क्या विवादित बयान देना भी ‘सुर्ख़ियां बटोरने’ का माध्यम बन गया है ?

      हमारे देश में धर्म-कर्म,नैतिकता-मर्यादा,मान-सम्मान,आदर-सत्कार,परोपकार-शिष्टाचार,सरलता व मृदुभाषी होने आदि की जितनी ज़्यादा बातें की जाती हैं इन बातों का उतना ढिंढोरा दुनिया के और किसी देश में नहीं पीटा जाता। जगह जगह होने वाले प्रवचन के आयोजनों में लाखों लोग शिरकत करते हैं। इसी तरह तमाम बड़े नेता अपने पद व प्रसिद्धि व नाम के अनुसार अच्छी ख़ासी भीड़ जानसभाओं में इकट्ठी करते हैं। उधर देश की भोली भाली जनता कुछ अच्छी,ज्ञानवर्धक,संस्कारपूर्ण व सकारात्मक बातें सुनने के लिये वहां पहुंचकर उनके आयोजनों व सभाओं को सफल बना देती है। इसी भीड़ पर उन प्रवचन कर्ताओं व नेताओं को 'गर्व ' भी होता है। वे बड़े फ़ख़्र से बयान भी करते हैं कि मेरे अमुक आयोजन में इतने लोग मुझे देखने सुनने आये। वे इसी भीड़ को अपने अनुयाइयों व समर्थकों की भीड़ भी बता डालते हैं। तो क्या जनता को उसकी उपस्थिति के बदले में कुछ सकारात्मक सुनने को भी मिलता है? क्या वे इन्हें कुछ ज्ञान अथवा मार्गदर्शन भी देकर जाते हैं ? जो बच्चे अपने अभिभावकों के साथ उनकी बातें सुनने आते हैं क्या उन्हें कुछ ऐसा ज्ञान प्राप्त होता है जो उनके भविष्य निर्माण में सहायक साबित हो ? क्या युवाओं को इनके भाषणों व प्रवचनों से मर्यादा व नैतिकता का कुछ सबक़ सीखने को मिलता है ?

     वास्तविकता तो यही है कि जैसे जैसे हमारे देश के 'विश्व गुरु' होने के दावों को ज़ोर शोर से प्रचारित किया जा रहा है और इसे हवा दी जा रही है उसी तेज़ी से शीर्ष स्तर के तथाकथित 'विशिष्ट ' लोगों द्वारा अपने बेतुके,अनैतिक,निरर्थक,ग़ैर ज़िम्मेदाराना यहाँ तक कि 'विष वमन ' करने वाले बयानों की गोया बौछार सी की जाने लगी है। अनेक तथाकथित 'विशिष्ट' लोग अपने अनुयाइयों व समर्थकों के बीच ऐसी बेहूदी बातें बोलने लगे हैं जो उनके पद व उसकी गरिमा के क़तई अनुरूप नहीं होतीं। ऐसे में यह सोचना स्वभाविक हो जाता है कि क्या अमुक व्यक्ति क्या इस योग्य था कि उसी अमुक उच्च पद अथवा रुतबे तक जनता द्वारा पहुँचाया जाता ? कहीं उसके समर्थकों व अनुयायियों को धोखा तो नहीं हो गया? क्या उन्होंने किसी बदज़ुबान,अमर्यादित व भड़काऊ व्यक्ति के साथ खड़े होकर व उसे अपना समर्थन देकर या उसपर विश्वास कर ग़लती की ?          

      महाराष्ट्र के ठाणे में गत दिनों एक योग प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित हुआ था।  इसमें बाबा रामदेव ने औरतों के कपड़ों को लेकर निहायत बेहूदी व अमर्यादित टिप्पणी कर डाली।  उन्होंने कहा कि “औरतें साड़ी में अच्छी लगती हैं… वे सूट-सलवार में अच्छी लगती हैं, और मेरा विचार है कि अगर वह कुछ न पहने तो… बिना कपड़ों के भी अच्छी लगती हैं।” उनकी  इस टिप्पणी के समय मंच पर उनके साथ सत्ता के कई प्रमुख नेताओं के पुरुष-महिला परिजन भी मौजूद थे। रामदेव की इस आपत्तिजनक टिप्पणी का भारी विरोध हो रहा है। कुछ लोगों ने बाबा रामदेव से अपने बयान के लिए देश से माफ़ी मांगने को कहा है। कुछ ने उनके सामाजिक बहिष्कार की अपील की जबकि कई लोगों ने रामदेव के इस बयान को उनकी कामुकता व पितृसत्ता का प्रतीक बताया और उनके विरुद्ध क़ानूनी कार्रवाई की मांग की । जबकि सोशल मीडिया पर अनेक लोग बाबा रामदेव को जून 2011 की वह घड़ी याद दिला रहे हैं जब रामदेव प्रातः काल राम लीला ग्राउंड से महिला के ही लिबास,शलवार सूट में भागते हुये पकड़े गए थे। उस समय उन्होंने महिला के दुपट्टे से अपनी दाढ़ी छिपा रखी थी। तब महिलाओं के लिबास ने ही इनको 'रण छोड़' भागने में मदद की थी। हालांकि महिलाओं पर अपनी अभद्र टिप्पणी के मात्र 72 घंटे के भीतर ही चतुर रामदेव ने खेद व्यक्त किया है और अपनी टिप्पणी के लिए माफ़ी भी मांगी।

