थे, इसलिए उन्हें हटा दिया गया… लेकिन यह अर्धसत्य” है. असल में सन 1990 से गोवा सरकार की यह नीति रही है कि सरकार केवल कोंकणी और मराठी भाषा में पढ़ाने वाले प्राथमिक विद्यालयों को अनुदान देगी. इसका मतलब यह नहीं था कि गोवा में अंग्रेजी स्कूल नहीं चलेंगे, वे भी चलते रहे, लेकिन उन्हें शासकीय अनुदान नहीं मिलता था, वे चर्च के अपने निजी स्रोतों से पैसा लाते और स्कूल चलाते थे. अर्थात 2011 तक स्थिति यह थी कि कोंकणी भाषा में पढ़ाने वाले 135 स्कूल, मराठी भाषा में पढ़ाने वाले 40 स्कूल शासकीय अनुदान प्राप्त करते थे, और अंग्रेजी माध्यम के किसी भी स्कूल को अनुदान नहीं दिया जाता था. सन 2011 के काँग्रेस शासन में यह नीति बदली गई. चर्च और अंग्रेजी प्रेमी पालकों के दबाव में गोवा की काँग्रेस सरकार ने अंग्रेजी माध्यम स्कूलों को भी शासकीय अनुदान देने की घोषणा कर दी. इसका नतीजा यह हुआ कि लगभग 130 स्कूल रातोंरात इसका फायदा उठाकर “केवल अंग्रेजी माध्यम” के स्कूल बन गए, ताकि अंग्रेजी के दीवानों को आकर्षित भी कर सकें और सरकारी अनुदान भी ले सकें. ये सभी स्कूल चर्च संचालित थे, जो उस समय तक मजबूरी में कोंकणी और मराठी भाषा के माध्यम से पढ़ाते थे, लेकिन चूँकि पढ़ने वाले बच्चों की संख्या काफी मात्रा में थी, इसलिए फीस का लालच तो था ही, इसलिए बन्द करने का सवाल ही नहीं उठता था, परन्तु जैसे ही “अंग्रेजी माध्यम स्कूलों को भी” शासकीय अनुदान मिलेगा, यह घोषित हुआ, इन्होंने कोंकणी और मराठी भाषा को तिलांजली दे दी.

2012 में मनोहर पर्रीकर के नेतृत्त्व में गोवा विधानसभा का चुनाव लड़ा गया. इसमें पर्रीकर ने चर्च के साथ रणनीतिक गठबंधन किया लेकिन साथ ही संघ (यानी वेलिंगकर) को यह आश्वासन भी दिया कि अंग्रेजी माध्यम स्कूलों को जो अनुदान दिया जा रहा है, वह बन्द कर देंगे. छः जून 2012 को पर्रीकर सरकार ने अधिसूचना जारी करके कहा कि सरकार अब पुनः कोंकणी और मराठी भाषा के स्कूलों को अनुदान देगी, लेकिन जो स्कूल 2011 में “केवल अंग्रेजी माध्यम” स्कूल में परिवर्तित हो गए हैं, उनकी सरकारी सहायता भी जारी रहेगी. यहाँ तक कि उस अधिसूचना में यह भी लिख दिया गया कि केवल वही अंग्रेजी माध्यम स्कूल, जो अल्पसंख्यकों द्वारा चलाए जाते हैं, उन्हीं को सरकारी पैसा मिलेगा. यह सरासर वेलिंगकर के “भारतीय भाषा बचाओ आंदोलन” और उनसे किए गए वादे के साथ धोखाधड़ी थी. इस निर्णय ने वेलिंगकर को बुरी तरह नाराज कर दिया, लेकिन चर्च के दबाव में पर्रीकर सरकार ने अपना निर्णय नहीं बदला. पर्रीकर के केन्द्र में जाने के बाद लक्ष्मीकांत पार्सेकर मुख्यमंत्री बने, और दस अगस्त को ही उन्होंने भी घोषणा कर दी कि अल्पसंख्यकों (यानी ईसाई) द्वारा संचालित अंग्रेजी माध्यम स्कूलों को अनुदान जारी रहेगा.

