ओवैसियों का काला इतिहास और कासिम रिज़वी…

आजकल भारत की राजनीति में तेजी से उभरता हुआ नाम है असदुद्दीन ओवैसी. AIMIM अर्थात ऑल इण्डिया “मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन” के नेता और मुस्लिमों के बीच तेजी से अपनी पैठ बनाते जा रहे हैदराबादी. असदुद्दीन ओवैसी ने लन्दन से वकालत की पढ़ाई की है, इसीलिए अक्सर चैनलों पर बहस में अथवा साक्षात्कारों में बेहतरीन तरीके से “कुतर्क” कर लेते हैं. इन्हीं के छोटे भाई हैं अकबरुद्दीन ओवैसी (Akbaruddin Owaisi). अकबरुद्दीन की अभी कोई खास देशव्यापी पहचान नहीं बन पाई है, सिवाय इसके कि पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान इन्होंने कई चुनावी सभाओं में जहरीले भाषण दिए. जिस कारण इन पर कुछ मुक़दमे दर्ज हुए और चंद दिनों हवालात में काटकर आए. तेलंगाना विधानसभा में एक विधायक से अधिक फिलहाल उनकी हैसियत सिर्फ असदउद्दीन ओवैसी के भाई की ही है. खैर, यह तो हुआ AIMIM का संक्षिप्त वर्तमान इतिहास, लेकिन क्या आपने कभी इस बात पर गौर किया कि अकबरुद्दीन ओवैसी जहरीले भाषण क्यों देता है? अथवा असदउद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) सिर्फ मुस्लिमों की राजनीति क्यों करता है? इनके भाषण और इंटरव्यू अक्सर मुस्लिम साम्प्रदायिकता के इर्द-गिर्द क्यों रहते हैं? इसके लिए आपको AIMIM के इतिहास, उसके जन्म और पिछले नेताओं के बारे में जानना जरूरी है.

आईये चलते हैं देश की आज़ादी के कालखण्ड में. जैसा कि हम सभी जानते हैं स्वतंत्रता प्राप्ति के समय सरदार पटेल को गृह मंत्रालय सौंपा गया था ताकि वे देश की पाँच सौ से अधिक रियासतों और राजाओं को समझाबुझा कर भारत गणराज्य में शामिल करें, ताकि यह देश एक और अखंड बने. अंग्रेजों के जाने के बाद उस समय अधिकाँश रियासतों ने खुशी-खुशी भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार किया और आज जो भारत हम देखते हैं वह इन्हीं विभिन्न रियासतों से मिलकर बना. उल्लेखनीय है कि उस समय कश्मीर को छोड़कर देश की बाकी रियासतों को भारत में मिलाने का काम सरदार पटेल को सौंपा गया था, जिसे उन्होंने बखूबी अंजाम दिया. नेहरू ने उस समय कहा था कि कश्मीर को मुझ पर छोड़ दो, मैं देख लूँगा. इस एकमात्र रियासत को भारत में मिलाने का काम अपने हाथ में लेने वाले नेहरू की बदौलत, पिछले साठ वर्ष में कश्मीर भारत की छाती पर नासूर ही बना हुआ है. ऐसा ही एक नासूर दक्षिण भारत में “निजाम राज्य” भी बनने जा रहा था. उन दिनों वर्तमान तेलंगाना और मराठवाड़ा के कुछ हिस्सों को मिलाकर हैदराबाद रियासत अस्तित्त्व में थी, जिस पर पिछले कई वर्षों से निजाम शासन कर रहे थे. सरदार पटेल ने निजाम से आग्रह किया था कि भारत में मिल जाईये, हम आपका पूरा ख़याल रखेंगे और आपका सम्मान बरकरार रहेगा. निजाम रियासत की बहुसंख्य जनता हिन्दू थी, जबकि शासन निजाम का ही होता था. लेकिन निजाम का दिल पाकिस्तान के लिए धड़क रहा था. वे ऊहापोह में थे कि क्या करें? क्योंकि हैदराबाद की भौगोलिक स्थिति भी ऐसी नहीं थी, कि वे पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) के साथ को जमीनी तालमेल बना सकें, क्योंकि बाकी चारों तरफ तो भारत नाम का गणराज्य अस्तित्व में आ ही चुका था. फिर निजाम ने ना भारत, ना पाकिस्तान अर्थात “स्वतन्त्र” रहने का फैसला किया. निजाम की सेना में फूट पड़ गई, और दो धड़े बन गए. पहला धड़ा जिसके नेता थे शोएबुल्लाह खान और इनका मानना था कि पाकिस्तान से दूरी को देखते हुए यह संभव नहीं है कि हम पाकिस्तानी बनें, इसलिए हमें भारत में विलय स्वीकार कर लेना चाहिए, लेकिन दूसरा गुट जो “रजाकार” के नाम से जाना जाता था वह कट्टर इस्लामी समूह था और उसे यह गुमान था कि मुसलमान हिंदुओं पर शासन करने के लिए बने हैं और मुग़ल साम्राज्य फिर वापस आएगा. रजाकारों के बीच एक व्यक्ति बहुत लोकप्रिय था, जिसका नाम था कासिम रिज़वी.

