राजनीतिक कीचड़ में कमल थे दीनदयाल जी

पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने साम्यवाद, समाजवाद और पूंजीवाद के बीच बढ़ते संघर्ष के दौरान दुनिया के सामने शांति, बराबरी और आर्थिक विकास के लिए नया सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक दर्शन प्रस्तुत किया था। बेशक 50 साल पहले तक दुनिया ने उनके दर्शन एकात्म मानववाद की तरफ ध्यान नहीं दिया और जिन्होंने उनके विचारों को अपनाकर राजनीतिक आन्दोलन आगे बढ़ाया, वे आज दुनिया में भारत का डंका बजा रहे हैं। उनके विचारों को आत्मसात करते हुए भारतीय जनता पार्टी और अन्य संगठन भारत के तमाम हिस्सों में अपनी एक विशेष पहचान बनाने में सफल हुए हैं। कोझीकोड में 25 सितंबर को भाजपा के राष्ट्रीय परिषद अधिवेशन में भारत को चाणक्य के बाद मौलिक रूप से भारतीय संस्कृति के अनुसार राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक,वैज्ञानिक, सामाजिक मुद्दों सहित तमाम समस्याओं को सुलझाने के विचार देने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्यायजी को कृतज्ञ राष्ट्र की तरफ श्रदधाजंलि दी जाएगी। यह संकल्प भी हम दोहराएंगे कि राजनीति के रास्ते कितने भी कठिन हों पर दीनदयाल जी के बताए रास्ते पर चलते रहेंगे। 29,30, 31 दिसम्बर, 1967 के ऐतिहासिक कालीकट अधिवेशन में पं. दीनदयाल उपाध्याय को जनसंघ का राष्ट्रीय अध्यक्ष नियुक्त किया गया। उनके बताए रास्ते पर चलने के लिए भाजपा ने कोझीकोड़ में राष्ट्रीय परिषद अधिवेशन करने का फैसला किया था। 1967 में केरल में आयोजित जनसंघ के चौदहवें अधिवेशन में जमा हुए 12 हजार समर्पित कार्यकर्ताओं को लेकर तत्कालीन कम्युनिस्ट पार्टी सरकार के होश उड़ गए। अन्य राजनीतिक दलों में भी दीनदयाल की राजनीतिक प्रतिभा को देखकर चिंता हो गई थी। उनकी हत्या नहीं हुई तो भारतीय जनसंघ का विस्तार और तेजी से होता।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय ब्राह्मण परिवार में जरूर जन्में पर उन्होंने कभी जातिवादी राजनीति का जवाब देने के लिए खुद को ब्राह्मण नेता के तौर पर उभारने की कोशिश नहीं की। इसी विचारधारा पर चलते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने भी बदले राजनीतिक हालातों में भी जातिवादी राजनीति नहीं की। उत्तर प्रदेश में दलितों, मुसलिमों, अगड़े-पिछड़े की राजनीति का जोर बढ़ने के बावजूद वाजपेयी ने अपने ब्राह्मण नेता की छवि नहीं बनने दी। हम सब के प्रेरणा स्त्रोत दीनदयाल जी राजनीति में जाने के इच्छुक नहीं थे। जनसंघ में भेजने के समय से ही उन्होंने संघर्ष का सामना करना पड़ा। जनसंघ में मंत्री बने दीनदयाल जो जल्दी ही महामंत्री का दायित्व संभालना पड़ा। वह भी ऐसे समय जब जनसंघ के महामंत्री से कार्यकारी अध्यक्ष बने मौलिचन्द्र शर्मा कांग्रेस में चले गए। जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जून 1953 में कश्मीर में बलिदान के बाद ऐसे राजनीतिक संकट में संगठन के महामंत्री का दायित्व संभाला। दायित्व संभाला तो लगातार जनसंघ का आधार बढ़ता चला गया। जनसंघ ने 1952 में लोकसभा की तीन सीटों पर कामयाबी पाई थी।  57 के आमचुनाव चार  में चार, 62 में 15 और 1967 में 35सीटों पर जीत का झंडा फहराया। 1952 में जनसंघ को 3.1फीसदी मत मिले थे और 1967 में 8.94 फीसदी मत मिले। 