जनेवि के सिरफिरे छात्रों का इलाज

जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जनेवि) में चल रहा हुड़दंग आजकल इतना खबरों में क्यों है? इसीलिए कि कुछ छात्रों को गिरफ्तार कर लिया गया है। यदि छात्र संघ के अध्यक्ष को गिरफ्तार नहीं किया जाता तो यहां चलने वाली उटपटांग गतिविधियों पर शायद ही किसी का ध्यान जाता, क्योंकि जनेवि इस तरह की कारस्तानियों के लिए विख्यात हो चुका है। मैं इस विवि के स्कूल आफ इंटरनेशनल स्टडीज़ का शायद पहला पी.एच.डी. हूं। जबसे यह विवि बना है, इसमें देश के प्रतिभाशाली छात्र भर्ती होते रहे हैं। वे अपनी पढ़ाई के साथ-साथ सामाजिक और राजनीतिक मुद्दे भी उठाते रहते हैं। इसमें मुझे कोई बुराई नजर नहीं आती लेकिन मूल-प्रश्न यह है कि क्या छात्रों को अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए या राजनीतिक पार्टियों और कुछ अवांछित गिरोहों के सदस्य बनकर अपने सरस्वती के मंदिर को तुच्छ राजनीति का अखाड़ा बना देना चाहिए?

यदि कुछ मुद्दों को उठाना बहुत जरुरी हो तो जरुर उठाया जाए लेकिन उसके लिए विवि परिसर का दुरुपयोग क्यों किया जाए? मैंने अपने छात्र-काल में जो मुद्दा उठाया था, अब से 50 साल पहले, उसने कई बार संसद की कार्रवाई ठप्प की और वह अंतरराष्ट्रीय विवाद का विषय बना। वह मुद्दा न तो राजनीतिक था और न ही उसका किसी पार्टी से कोई संबंध था। वह शुद्ध अकादमिक मुद्दा था। वह था- अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर शोध-कार्य हिंदी में करने का। वह विवि का अपना और बुनियादी मुद्दा था। पहली बार भारत के इतिहास में उच्च शिक्षा के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले।

लेकिन अभी अफजल गुरु और कश्मीर का मुद्दा उठाया गया। कोई हमें समझाए कि इसका जनेवि से क्या लेना देना है? यह मुद्दा आपको उठाना ही है तो आप बाहर कहीं उठाएं। जंतर-मंतर है, राजघाट है, इंडिया गेट है, लालकिला है। आप इसे विवि में उठाते हैं और आपके समर्थन में सारे टटपूंजिया नेता उतर आते हैं। यह सब करके आपको क्या मिलता है? अपने विवि की इज्जत पैंदे में बैठ जाती है। इसकी श्रेष्ठता पर पर्दा पड़ जाता है। किसी महान और मौलिक शोधकार्य के लिए वह नहीं जाना जाता। वह जाना जाता है, राजनीतिक अखाड़ेबाजी के लिए। मेरे जैसे जनेवि के आदि छात्रों के लिए यह दुख का विषय है।

जहां तक अफजल गुरु और कश्मीर का सवाल उठाने की बात है, उस बात को उठाने की आजादी का मैं पूरा समर्थन करता हूं, हालांकि मैं इस बात से बिल्कुल भी सहमत नहीं हूं। मैं यह मानता हूं कि यदि इस देश में गोड़से की पूजा हो सकती है और हिटलर व मुसोलिनी को महान नेता बताया जा सकता है, तो किसी भी अपराधी के बारे में कोई भी राय रखी जा सकती है। ऐसी गलत और मूर्खतापूर्ण राय रखना और उसे व्यक्त करना देशद्रोह कैसे हो गया? सरकार ने गुजरात में हार्दिक पटेल पर और दिल्ली में कामरेड कन्हैया पर जो देशद्रोह के आरोप लगाए हैं, वे हास्यास्पद हैं। कन्हैया को हमारी सरकार ने जबरदस्ती हीरो बना दिया है। यह इस बात का प्रमाण है कि हमारे नेताओं में राजनीतिक परिपक्वता की कमी है। वे बात का जवाब लात से देते हैं। इसलिए देते हैं कि आजकल उनके पास लात मारने की ताकत है। जब नहीं होगी तब वे क्या करेंगे? यदि कुछ लड़के संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन कर रहे हैं तो आप क्या कर रहे हैं? क्या आप भी अभिव्यक्ति की संवैधानिक आजादी का उल्लंघन नहीं कर रहे हैं? क्या ही अच्छा होता कि जनेवि के कुछ सिरफिरे छात्रों को कानून के हवाले करने की बजाय जवाबी तर्कों, गोष्ठियों और प्रदर्शनों के हवाले किया जाता।