प्रोफ़ेसर सुभाष वेलिंगकर के क्रोध की मूल वजह यह भी है कि गोवा की भाजपा सरकार ने शासकीय अनुदान की यह मिठाई “केवल” अल्पसंख्यक संस्थानों द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों को ही दी है. यानी यदि कोई हिन्दू व्यक्ति अंग्रेजी माध्यम का स्कूल चलाए तो उसे शासकीय अनुदान नहीं मिलेगा. भारत में शिक्षा को लेकर भेदभाव निजी अथवा सरकारी से ज्यादा “बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक” का है. इसीलिए मध्यान्ह भोजन से लेकर शिक्षा का अधिकार तक जब भी कोई क़ानून अथवा नियम बनाया जाता है, तो वह केवल बहुसंख्यकों द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों पर सख्ती से लागू होता है, जबकि अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित स्कूलों को इसमें छूट मिलती है. वेलिंगकर के नाराज होने की असल वजह यही थी कि 1990 से लेकर 2011 तक जो नीति थी, उसी को भाजपा ने पुनः लागू क्यों नहीं किया? जबकि भाजपा खुद भी “भारतीय भाषाओं” और हिन्दी-मराठी-कोंकणी के प्रति अपना प्रेम जताती रही है, फिर सत्ता में आने के बाद चर्च के सामने घुटने टेकने की क्या जरूरत है? लेकिन चूँकि पर्रीकर को गोवा में जीत इसीलिए मिली थी कि चर्च ने उनका साथ दिया था, इसलिए वे चर्च के अहसानों तले दबे हुए थे. उधर केन्द्र में प्रकाश जावड़ेकर ने संसद में यह बयान देकर कि, “अल्पसंख्यक संस्थानों के शिक्षा व अनुदान नियमों के साथ किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं की जाएगी…” वेलिंगकर को और भी भड़का दिया.

प्रोफ़ेसर वेलिंगकर पिछले दस वर्ष से कोंकणी और मराठी भाषा को बचाने के लिए “भारतीय भाषा बचाओ आंदोलन” (BBSM) के नाम से आंदोलन चलाए हुए हैं. संघ के तपे-तपाए नेता होने के कारण जनता को समझाने व एकत्रित करने में वे माहिर हैं, इसीलिए सैकड़ों जमीनी संघ कार्यकर्ता भी उनके साथ हैं. इस समस्या का एकमात्र हल यही है कि केन्द्र सरकार संविधान के 93वें संशोधन पर पुनर्विचार करे और शिक्षा का अधिकार क़ानून की पुनः समीक्षा करके उसमें समुचित बदलाव लाए. अन्यथा यह समस्या पूरे देश में चलती ही रहेगी और अल्पसंख्यक संस्थानों को हमेशा “रक्षा कवच” मिला रहेगा, और वे अपनी मनमानी करते रहेंगे. ईसाई संस्थाएँ अपने अनुसार अंग्रेजी को प्राथमिकताएँ देंगी जबकि मदरसा संचालित स्कूल उर्दू को. इस बीच बहुसंख्यक संचालित संस्थाओं का हिन्दी (एवं क्षेत्रीय भाषाओं) के माध्यमों से चलने वाले स्कूल दुर्दशा का शिकार बनेंगे और अंग्रेजी का प्रभुत्व बढ़ता ही जाएगा. जापान, रूस, कोरिया व चीन जैसे कई देशों में यह सिद्ध हुआ है कि “प्राथमिक शिक्षा” केवल और केवल मातृभाषा में ही होना चाहिए, अन्यथा बच्चे के मानसिक विकास में बाधा आती है. अंग्रेजी को कक्षा आठ या दस के बाद लागू किया जा सकता है.

