नेता मस्त, जनता त्रस्त

 

गॉंधी कहा करते थे मैं अंग्रेजों के विरूद्ध नहीं  हूं लेकिन गुलामी, अत्याचार, शोषण, असमानता, लूट-खसोट के विरूद्ध हूं। इन 65 वर्षो में देखा जाए यदि गॉंधी जिंदा होते तो शायद काले शासकों के खिलाफ भी वैसा ही अनशन, मोर्चा, प्रदर्शन करते जैसा गोरों के खिलाफ खोेला था।

हकीकत में देखा जाए तो स्वतंत्रता के पहलेे और बाद में कोई खास अंतर नही आया है सिवाय इसके कि सिर्फ चेहरे बदल गये है नियम, कायदे- कानून आज भी अंग्रेजो के जमाने के ही चल रहे है। अंग्रेजो की जगह अब अपने काले ही जनता पर गोरों से ज्यादा जुल्म ढाह रहे है। कहने को तो संसद, राज्य सभा, विधान सभाए,  विधान परिषदें है  लेकिन स्वार्थ और कानून में कमी के चलते, इसका फायदा ले न केवल आपराधिक पृष्ठ भूमि के लोगों की संख्या जनप्रतिनिधियों के रूप में बढ़ी है बल्कि पूंजीपतियों की तरफदारी करने वाले गुलामों की भी संख्या बढ़ी है। निर्वाचित सदस्य भी कई बार मोटी रकम ले अपना मत और पाला भी बदलते रहते है बल्कि कई दफा तो सरकार की संवेदनशील स्थिति का ये फायदा उठा अपनी बोली      ऊंची लगा मोटा माल ऐठने से भी परहेज नहीं करते।

एक आंकड़े के अनुसार 1448 सांसदों एवं विधायको के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज है, संसद, राज्य सभा, विधानसभाओं एवं विधान परिषदों में अब एक चलन सा हो गया है अपने वेतन भत्ते मनमाफिक बढ़ाओ, गढ़े मुर्दे उखाडा़े और टाइम पास करो। यहॉं यक्ष प्रश्न उटता है क्या ये संवैधानिक संस्थाएंे इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही रह गई है? क्यों नही गरीबी, भूख, कुपोषण, बलात्कार, बेरोजगारी, हत्या, डकैती,  भ्रष्टाचार इन संस्थाओं में बढ़ते आपराधिक पृष्ठ भूमि के लोगो के खिलाफ जंग छेड़ते? क्यो चोर-सिपाही, चूहे-बिल्ली का खेल खेला जाता है? जन प्रतिनिधियों में बढ़ती उदण्डता को कौन रोकेगा? राजनीतिक पार्टियों का गेंगवार की तर्ज पर जनता एवं शासकीय धन की क्षति को कौन रोकेगा? जनप्रतिनिधियों के लिए आदर्श आचरण संहिता कौन बनायेगा? इन्हें दण्डित कौन करेगा?

आज पूरे देश में एक अराजकता का माहौल सा हो गया है। न्यायालयों के ऊपर बी.वी.आई.पी. के ही इतने केस लद गए है कि जजों एवं मानव संसाधनों की कमी के चलते इन पर बोझ बढ़ता ही जा रहा है, दूसरी ओर भारत के मुख्य न्यायाधीश एच. एच. कपाडिया कहते है कि जजों को देश का शासन नही चलाना चाहिए, जजों को नीतियों का विकास नही करना चाहिए, हम जनता के प्रति जवाबदेह नही है , क्या होगा अगर कार्यपालिका, न्यायपालिका के निर्देश पालन करने से मना कर दे, पद पर रहते हुए ऐसी भावना कही न कही न्यायाधीशो की स्वतंत्र सोच पर असर डाल सकती है, जो न्यायपालिका के लिए किसी भी सूरत में हितकर नही होगा! वैसे भी आज न्याय के लिए सभी की ऑखे और विश्वास न्यायालय पर ही टिकी हुई हैै।

भारत की जनता के टेक्स पर हमारे नेता कब तक ऐश करते रहेगें? वही दूसरी ओर करोडा़े-अरबों रूपया डकारने के बाद भी नेताओ में संतुष्टि नही है! कई दफा तो मुझे ऐसा लगता है कही नंगे-भूखे, गरीबो एवं जनता के गुस्से का ज्वालामुखी कही 1857 की तरह विद्रोह के रूप में न फूटे?

देश की दो बड़ी राजनीतिक पार्टी कंाग्रेस एवं भाजपा संविधान के मंदिर से निकल किसी डान की तरह सड़क-चौराहंे पर उतर देख लेने की धमकी पर उतर आई है, भगवान ही जाने अंजामे गुलिस्ता क्या होगा? कहते भी है विशेष कार्य के लिए विशेष स्थान का अपना एक महत्व होता है! जनता ने जनप्रतिनिधियों को चुनकर संविधान के मंदिर में इसलिए नही भेजा कि वहा जनहित के मुद्दों पर स्वस्थ्य बहस न कर वहां से भाग गली चौराहों पर अपनी बात कहे। यह कही न कही संविधान के मंदिर के साथ संसद का भी अपमान है, अब विशेषाधिकार कहॉ है?

भाजपा कहती है कांग्रेस ने मोटा  माल पाया है कैसे छोड़ दे बिना लिए, दिए, कांग्रेस कहती है ब्लैक मेलिंग भाजपा की रोजी-रोटी है। यदि यही शब्द कही भारतीय नागरिक ने कहे होते तो उस पर विशेषाधिकार के नाम पर इतने केस लाद देते कि उसकी सात पुस्ते भी ऐसा कहने की हिम्मत न जुटा पाती?

यूं तो बलि, अल्लाह और देवी-देवताओं को प्यारी है फिर भी देश का कानून ऐसे कृत्य को करने से मना करता है।  वही भाजपा पी. एम. की बलि लेने से कम पर उतारू नही है, वही केन्द्र शासन इस बलि के लिए कानूनन खिलाफ है। इन दोनो  की लडा़ई में कितनी नर बलि चढे़गी ये तो वक्त ही बतायेगा?

टी.वी. पर एक विज्ञापन आता है ‘‘दाग अच्छे है’’  उसी तर्ज  पर भाजपा कह रही है अगर जवाब मांगना ब्लैकमेलिंग है तो हम करते रहेगे।

मान-अभिमान के बीच संसद को न चलने देने का राजनीतिक पार्टिर्यो  का अक्षम्य पाप कैसे धुलेगा? ये गुनाह जनता माफ करेगी? ये तो वक्त ही बताऐगा