सौदागर

भारत में दीपावली एवं होली को बड़े ही हर्षोउल्लास के साथ मनाया जाता है दोनों के ही मूल में अंधकार से उजाला और बुराई पर अच्छाई की जीत है दीपावली में कचरे को हटाते हैं और धर आंगन को चमकाते हैं, वहीं होली में मदमस्त हो एक दूसरे को न केवल पहचानना मुश्किल होता है बल्कि यूं कहें सभी एक रंग में सराबोर हो सभी एक जैसे नज़र आते हैं, न कोई ऊंचा न कोई नीचा इसे हम समता भी कह सकते हैं।

कहने को तो भारत गांवों में बसता है और अधिकांश लोग गरीब भी है, लेकिन भारत म,ें लोकतंत्र में हमारे जनप्रतिनिधियों की बात करंे तो 543 में से 300 सांसद करोड़पति है, या यूं कहे संसद अब केवल अमीरों की ही जागीर हो गई है। यहां तक तो ठीक लेकिन जब संसद में 150-175 माननीय जो अपराध के मामलों से सने हुए हैं, तो ये कहीं न कहीं संसद की गरिमा को भी प्रभावित कर रहे हैं, बात-बात पर मान अभिमान के चलते संसद को न चलने देना एवं अप्रिय स्थिति के साथ साथ माननीयों बसपा, सांसद अवतार सिंह, सपा सांसद नरेश अग्रवाल की संसद में हुई हाथा-पाई की जितनी, भी जिंदा की जाए कम ही होगी। इस घटना में संसदों ने अपने मूल चरित्र को ही उजागर किया है, इस तरह की हरकत कोई संसदीय इतिहास में पहली बार घटित नहीं हुई है, इसके पूर्व भी लोकपाल बिल की प्रतियां फाड़ी गई थी, इस तरह की हरकतों से क्या लोकसभा, क्या विधान सभा क्या विधान परिषद कोई भी अछूती नहीं है, हकीकत में देखा जाए तो कुछ लोग चारित्रिक तौर पर इतने गिर गए हैं, कि उसकी जांच अब संविधान के मंदिर पर भी पड़ने लगी है यह न तो देश के लिये अच्छा है और न ही माननीय जनप्रतिनिधियों के लिये?

पूरे विश्व के मीडिया की आंखे हमारे सबसे बड़े लोकतंत्र पर गहराई से गढ़ी हुई है, तभी तो पश्चिमी मीडिया उभरती शक्ति के रूप में भारत के प्रधानमंत्री को ‘‘अंडर अचीवर’’ सोनिया गांधी की कठपुतली, दया का पात्र आदि जैसे शब्दों से संबोधित करता है। इससे मनोविज्ञान की दृष्टि से कहीं न कहीं देश के नागरिकों का मनोबल गिरता है।

देश की स्वतंत्रता के 65 वर्षों में जनप्रतिनिधियों के चरित्र में जो गिरावट आई है उससे निःसंदेह हमारा लोकतंत्र शर्मसार है, इस गरीब देश में जहां जनहित के मुद्दों को ले कई विधेयक वर्षों से लंबित है, लेकिन हमारी क्या मजा़ल उन्हें छुए भी चर्चा तो दूर की कोड़ी है। इस सत्र में कोयले के कालिख की कलंक से सनी यू.पी.ए. सरकार की विपक्षी दलों ने इसे महाघोटाला मान 20 दिन के सत्र में 13 दिन चली संसद में केवल एक दिन काम हुआ, 399 प्रश्नों में से केवल  11 ही प्रश्न पूछे जा सके  संसद न चलने से देश की सरकारी खजाने और करदाताओं का 330 करोड़ रूपये का नुकसान हुआ, महंगाई एवं घाटे का रोना-रोने वाली सरकार जनता के पैसे की भरपाई क्या सभी सांसदों के वेतन से वसूल कर सरकारी खजाने में जमा करायेगी? विपक्ष की भाजपा नेता सुषमा स्वराज संसद के न चलने को उचित मानते हुए कहती हैं, ‘‘ कभी-कभी संसद का न चलना भी फायदेमंद हो सकता है,’’ वहीं कोयल मंत्री श्री प्रकाश जयसवाल कहते हैं, कि उन पर मिथ्या आरोप लगाने वालों को 48 घंटे के भीतर मानहानि का नोटिस भेजेंगे? पर अभी तक वो ऐसा कर न सके।

हकीकत में देखा जाए तो कांग्रेस कोयले की कालिख से बचने के लिये बसपा सुप्रीमों मायावती की मांग पर पदोन्नति में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों को आरक्षण देने की मांग को उठा कहीं न कहीं इस वर्ग के लोगों को अपने साथ जोड़ने की शातिर पहल के चलते लोक सभा के स्थान पर पहले राज्य सभा में पेश किया लेकिन जब ये बिल लटका तो मायावती का गुस्सा सांतवे आसमां पर पहुंच गया और अन्ततः कह डाला कांग्रेस और भाजपा सांपनाथ- नागनाथ हैं।

आज आरक्षण पर केाई स्वास्थ्य बहस करना ही नहीं चाहता, सभी राजनीतिक पार्टियां अछूत सा व्यवहार कर बचना चाहती हैं, नेताओं ने इसे महज एक वोट बैंक से ज्यादा कुछ नहीं समझा, आरक्षण से वंचित सभी को क्या अब तक नई राजनीतिक पार्टी बना लेना चाहिए?