बहरहाल, पिछले दो वर्ष से इस मुद्दे को लेकर वेलिंगकर लगातार पर्रीकर और पार्सेकर पर शाब्दिक हमले करते रहे हैं. चूँकि वेलिंगकर भाजपा में किसी पद पर नहीं थे, इसलिए उन्हें कोई गंभीरता से नहीं सुन रहा था, परन्तु इस मुद्दे को लेकर वेलिंगकर के सैकड़ों समर्थकों ने जिस तरह गोवा दौरे के समय भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को काले झण्डे दिखाए थे, उसने मामला और बिगाड़ दिया है. संघ मुख्यालय ने इसे गंभीरता से लेते हुए अंततः प्रोफ़ेसर सुभाष वेलिंगकर को बाहर का रास्ता दिखा ही दिया, और ऐसा लगता है कि आगे भी गोवा सरकार पर चर्च का दबाव एवं अंग्रेजी का प्रभुत्व बरकरार ही रहेगा.

इस घटनाक्रम की राजनैतिक परिणति कैसे होती है यह तो जल्दी ही होने वाले विधानसभा चुनावों में पता चल ही जाएगी, लेकिन जिस तरह से वेलिंगकर के समर्थन में शिवसेना, भाजपा, संघ और खासकर महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी के सदस्य खुल्लमखुल्ला रूप में जुड़ रहे हैं, उसे देखते हुए भाजपा की राह आसान नहीं होगी. उल्लेखनीय है कि गोमांतक पार्टी का भी मुख्य मुद्दा “भाषा बचाओ, गोवा की मूल संस्कृति बचाओ” ही रहा है. जिस तरह वेलिंगकर खुलेआम मनोहर पर्रीकर और पार्सेकर पर विभिन्न आरोप लगा रहे हैं, इससे लगता है कि मामला बेहद गंभीर है, क्योंकि प्रोफ़ेसर वेलिंगकर ने कभी भी कोई राजनैतिक महत्वाकांक्षा नहीं दिखाई है. बताया जाता है कि वेलिंगकर के मुख्य मुद्दे के समर्थन में संघ के लगभग दस हजार कार्यकर्ता भी हैं जो फिलहाल खुलकर सामने नहीं आ रहे हैं.

देखना होगा कि भाषा बचाओ आंदोलन और शिक्षा में चर्च के दखल का यह मुद्दा गोवा के निवासियों के दिल को कितना छूता है, लेकिन संघ और भाजपा ने जिस तरह से वेलिंगकर के मुद्दों को लटकाए रखा, उनसे वादाखिलाफी की और प्रकरण का बड़े ही भद्दे तरीके से समापन किया, वह पार्टी और खासकर विचारधारा के लिए निश्चित ही चिंताजनक बात है… जैसा कि पहले कहा गया, पिछले दो-ढाई वर्ष में ऐसे कुछ मुद्दे सामने आए हैं, जिनसे यह स्पष्ट होता है कि भाजपा के सामने अब केवल “सत्ता पाना” और “सत्ता बचाए रखना” ये दो ही उद्देश्य रह गए हैं, जबकि पार्टी की मूल पहचान अर्थात “विचारधारा” से पिण्ड छुडाया जा रहा है.