कासिम रिज़वी अलीगढ़ से वकालत पढ़कर आया था और उसके जहरीले एवं उत्तेजक भाषणों की बदौलत वह जल्दी ही रियासत के प्रधानमंत्री मीर लईक अली का खासमखास बन गया. कासिम रिज़वी का स्पष्ट मानना था कि निजाम को दिल्ली से संचालित हिंदुओं की सरकार के अधीन रहने की बजाय एक स्वतन्त्र राज्य बने रहना चाहिए. अपनी बात मनवाने के लिए रिज़वी ने सरदार पटेल के साथ कई बैठकें की, परन्तु सरदार पटेल इस बात पर अड़े हुए थे कि भारत के बीचोंबीच एक “पाकिस्तान परस्त स्वतंत्र राज्य” मैं नहीं बनने दूँगा. कासिम रिज़वी धार्मिक रूप से एक बेहद कट्टर मुस्लिम था. सरदार पटेल के दृढ़ रुख से क्रोधित होकर उसने रजाकारों के साथ मिलकर निजाम रियासत में उस्मानाबाद, लातूर आदि कई ठिकानों पर हिन्दुओं की संपत्ति लूटना, हत्याएँ करना और हिन्दुओं को मुस्लिम बनाने जैसे “पसंदीदा” कार्य शुरू कर दिए. हालाँकि कासिम के इस कृत्य से निजाम सहमत नहीं थे, लेकिन उस समय तक सेना पर उनका नियंत्रण खो गया था. इसी बीच कासिम रिज़वी ने भारत में विलय की पैरवी कर रहे शोएबुल्ला खान की हत्या करवा दी. MIM का गठन नवाब बहादुर यार जंग और कासिम रिजवी ने सन 1927 में किया था, जब हैदराबाद में उन्होंने इसे एक सामाजिक संगठन के रूप में शुरू किया था. लेकिन जल्दी ही इस संगठन पर कट्टरपंथियों का कब्ज़ा हो गया और यह सामाजिक की जगह धार्मिक-राजनैतिक संगठन में बदल गया. 1944 में नवाब जंग की असमय अचानक मौत के बाद कासिम रिज़वी MIM का मुखिया बना और अपने भाषणों की बदौलत उसने “रजाकारों” की अपनी फ़ौज खड़ी कर ली (हालाँकि आज भी हैदराबाद के पुराने बाशिंदे बताते हैं कि नवाब जंग कासिम के मुकाबले काफी लोकप्रिय और मृदुभाषी था, और कासिम रिजवी ने ही जहर देकर उसकी हत्या कर दी). MIM के कट्टर रुख और रजाकारों के अत्याचारों के कारण 1944 से 1948 तक निजाम राजशाही में हिंदुओं की काफी दुर्गति हुई. बहरहाल, अब तक आपको MIM के मूल DNA के बारे में काफी कुछ समझ में आ गया होगा. अब आगे…