देश का सुप्रीम कोर्ट इस तरह के पदोन्नति में आरक्षण को नकार चुका है अटर्नी जनरल भी इस प्रस्ताव को ठुकरा चुके हैं, लेकिन कुछ जनप्रतिनिधियों की हिटलर प्रवृत्ति के चलते सुप्रीम कोर्ट एवं देश के संविधान के विरूद्ध जा संसद में ही इसे संविधान में संशोधन कर बदलने की ठान ली है।

यहां यक्ष प्रश्न उठता है कि पहले से ही आरक्षण प्राप्त जनों को पदोन्नति में आरक्षण कहां तक जायज है? क्या ऐसा कर हम संविधान की मूल भावना पर प्रहार नहीं कर रहे है? इस 65 वर्षों में सुविधा प्राप्त एवं वंचितों के बीच विस्तृत सर्वे अभी तक क्यो ंनहीं किया गया?

इन 65 वर्षों में आरक्षण को चरणबद्ध खत्म करने की जगह सालों-साल चला क्या उन वर्गों के बीच जहर नहीं घोल रहे? नित नई जातियां सभी अपने लिये आरक्षण की मांग कर रही है, उनकी बात न मानने पर तोड़-फोड़ जैसे हथकण्डे अपनाने से भी नहीं चूकती? यदि इसे वोट की राजनीति मान ले तो क्या सामन्य वर्ग के लोग इस देश के वोटर नहीं है? क्या सामन्य वर्ग के लोगों को भी इसी तरह का आन्दोलन चलाना चाहिये? क्या वोट के नाम पर आज नेता जनता को आपस में लड़ाने का कार्य नहीं कर रहे हैं? क्या आरक्षण का आधार मात्र जाति विशेष में जन्म लेने से ही हो जाता है फिर चाहे वह कलेक्टर, डाॅक्टर, इन्जीनियर,प्रोफेसर या अन्य प्रशासनिक सेवा में हो? अनारक्षित वर्ग के लोग भले ही गरीब या अति गरीब हो तो क्या इन्हें मुख्य धारा में लाने का दायित्व सरकार का नहीं? क्या इन्हें विशेष सुविधा की आवश्यकता नहीं है।

आरक्षण के हिमायती समय-सीमा, मूल्यांकन क्यों नहीं करना चाहते? यदि एक पीढ़ी ने लाभ ले मुख्य धारा में आ गई तो अब इन्हें आरक्षण से बाहर रखने की मांग क्यों नहीं करती? क्यों नहीं दबे कुचले को आगे नहीं आने देना चाहते? जनप्रतिनिधि आरक्षण के नाम पर राजनीति करना छोड़े दोहरे चरित्र की जगह एक ही चरित्र जिए।

आधुनिक भारत प्रतिस्पर्धा का है हमें प्रतिभा का सम्मान करना सीखना चाहिये फिर वह किसी भी जाति या धर्म का हो? जाति धर्म की राजनीति करने वालों को चुनाव आयोग को भी पहल कर अयोग्य घोषित कर संवैधानिक प्रक्रिया से दूर ही रखना चाहिये।

‘‘महात्मा गांधी कहते थे कि पिछड़े और गरीब तबके को आरक्षण देने के बजाय उनके लिये आवास, शिक्षा, व्यवसाय और रोजगार जैसी सुविधायें प्रदान की जाये। स्व. राजीव गांधी भी कुछ ऐसी ही भावना रखते थे’’ आरक्षण देने के पीछे अहम सवाल यह है कि क्या सरकार महज राजनीतिक स्वार्थों की वजह से ही इसे लागू करना चाहती है? दलित जनप्रतिनिधियों को भी आपस में लड़वाने का कार्य छोड़ दलित- पिछड़ों को महात्मा गांधी एवं बाबा भीमराव अम्बेडकर की भावनाओं के अनुरूप इन्हें अपाहिज बनाने की जगह स्वावलंबन, शिक्षा, व्यवसाय के लिये प्रयास करना चाहिये।

सभी नेता यदि ऐेसे ही आरक्षण की मांग करते रहे तो न केवल वर्ग संघर्ष तीव्र होगा बल्कि भारत में अगले-पिछड़े दलित, अल्पसंख्यकों में बंट जायेगा जो किसी भी सूरत में भारत के लिये अच्छा नहीं होगा। नेता जब-जब संसद को एक दुकान की तरह चलाने एवं मालिकाना हक की बात करेंगे तब-तब संसद बाधित होगा, इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता कि बाधा डालने वाला व्यक्ति आम नागरिक है या जनप्रतिनिधि दोनों के ही साथ कानून को एक समान व्यवहार करना चाहिये।

जब-जब इतिहास लिखा जायेगा तब-तब 15वीं लोक सभा का मानसून सत्र को 13 दिन को एक कलंक के रूप में ही याद किया जायेगा। केग की रिपोर्ट को जन प्रतिनिधियों द्वारा गलत बताना, केग के ऊपर प्रश्न चिन्ह लगाना किसी भी सूरत में न तो लोकतंत्र के लिये और न ही विधायी तंत्र के लिये शुभ संकेत है। सब चोर सब मक्कार ऐसी भावना किसी को भी नहीं रखना चाहिए, यहां जन प्रतिनिधियों की जवाबदेही और भी बढ़ जाती है, कि वह संविधान की रक्षा के साथ-साथ आमजनों की नजरों में भी नैतिकता चरित्र के मामले में रोल माॅडल बने न कि लोड माॅडल।