अब बात चर्च की चली ही है तो हाल ही में एक और मुद्दा सामने आया, जिसमें स्पष्ट रूप से दिखाई दिया कि केन्द्र की मोदी सरकार न सिर्फ संघ की विचारधारा को दरकिनार करने में लगी हुई है, बल्कि अपने “मूलभूत मतदाताओं” को भी नाराज करने की हद तक जाने को तैयार है. जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ कोलकाता की मदर टेरेसा को “संत” घोषित करने वाले कार्यक्रम की. संघ अथवा भाजपा से जुड़े हुए सभी सामान्य लोग जानते हैं, कि कोलकाता में “मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी” नामक संस्था, जिसकी कर्ता-धर्ता मदर टेरेसा थीं, वह पिछले कई वर्षों से भारत के विभिन्न राज्यों में ग्रामीण एवं आदिवासी क्षेत्रों में “सेवा” के नाम पर धर्मांतरण के काम में लगी हुई है. संघ से संबद्ध कई संस्थाओं जैसे वनवासी परिषद्, विश्व हिन्दू परिषद् अथवा सेवा भारती इत्यादि लगातार मदर टेरेसा के तथाकथित सेवा कार्यों की तीखी आलोचना करते रहे हैं. संघ से जुडी इन संस्थाओं की जमीनी रिपोर्ट बताती है कि वेटिकन ने मदर टेरेसा रूपी अपने इस “मोहरे” का चन्दा उगाहने तथा धर्मांतरण करने में बड़ा ही शानदार उपयोग किया है.पिछले कई वर्षों से संघ-भाजपा के सभी बड़े-छोटे नेता मदर टेरेसा के “तथाकथित चमत्कार” पर सवाल उठाते आए हैं, खिल्ली उड़ाते आए हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर मोदी सरकार की ऐसी कौन सी मजबूरी थी कि “संत” की उपाधि दिए जाने वाले भव्य कार्यक्रम में भारत सरकार सुषमा स्वराज जैसी कद्दावर नेता (और विदेश मंत्री) को आधिकारिक रूप से वहाँ भेजे? यदि मोदी सरकार “विचारधारा” पर ही अटल होती, तो वह संघ की चिर-परिचित लाईन पर ही टिकी रहती और विदेश सेवा के किसी कनिष्ठ अधिकारी को भी वहाँ भेज सकती थी. ऐसा करने से विदेशों में “मिशनरी” को कड़ा सन्देश भी मिल जाता और निमंत्रण मिलने पर प्रतिनिधिमंडल भेजे जाने की औपचारिकता भी पूरी हो जाती. लेकिन ऐसा नहीं किया गया, और मदर टेरेसा को “संत” बनाकर धर्मांतरण का जो नया “ब्राण्ड एम्बेसडर” गढा गया है, उस पर मोदी सरकार की “आधिकारिक” मुहर भी लग गई.

इस बीच “संतत्व” के इस महिमामंडन और अंधविश्वास फैलाने के इस दुष्कृत्य के खिलाफ लिखने वाले राष्ट्रवादी विचारकों को, मीडिया और सोशल मीडिया पर कई तथाकथित “कूटनीतिज्ञ” और “रणनीतिज्ञ” बार-बार यह बताते रहे कि मदर टेरेसा के इस कार्यक्रम में जाना कितना जरूरी था. जबकि वास्तविकता यह है कि वेटिकन में आयोजित इस फूहड़ता का कई देशों ने बहिष्कार किया, भारत सरकार भी टाल सकती थी. परन्तु भारत की नई-नवेली “राष्ट्रवादी सरकार” इतनी हिम्मत भी न जुटा सकी, कि कार्यक्रम का पूर्ण बहिष्कार न सही, लेकिन कम से कम अपनी विचारधारा पर अटल रहते हुए मिशनरी की तथाकथित सेवा, उनके NGOs के धंधे, वेटिकन के कारनामों एवं धर्मांतरण के खिलाफ कोई कड़ा सन्देश दे पाती. क्योंकि गोवा, मिजोरम, नगालैंड और तमिलनाडु-आंध्र के ईसाई वोटों पर इनकी “गिद्ध-दृष्टि” लगी हुई है, जो भाजपा को मिलेंगे ही ऐसा कहना मुश्किल है.