सरदार पटेल MIM और कासिम की रग-रग से वाकिफ थे. October Coup – A Memoir of the Struggle for Hyderabad नामक पुस्तक के लेखक मोहम्मद हैदर ने कासिम रिजवी से इंटरव्यू लिया था उसमें रिजवी कहता है, “निजाम शासन में हम भले ही सिर्फ बीस प्रतिशत हों, लेकिन चूँकि निजाम ने 200 साल शासन किया है, इसका अर्थ है कि हम मुसलमान शासन करने के लिए ही बने हैं”, इसी पुस्तक में एक जगह कासिम कहता है, “फिर एक दिन आएगा, जब मुस्लिम इस देश पर और निजाम हैदराबाद पर राज करेंगे”. जब सरदार पटेल ने देखा कि ऐसे कट्टर व्यक्ति के कारण स्थिति हाथ से बाहर जा रही है, तब भारतीय फ़ौज ने “ऑपरेशन पोलो” के नाम से एक तगड़ी कार्रवाई की और रजाकारों को नेस्तनाबूद करके सितम्बर 1948 में हैदराबाद को भारत में विलय करवा दिया. सरदार पटेल ने MIM पर प्रतिबन्ध लगा दिया और कासिम रिजवी को गिरफ्तार कर लिया गया. चूँकि उस पर कमज़ोर धाराएँ लगाई गईं थीं, और उसने भारत सरकार की यह शर्त मान ली थी कि रिहा किए जाने के 48 घंटे के भीतर वह भारत छोड़कर पाकिस्तान चला जाएगा, सिर्फ सात वर्ष में अर्थात 1957 में ही वह जेल से बाहर आ गया. माफीनामे की शर्त के मुताबिक़ उसे 48 घंटे में भारत छोड़ना था. कासिम रिजवी ने ताबड़तोड़ अपने घर पर MIM की विशेष बैठक बुलाई.

डेक्कन क्रॉनिकल में इतिहासकार मोहम्मद नूरुद्दीन खान लिखते हैं कि भारतीय फ़ौज के डर से कासिम रिजवी के निवास पर हुई इस आपात बैठक में MIM के 120 में से सिर्फ 40 प्रमुख पदाधिकारी उपस्थित हुए. इस बैठक में कासिम ने यह राज़ खोला कि वह भारत छोड़कर पाकिस्तान जा रहा है और अब सभी लोग बताएँ कि “मजलिस” की कमान संभालने में किसकी रूचि है? उस बैठक में मजलिस (MIM) में भर्ती हुआ एक युवा भी उत्सुकतावश पहुँचा हुआ था, जिसका नाम था अब्दुल वाहिद ओवैसी (अर्थात वर्तमान असदउद्दीन ओवैसी के दादा). बैठक में मौजूद वरिष्ठ नवाब मीर खादर अली खान ने ओवैसी का नाम प्रस्तावित किया और रिजवी ने इस पर अपनी सहमति की मुहर लगाई और पाकिस्तान चला गया. वह दिन है, और आज का दिन है… तब से MIM पर सिर्फ ओवैसी परिवार का पूरा कब्ज़ा है.

अब्दुल वाहिद ओवैसी ने MIM के साथ All India शब्द भी जोड़ दिया और वह AIMIM बन गई. कासिम रिजवी से प्राप्त “कट्टर इस्लामिक परंपरा” को अब्दुल वाहिद ने भी जारी रखा, और जहरीले भाषण देने लगा. 14 मार्च 1958 को हैदराबाद पुलिस ने ओवैसी को भडकाऊ भाषण, दंगा फैलाने, गैर-मुस्लिमों के प्रति घृणास्पद बयान देने के कारण गिरफ्तार कर लिया. वाहिद ओवैसी ग्यारह महीने तक चंचलगुडा जेल में कैद रहा. वाहिद ओवैसी की गिरफ्तारी को उनके बेटे सुलतान सलाहुद्दीन ओवैसी ने आंध्रप्रदेश हाईकोर्ट में चुनौती दी, लेकिन हाईकोर्ट ने उसे खारिज कर दिया और ओवैसी को जेल में ही रहना पड़ा. 1976 में अपने पिता की मौत के बाद सुलतान सलाउद्दीन ओवैसी ने AIMIM की ताजपोशी हासिल की और पूरे आंध्रप्रदेश में इसका विस्तार करना आरम्भ किया. ओवैसी परिवार शुरू से ही हैदराबाद को अपनी रियासत समझता रहा है, इसीलिए बादशाहों की तर्ज पर पहले अब्दुल वाहिद, फिर सुलतान सलाहुद्दीन और अब असदउद्दीन ओवैसी इस पार्टी को अपनी निजी जागीर समझकर चलाते आए हैं. मैं समझ सकता हूँ, कि आपको अचानक कश्मीर याद आ गया होगा, जहाँ शेख अब्दुल्ला, फारुक अब्दुल्ला और अब उमर अब्दुल्ला अपनी “जागीर” चला रहे हैं.

