सुलग रही है असम की आग

असम में करीब एक पखवाड़े तक हिंसा की तेज आग की लपटे कम तो हुई, पर उसकी तपिश कम नहीं हुई है। इसका असर देश के दूसरे हिस्सो में असमियों को धमकी के रूप में दिखा। फिलहाल राजनीतिक प्रयासों से सब कुछ शांत-शांत सा दिख रहा है, लेकिन असम के अंदर हिंसा फैलाने वाले उपद्रवी वैसे ही जमीन पर जम गए हैं, जैसे गंदे पानी में हिलोरे शांत होने के बाद गंदगी नीचे जम जाती है। इस शांति का मतलब यह नहीं कि पानी में गंदगी नहीं है। बाहरी दुनिया को अब शांत दिखने वाले असम की आग भले ही बुझ गई हो, लेकिन अंदर-अंदर फिर से टकराव की कुलबुलाहट अभी भी बनी हुई है। फिलहाल राष्ट्रीय मीडिया से असम हिंसा की खबरें गायब हैं। लेकिन ताजा हालात यह है कि अभी भी करीब पौने दो लाख से ज्यादा लोग राहत शिविरों में हैं। जान-माल की सुरक्षा की गारंटी का मनोवैज्ञानिक माहौल नहीं होने से अभी भी वे शिविर छोड़ने से खौफ खा रहे हैं।

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक निचले असम के पांच जिलों में करीब दो महीने पहले जो हिंसा भड़की थी, उससे प्रभावित एक लाख 87 हजार 52 लोग अब भी 206 शिविरों में रह रहे हैं। राहत शिविरों में रहने वालों में 168875 मुस्लिम हैं जो 174 शिविरों में रह रहे हैं जबकि 17344 लोग 29 शिविरों में रह रहे हैं। तीन शिविरों में अन्य समुदायों के 833 लोग रह रहे हैं। धुबरी में 129 शिविरों में सबसे ज्यादा एक लाख एक हजार 373 लोग रह रहे हैं जबकि कोकराझार के 43 शिविरों में 55760 लोग रह रहे हैं। चिरांग में 22 शिविरों में 23609 लोग रह रहे हैं, बोंगाईगांव में नौ शिविरों में 5554 और बारपेटा के तीन शिविरों में 756 लोग रह रहे हैं।

करीब दो महीने वोट वैंक की राजनीति को कुरेदने से असम के गांव से फैली हिंसा की आग की धाह में कई जिलों के मासूम हलाल हो गए। सात अगस्त तक 78 लोगों के मारे जाने की खबर आई। करीब चार लाख लोगों को बेघर होना पड़ा। इनमें से ज्यादातर लोगों ने बीटीएडी के 300 से अधिक राहत शिविरों में आश्रय लिया। हालांकि अब आश्रितों का धीरे-धीरे अपने गांवों  की ओर पलायन होने लगा है, लेकिन उनके मन से खौफ नहीं निकला है। फिलहाल समस्या के स्थायी समाधान के लिए सरकार की ओर से कोई ठोस पहल की सुगबुगाहट भी नहीं दिख रही है। सरकारी प्रयास घाव की जड़ समाप्ति के नहीं, बल्कि तत्कालिक राहत वाले मरहम की तरह है।

असम हिंसा की खबरें जब मीडिया के सुर्खियों में आर्इं तो सबसे ज्यादा चर्चा इस बात पर हुई कि असम में अवैध रूप से बांग्लादेशी नागरिकों की पैठ हो गई है। मीडिया की बहस भी कमोबेश इसी मुद्दे पर केंद्रीत रही कि अवैध प्रवासियों की पहचान कर देश से निकाला जाए। जैसे ही यह गरमा-गरम बहस शांत हुई, प्रदेश के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने एक चैनल के साथ टॉक शो में स्पष्ट किया कि असम की समस्या की मूल पड़ोसी देश की अवैध घुसपैठ नहीं, बल्कि मुस्लिम समुदाय द्वारा ज्यादा बच्चे पैदा करना है। एक परिवार में पांच से दस बच्चे आसानी से देखे जा सकते हैं। हालांकि इस तरह की बेवाकी जुबान सीएम ने पहले नहीं खोली। लेकिन विवाद, आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति में सच को झुठलाया नहीं जा सकता है। एक ओर मुख्यमंत्री का बयान का सच है तो दूसरा सच घुसपैठ। असम में हिंसा के मूल को खत्म करने के लिए इन्हीं दोनों समस्याओं के आलोक में समाधान खोजा जा सकता है।

इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिए कि कम साधन में बढ़ती जनसंख्या भविष्य में टकराव ही जन्म देगी। जिस अनुपात में असम में जनंसख्या और घुसपैठ बढ़ रही है, वह निश्चय ही भयावह है।  असम में 1971-1991 में हिंदुओं की की जनसंख्या वृद्धि का अनुपात 42.89 है जबकि मुस्लिम जनंसख्या में इससे 35% अधिक 77.42% की दर से बढ़ोतरी हुई है। इसके विपरीत सर्पूण भारत में दोनों के बीच में अंतर 19.79% का रहा है। 1991-2001 में हिन्दू जनसंख्या बढोत्तरी दर 14.95% रही जबकि मुस्लिम जनंसख्या में यहां भी 14.35% अधिक, 29.3 % की दर से बढ़ोतरी हुई है। 1991 में असम में मुस्लिम जनसंख्या 28.42% थी जो 2001 के जनगणना के अनुसार बढ़ कर 30.92% प्रतिशत हो गई, 2011 जनगणना में स्थिति और भी भयावह हो सकती है।

वहीं हिंदुस्तान सरकार के बोर्डर मैनेजमेण्ट टास्क फोर्स की वर्ष 2000 की रिपोर्ट के अनुसार 1.5 करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठ कर चुके हैं और लगभग तीन लाख प्रतिवर्ष घुसपैठ कर रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार हिन्दुस्तान में बांग्लादेशी मुसलमान घुसपैठियों की संख्या कम नहीं है। पश्चिम बंगाल में 54 लाख, असम 40 लाख, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र आदि में 5-5 लाख से ज्यादा, दिल्ली में करीब 3 लाख अवैध बांग्लादेशी है। वर्तमान अनुमान के अनुसार देश में करीब 3 करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठिए है, इसमें से 50 लाख असम में हो सकते है।

असम में 10 लाख अवैध घुसपैठियों एक वर्ष में नहीं आए। धीरे-धीरे उन्होंने अपनी जगह बनाई है। रूप रंग और कद काठी में भारतीयों की तरह दिखने के कारण उनको यहां के परिवेश में घुलना मिलना सहज है। आरंभ में जो अवैध घुसपैठिएं आएं, उनकी एक पीढ़ी असम में ही जन्म लेकर जवान हो चुकी है। वे खुद को भारतीय मानने लगे हैं। लिहाजा, उन्हें भी वह हर अधिकार और सम्मान चाहिए जो एक आम भारतीयों को है। यदि असम में घुसपैठ का मुद्दा छोड़ भी दिया जाए तो भी यहां की बदहाली  की स्थिति कमोबेश टकराव को ही जन्म देती है।

स्थानीय स्तर पर रोजगार का भारी अभाव के कारण असमी पलायन कर दूसरे प्रदेशों में रोजी रोटी की जुगत कर रहे हैं। स्थानीय बाजार में बाहरी लोगों के प्रभाव के कारण पहले भी असम उग्र हुआ है। तब प्रवासी बिहारियों को खदेड़ने के लिए उपद्रवियों ने अभियान चलाया था। ऐसे गैर-कानूनी अभियान की संभावना आगे भी बनी हुई है। लिहाजा, असम से घुसपैठ और जातिय संघर्ष के नासूर को दूर करने से पहले राज्य की बदहाली को दूर करना आवश्यक है।