ऊपर जो दोनों मुद्दे (गोवा का भारतीय भाषा बचाओ और मदर टेरेसा के कथित चमत्कार का महिमामंडन), यह दोनों ही मुद्दे ऐसे थे जिन पर कोई “राष्ट्रवादी सरकार” चाहती तो आराम से अपनी मूल विचारधारा पर टिके रहकर निर्णय कर सकती थी. इसके लिए ना तो संसद के दोनों सदनों में पूर्ण बहुमत की आवश्यकता थी और ना ही कोई मजबूरी थी. परन्तु शायद हिम्मत नहीं जुट रही. ऐसा ही एक और मुद्दा है, जहाँ केन्द्र और राज्यों की भाजपा सरकारें बड़े आराम से अपने बहुमत के बल पर निर्णय कर सकती हैं… यह मुद्दा है “मंदिरों की संपत्ति” का मुद्दा. जैसा कि सभी जानते हैं, भारत में हिन्दू मंदिरों की संपत्ति पर शासकीय नियंत्रण होता है. मंदिरों का प्रबंधन, रखरखाव, इसके ट्रस्ट और धन-संपत्ति पर राज्य शासन का कब्ज़ा रहता है. मंदिरों को सरकारी अधिग्रहण से बाहर निकालने और मंदिरों की संपत्ति और जमीन के दुरुपयोग को रोकने के लिए पिछले कई वर्षों में तमाम धार्मिक संस्थाएँ कानूनी और जमीनी लड़ाई लड़ रही हैं. “कोढ़ में खाज” की स्थिति यह है कि सरकारी नियंत्रण केवल मंदिरों पर ही है, चर्च अथवा मस्जिदों पर नहीं है. जब आठ-नौ राज्यों और केन्द्र में भाजपा की बहुमत से सरकार बन गई, तो भगवान के भोलेभाले भक्तों तथा हिंदूवादी कार्यकर्ताओं को आशा बँधी थी कि शायद मोदी सरकार इस समस्या के हल की दिशा में तत्काल कुछ कदम उठाएगी, संसद में क़ानून पास करवाते हुए मंदिरों को सरकारी चंगुल से मुक्त करने की पहल करेगी. अभी तक तो ऐसा कुछ हुआ नहीं है.

इसके उलट महाराष्ट्र के चिकित्सा मंत्री गिरीश महाजन ने राज्य सरकार को एक प्रस्ताव बनाकर भेजा है, जिसमें उन्होंने माँग की है कि सिद्धिविनायक, तुलजापुर, महालक्ष्मी, साईबाबा इत्यादि सभी धनवान मंदिरों के ट्रस्ट राज्य शासन को प्रतिमाह एक निश्चित शुल्क दें ताकि इस धन को शासकीय अस्पतालों में खर्च किया जा सके. गिरीश महाजन ने “नैतिकता के उच्च प्रतिमान” स्थापित करते हुए यह भी कहा कि हम चाहते हैं कि मंदिरों में जो पैसा दानस्वरूप आता है व गरीबों की भलाई के लिए खर्च हो. हालाँकि विरोध शुरू होने पर उन्होंने “बैलेंस” बनाने की फूहड़ कोशिश करते हुए “चर्च और मस्जिदों” से भी अपील की, कि वे भी अपने धन का कुछ हिस्सा अस्पतालों में दें (यानी हिन्दू मंदिरों के लिए बाकायदा “लिखित प्रस्ताव”, जबकि चर्च-मस्जिदों से केवल मौखिक अपील…). सिद्धिविनायक ट्रस्ट के अधिकारी नरेंद्र राणे ने तत्काल इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए आँकड़े पेश करते हुए लिखित में बताया कि सिद्धिविनायक मंदिर प्रतिवर्ष चालीस करोड़ रूपए स्वास्थ्य, सेवा एवं अन्य सामाजिक कार्यों के लिए खर्च करता ही है. इसके अलावा सूखा प्रभावित क्षेत्रों के लिए इस वर्ष बारह करोड़ रूपए अलग से खर्च किए गए हैं. सरकार को इस मामले में दखल नहीं देना चाहिए.