1967 में पहली बार भारत की सत्ता पर काबिज कांग्रेस को बड़ा झटका लगा था। उत्तर प्रदेश में भारतीय जनसंघ के सहयोग पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी। चौधरी चरण सिंह जनसंघ के सहयोग से ही पहली बार उत्तर प्रदेश के गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने थे। हरियाणा में विशाल हरियाणा पार्टी, पंजाब में अकाली दल, मध्य प्रदेश में गोविन्द नारायण सिंह की पार्टी के साथ जनसंघ ने सरकार बनाई। उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा और मध्य प्रदेश में जनसंघ के नेता उप मुख्यमंत्री बने थे। 1967 में उ.प्र. विधानसभा में जनसंघ के 99 विधायक जीत कर पहुंचे थे। स्थानी निकायों में चुनावों में भी जनसंघ को बड़ी कामयाबी मिली थी। 1967 में दीनदयाल जी जनसंघ के अध्यक्ष बने। राजनीति में तप, त्याग,ईमानदारी, सादगी की मिसाल बने दीनदयाल जी अध्यक्ष नहीं बनना चाहते थे। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सर संघचालक पूज्यनीय गुरु गोलवलकर जी से कहा था भी कि आपने किस झमेले में डाल दिया। गोलवलकर जी का दीनदयाल जी का दिया गया उत्तर ईमानदारी से राजनीति करने वालों को प्रेरणा देता है। उन्होंने कहा था कि जो संगठन के काम में अविचल निष्ठा और श्रद्धा रखे वहीं कीचड़ में रहकर कीचड़  से अछूता रहते भी पूरी तरह से वहां सफाई कर सकेगा। इसी तरह एक बार गुरुजी के बाद सर संघचालक बने माननीय बालासाहेब देवरस जी ने एक बार किसी के पूछने पर कहा था कि गुरुजी को राजनीतिक क्षेत्र के लिए ऐसे व्यक्ति की जरूरत जरूरत थी जो संघ को मूल भारतीय कल्पना के अनुसार, राजनीतिक सिद्धांतों का विचार कर सके। राजनीतिक क्षेत्र में जाने के बावजूद वैयक्तिक महत्वाकांक्षाओं से वह मुक्त रह सके तथा कार्यकर्ताओं की अच्छी टीम खड़ी कर सके। दीनदयाल जी में यह तीनों ही गुण थे। इसीलिए गुरुजी ने उनको राजनीतिक क्षेत्र के लिए चुना होगा। दीनदयाल 15 साल जनसंघ के महामंत्री रहे। इस दौरान पूरी तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समर्पित प्रचारक रहे। संघ और जनसंघ के अलावा उनका कोई व्यक्तिगत जीवन भी नहीं था। पूरे समर्पण के साथ उन्होंने देश और संगठन के लिए काम किया। दीनदयाल जी कहते थे कि भारतीय जनसंघ एक अलग प्रकार का दल है,किसी भी प्रकार से सत्ता में आने की लालसावाले लोगों का झुंड नहीं है। जनसंघ एक दल नहीं वरन आन्दोलन है। यह राष्ट्रीय अभिलाषा का स्वयंस्फूर्त निर्झर है। यह राष्ट्र के लिए नियत लक्ष्य को आग्रहपूर्वक प्राप्त करने का आकांक्षा है। इसी आन्दोलन की भावना को लेकर ही जनसंघ ने देश में तानाशाह सरकार को हटाने और लोकतंत्र की बहाली के लिए जनसंघ का जनता पार्टी में विलय किया था। नेताओं की राजनीतिक लोलुपता सामने आने पर फिर एक बार आन्दोलन को भारतीय जनता पार्टी के तौर उभारा गया। आज विश्व की सबसे बड़ा राजनीतिक दल के तौर उभरे भाजपा ने देश-दुनिया के सामने ईमानदार और स्वच्छ राजनीति करने का उदाहरण दिया है। सवा दो साल से केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार पर कोई भ्रष्टाचार का दाग तक नहीं लगा पाया।

दीनदयाल के जन्म शताब्दी वर्ष पर 25 सितंबर को हम कोझीकोड में उनके दर्शन का पुण्य स्मरण पर हमें उनके उस समय के यह विचार कि अवसरवादिता ने राजनीति में लोगों के विश्वास को हिला दिया है। सिद्धांतहीन अवसरवादी लोगों ने हमारे देश की राजनीति का बागडोर संभाल रखा  है। आन्दोलन को स्वरूप लेने में समय लगता है और आज भारत की जनता ने सिद्धांतहीन अवसरवादी लोगों को केंद्र की सत्ता से बाहर कर दिया है। उऩके दर्शन एकात्म मावनवाद में समाज के उत्थान और मानव के कल्याण के रास्ते पर चलते हुए भाजपा राष्ट्र निर्माण के कार्य में लगी है।

लेखक भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री है और राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक विषयों पर बेबाक राय के लिए जाने जाते हैं।