     इसी तरह कुछ समय पूर्व हरियाणा के करनाल में एक पत्रकार ने रामदेव से पेट्रोल-डीज़ल के बढ़ रहे दामों पर इन्हीं का पूर्व में दिया गया बयान याद दिलाते हुये सवाल पूछा तो उन्होंने ग़ुस्से मैं पत्रकार से कहा कि -'तेरे सवाल का जवाब नहीं देता, पूंछ पाड़ेगा मेरी'? और आगे कहा, “तेरे प्रश्न बहुत हो गए तू अब चुप हो जा और हां मैंने ऐसा कहा था अब क्या पूंछ पाड़ेगा मेरी ? यह और इस तरह के न जाने कितने घटिया क़िस्म के बोल कभी महिलाओं व उनके पहनावे को लेकर  कभी एलोपैथिक व वैक्सीन आदि की विश्वसनीयता को लेकर यह देते रहे हैं। आश्चर्य है कि स्वयं को योगाचार्य व संयासी बताने वाले रामदेव अपनी भाषा की मर्यादा की व गरिमा बनाये नहीं रख पाते ? इसी तरह असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा जिन्होंने कांग्रेस से राजनीति का क ख ग तो ज़रूर सीखा। परन्तु भाजपा में जाने के बाद अपनी वफ़ादारी साबित कर मुख्यमंत्री पद पर क़ायम रहने की जद्दोजेहद में उसी नेहरू-गाँधी परिवार के विरुद्ध अनाप शनाप बोलकर सुर्ख़ियां बटोरते रहते हैं। भाजपा में गए ऐसे कई नए नवेले भाजपाई हैं जिनके लिये अपनी वफ़ादारी सिद्ध करने का यही एकमात्र माध्यम रह गया है। गत दिनों गुजरात में चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने राहुल गाँधी के चेहरे की तुलना सद्दाम हुसैन से कर साम्प्रदायिक कार्ड खेलने का घिनौना प्रयास किया। मुख्य मंत्री पद पर बैठा व्यक्ति इतनी हल्की व तुच्छ टिपण्णी करेगा इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। परन्तु यह देश का दुर्भाग्य व राजनीति के गिरते स्तर की इंतेहा है कि ऐसा व्यक्ति देश के प्रमुख राज्य का मुख्य मंत्री होते हुये अपने ही पूर्व 'आक़ा ' के लिये ऐसा छिछोरा बयान दे रहा है ?

      दुर्भाग्यवश अमर्यादित व ग़ैर ज़िम्मेदाराना भाषाओँ का खेल देश के सर्वोच्च स्तर पर खेला जा रहा है। धर्म जाति लिंग विशेष के लोगों को निशाना बनाना उन्हें अपमानित करना गोया एक चलन सा बन चुका है। और चूँकि सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग या तो स्वयं इस नकारात्मक प्रवृति में भागीदार हैं अथवा उनका संरक्षण प्राप्त है। हद तो यह है कि अपने विरोधियों को बदनाम करने के लिये तैयार किये गये नक़ली व झूठे आडिओ व वीडिओ तक का सहारा लिया जाता है। इस अफ़सोसनाक वातावरण में मर्यादा और नैतिकता की बातें करना ही कभी कभी तो 'अनैतिक ' सा प्रतीत होने लगता है।  भले ही अमर्यादित व  विवादित बयान देना ऐसे लोगों के लिये 'सुर्ख़ियां बटोरने ' का माध्यम क्यों न बन चुका हो परन्तु इसे सच्चे योगियों,संयासियों या सौम्य नेताओं की भाषा क़तई नहीं कही जा सकती।