उल्लेखनीय है कि 1980 के दशक में केरल के मुख्यमंत्री के करुणाकरण ने गुरुवायूर मंदिर ट्रस्ट पर दबाव बनाकर राज्य कोषालय में दस करोड़ रूपए जमा करवाए थे, ताकि सरकारी राजकोषीय घाटा पूरा किया जा सके. इसी के साथ उन्होंने “भूमि सुधार क़ानून” लागू करके गुरुवायूर मंदिर की 13,000 एकड़ भूमि को केवल 230 एकड़ तक सीमित कर दिया, लेकिन चर्च (जो कि रेलवे के बाद सबसे बड़ा रियल एस्टेट मालिक है) की जमीन को हाथ तक नहीं लगाया. इसी प्रकार पूर्ववर्ती महाराष्ट्र सरकार ने मुम्बई हाईकोर्ट में 2004 में लिखित में स्वीकार किया है कि समाज कल्याण एवं कपड़ा मंत्री विलासराव पाटिल उन्दालकर ने मुम्बई के सिद्धिविनायक मंदिर से एक लाख नब्बे हजार डॉलर निकालकर, किसी ऐसी चैरिटी ट्रस्ट में डाल दिया जो कि नेताओं के परिजनों द्वारा संचालित है. ये तो केवल दो ही उदाहरण हैं, मंदिरों के धन की ऐसी लूट के दर्जनों किस्से हैं. कहने का तात्पर्य यह है कि यदि भाजपा सरकार की नीयत वाकई में साफ़ है तो उसे गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की तर्ज पर अखिल भारतीय स्तर का “मंदिर प्रबंधन बोर्ड” अथवा “देवस्वम ट्रस्ट” बनाना चाहिए, उसे कानूनी रूप देना चाहिए एवं भारत के सभी मंदिरों की संपत्ति, जमीन, पशु, गहने, शेयर्स इत्यादि इस संस्था के हवाले करना चाहिए. देश के सभी मंदिरों का प्रबंधन, रखरखाव, मंदिर के स्टाफ की नियुक्तियाँ इत्यादि भी यही संस्था देखे, क्योंकि जब सरकार चर्च और मस्जिद के कामकाज में दखल नहीं देती तो फिर मंदिरों को भी उसे मुक्त्त करना ही चाहिए, ताकि मंदिरों के धन का सही सदुपयोग किया जा सके और यह पैसा भ्रष्ट नेताओं और ट्रस्टों में जमे बैठे उनके रिश्तेदारों की कमाई में न चला जाए. केन्द्र की भाजपा सरकार चाहे तो बड़े आराम से इसके लिए क़ानून बनवा सकती है, जिसे पास करवाना मुश्किल नहीं होगा… परन्तु इच्छाशक्ति की कमी साफ़ दिखाई दे रही है. भाजपा सरकार को केवल यह करना है कि संविधान की धारा 26 (जिसके अनुसार “सभी” धर्मों के लोग अपनी-अपनी धार्मिक संस्थाओं को चलाने व प्रबंधन के लिए स्वतन्त्र होंगे) को सही तरीके से लागू करवाना है. इसके अलावा विभिन्न राज्यों ने “हिन्दू धार्मिक एवं पारमार्थिक क़ानून” बना रखे हैं, उन्हें खारिज करते हुए, अखिल भारतीय स्तर का क़ानून बनाते हुए एक संस्था का गठन करना है. परन्तु वे इतना भी नहीं कर पा रहे हैं. इस बीच पिछले कई दशकों से मंदिरों के धन की अबाध लूट जारी है, और कोई सुध लेने वाला भी नहीं, क्योंकि इस खेल में काँग्रेस-भाजपा की मिलीभगत भी है. सवाल उठता है कि मंदिरों में दान करने वाले लोग कौन हैं? और इस पैसे पर किसका अधिकार होना चाहिए यह कैसे खर्च होगा? और “गिद्ध दृष्टि” केवल मंदिरों की आय पर ही क्यों? वह भी भाजपा सरकार के मंत्री द्वारा?? ये कैसी वैचारिक गिरावट है?

क्या पाठकों को “स्वदेशी जागरण मंच” की याद है? जरूर याद होगा… संघ पोषित यह संगठन लगातार कई वर्षों तक “स्वदेशी वस्तुओं” के समर्थन में आन्दोलन चलाए हुए था. आज यह संगठन कहाँ है, किसी को नहीं पता. यदि बाबा रामदेव ने अपने पुरुषार्थ और ब्राण्ड मार्केटिंग से “पतंजलि” को नई ऊंचाईयों तक नहीं पहुंचाया होता, तो भारत में “स्वदेशी” का कोई नामलेवा तक नहीं बचता. बाबा रामदेव ने जो किया वह उनकी निजी हैसियत और रूचि के अनुसार किया, लेकिन संघ की राजनैतिक बाँह अर्थात भाजपा की राज्य सरकारों और केंद्र सरकार ने स्वदेशी बचाने के लिए अभी तक क्या और कितना किया, जनता को इसकी जानकारी केवल “मेक इन इण्डिया”” और “स्किल इण्डिया”” के नारों से ही पता चल रही है. वास्तविकता यह है की भाजपा के प्रत्येक राज्य का मुख्यमंत्री कम से कम दो बार अमेरिका अथवा चीन का दौरा करके उन देशों से आग्रह कर चूका है कि “हमारे यहाँ आईये, निवेश कीजिए, मुनाफ़ा कमाईये (और स्वदेशी उद्योगों को बर्बाद कर दीजिए…)”. कहाँ है विचारधारा?? या सत्ता मिलते ही गायब हो गई? या फिर विपक्ष में रहकर बतोले देने तथा सत्ता में रहकर शासन चलाने का फर्क समझ में आ गया? आज बाबा रामदेव ने जिस तरह से विदेशी कंपनियों की ईंट से ईंट बजा रखी है, वैसे आठ-दस प्रयास भाजपा की राज्य सरकारों ने अपने-अपने राज्यों में क्यों नहीं आरम्भ किए? “स्मार्ट सिटी” बनाना क्या इतना जरूरी है की हम पश्चिम की नक़ल करते हुए कांक्रीट के जंगल खड़े करते चले जाएँ? गाँवों में जो “असली स्किल” पड़ा हुआ है, उसे बढ़ावा देने की बजाय उन्हें शहरों में लाकर “स्मार्ट मजदूर” बना दें? जब तक ग्रामीण अर्थव्यवस्था और परम्परागत कारीगरी को बढ़ावा नहीं दिया जाएगा, तब तक वास्तविक “स्वदेशी” कहीं दिखाई नहीं देगा, परन्तु क्या ऐसा हो रहा है? नहीं..

मूल विचारधारा से भटकाव का ऐसा ही और उदाहरण है, “इस्लामिक बैंकिंग”. जैसा कि पाठक जानते ही हैं, पिछले काफी समय से इस्लामिक बैंकिंग भारत में अपने पैर पसारने के लिए प्रयासरत है. केरल और पश्चिम बंगाल जैसे मुस्लिम बहुलता वाले राज्यों में “बिना ब्याज” वाली गैर-बैंकिंग आर्थिक संस्थाएँ काम कर ही रही हैं, परन्तु एक आधिकारिक बैंक के रूप में इस्लामिक बैंक की अवधारणा भारतीय संविधान के तहत संभव ही नहीं है. इस योजना के बारे में डॉक्टर सुब्रमण्यम स्वामी पहले ही हाईकोर्ट में मुकदमा जीत चुके हैं कि भारत में इस्लामिक बैंकिंग नहीं की जा सकती. परन्तु सूत्रों के अनुसार प्रधानमंत्री मोदी के विश्वस्त सलाहकार ज़फर सरेशवाला (जो कि उर्दू विश्वविद्यालय के चांसलर भी हैं) ने पिछले ढाई वर्ष में अपने प्रयासों से सऊदी अरब के “इस्लामिक डेवेलपमेंट बैंक” की शाखाएँ भारत में खोलने के लिए पूरा जोर लगाए हुए हैं. हाल ही में मोदी जी की सऊदी अरब यात्रा के दौरान भारत के EXIM बैंक और IDM के बीच 100 मिलियन डॉलर के ऋण लेनदेन संबंधी समझौता किया गया है. साथ ही इस्लामिक डेवेलपमेंट बैंक द्वारा भारत की राष्ट्रीय स्किल एंड एजुकेशन इंस्टीट्यूट (RISE) के साथ भी समझौता किया है, जिसके तहत बैंक गरीबों की मदद के लिए 350 एम्बुलेंस चलाएगी. इस सारी कवायद में पेंच यह है कि इस्लामिक बैंकिंग भारत में शुरू करने के लिए संसद में बिल लाना होगा, क़ानून पास करवाना होगा, संविधान संशोधन की भी जरूरत पड़ेगी. समाचार पत्रों में प्रकाशित ख़बरों के अनुसार यदि काँग्रेस इस पर राजी हो गई, तो निकट भविष्य में भारत में इस्लामिक बैंकिंग के कदम पड़ सकते हैं. कहा जाता है कि यदि ऐसा करना संभव नहीं हुआ, तो सऊदी अरब के इस बैंक को “पिछले दरवाजे” (NBFC, सहकारी समिति, इत्यादि) से प्रवेश करवाया जाएगा. अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि केन्द्र सरकार की “जन-धन योजना” वैसे तो काफी सफल मानी जा रही है, परन्तु सरकार इस बात से चिंतित है कि इसमें मुस्लिमों के खाते नहीं के बराबर खुले हैं. अतः मुस्लिमों के बैंक खाते अधिकाधिक खुलवाने के लिए, उन्हें बैंकिंग की तरफ रिझाने के लिए सरकार ने “इस्लामिक बैंकिंग” का चारा डालने की योजना बनाई है. परन्तु यहाँ मूल सवाल तो वही है कि यदि यह सब करना ही है, तो फिर संघ-भाजपा की उस “मूल विचारधारा” का क्या हुआ, जो इसी प्रस्ताव को लेकर मनमोहन-सोनिया की कड़ी आलोचना के समय दिखाई देती थी. क्या इस कदम से यह सन्देश नहीं जाता कि मोदी सरकार मुस्लिमों के सामने झुक गई है, उन्हें बैंकिंग की छतरी तले लाने की खातिर विचारधारा से “यू-टर्न” लेने लगी है. मदर टेरेसा वाले उदाहरण में भी ठीक यही हुआ है कि जब विपक्ष में थे, तब टेरेसा को कोसते थे, धर्मांतरण के खिलाफ आग उगलते थे, लेकिन सत्ता मिलने के बाद उन्हें “संत” मिलने की आधिकारिक खुशियाँ मनाई जा रही हैं. यह विचारधारा का भटकाव है, या “सत्ता का नशा”? क्या सत्ता से बाहर होने के बाद भाजपा अपने “मूल मतदाताओं” से आँखें मिलकर बात कर पाएगी?

अभी तक आपने “भारतीय भाषा बचाओ”, “मदर टेरेसा के संतत्व”, “मंदिरों की संपत्ति”, “स्वदेशी जागरण” तथा “इस्लामिक बैंकिंग” जैसे कई विषयों पर भाजपा के “वैचारिक यू-टर्न” के बारे में पढ़ लिया… अब अंत में आप खुद से एक सवाल कीजिए, कि पिछले ढाई साल में लगभग पूरी दुनिया घूम चुके, हमारे प्रिय प्रधानमंत्री, वाराणसी से कुछ ही दूरी पर स्थित अयोध्या में फटे हुए तम्बू में बैठे रामलला के “अस्थायी” मंदिर में दर्शन करने क्यों नहीं गए? यह कदम उठाने से हिंदुओं में कम से कम एक “ठोस सन्देश” तो जाता. भाजपा के “स्थायी मतदाता” इतने समझदार तो हैं, कि वे भी जानते हैं राम मंदिर का मुद्दा केवल अदालत में अथवा संसद में ही सुलझ सकता है, परन्तु एक आम आदमी की हैसियत से उस अस्थायी “राम मंदिर” में दर्शन करने जाने से प्रधानमंत्री को कौन रोक रहा है? मुस्लिमों को खुश करने वाली काँग्रेसी स्टाईल वाली चुनावी राजनीति या “विचारधारा से भटकाव”?? उपरोक्त सभी मुद्दों सहित यह सवाल आज भाजपा के “कोर वोटर” तथा संघ के सभी स्वयंसेवकों के मन को मथ रहा है… अंदरखाने सवाल उठने लगे हैं, कि जब पूर्ण बहुमत की सत्ता है तब विचारधारा से समझौता क्यों किया जा रहा है?