बहरहाल, जब हैदराबाद में आप ओवैसी खानदान के किसी चश्मो-चिराग से AIMIM का इतिहास पूछेंगे अथवा उनकी वेबसाईट पर जाएँगे तो आपको बताया जाएगा कि AIMIM की स्थापना मौलवी अब्दुल वाहिद ओवैसी ने 1958 में की, जिन्हें “राजनैतिक कारणों और मुसलमानों की आवाज़ उठाने” के जुर्म में दस माह की जेल हुई थी. अपना “काला इतिहास” बताने में AIMIM को इतनी शर्म (या कहें धूर्तता) आती है कि वेबसाईट कासिम रिज़वी और उसके रजाकारों द्वारा किए गए कट्टर और हिंसक कारनामों के बारे में एकदम खामोश रहती है. “अल-तकैया” की नीति अपनाते हुए 1948 से 1957 के बीच का इतिहास गायब कर दिया गया है. अब आपको अकबरुद्दीन ओवैसी के जहरीले और धार्मिक भाषणों तथा पुराने हैदराबाद में ओवैसी परिवार की बेताज बादशाहत एवं अकूत धन-संपत्ति सहित इसी परिवार के विभिन्न ट्रस्टों के माध्यम से तमाम स्कूल-कॉलेज-अस्पताल-संस्थाएँ आदि पर पूर्ण कब्जे की कहानी और इसका DNA समझ में आ गया होगा.

ओवैसी के बढ़ते राजनैतिक रसूख से यूपी-बिहार और महाराष्ट्र सहित देश के कई भागों में एक विशिष्ट किस्म की “सेकुलर बेचैनी” उभरने लगी है. महाराष्ट्र विधानसभा के गत चुनावों में ओवैसी ने अपने कई उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारे, और उनमें से दो विधायक चुने भी गए. इसके अलावा औरंगाबाद नगर निगम में भी AIMIM दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. फिलहाल असदउद्दीन ओवैसी इसके लोकसभा सांसद हैं, और अकबरुद्दीन ओवैसी सहित इस पार्टी के सात विधायक तेलंगाना विधानसभा में मौजूद हैं. मुस्लिम वोटों के प्रमुख सौदागर अर्थात समूचे देश में काँग्रेस, यूपी में मुलायम सिंह, बिहार में लालू-नीतीश और महाराष्ट्र में NCP ये सभी लोग मुसलमानों के बीच ओवैसी के चढ़ते बुखार से परेशान हैं. अपने पिछले बयानों में ये सभी पार्टियाँ AIMIM और ओवैसी बंधुओं को “सेकुलरिज़्म” का सर्टिफिकेट बाँट चुकी हैं, परन्तु जब ओवैसी ने पहले महाराष्ट्र और अब बिहार चुनावों में मजबूत दस्तक दी है, तब से (कु) बुद्धिजीवियों द्वारा सेकुलरिज़्म का यह सर्टिफिकेट उनसे वापस लिया जा रहा है. मजे की बात यह है कि पुराने हैदराबाद में ओवैसी के एकछत्र साम्राज्य और अन्य राज्यों के मुस्लिम वोटरों में सेंधमारी से सिर्फ सेकुलर बिरादरी ही परेशान है, मुस्लिमों का एक वर्ग भी अब ओवैसी बंधुओं की अनियमितताओं और दबाव की राजनीति के खिलाफ आवाज़ उठाने लगा है.

हाल ही में मुस्लिम मिरर.कॉम नामक वेबसाईट पर आए एक लेख में ओवैसी बंधुओं पर कई तीखे सवाल दागे गए हैं. किसी मुस्लिम द्वारा ही लिखे गए इस लेख में ओवैसी बंधुओं से उनका इतिहास खोदते हुए सवाल पूछा गया है कि जब कासिम रिज़वी पाकिस्तान भाग गया तो उस समय AIMIM के पास जो संपत्ति और मालमत्ता थी उस पर ओवैसी परिवार ने कब्ज़ा कर लिया, वह संपत्ति कितनी थी और उसका हिसाब-किताब क्या है? इसी प्रकार इस मुस्लिम लेखक ने इस लेख में यह सवाल भी किया है कि सुलतान सलाहुद्दीन ओवैसी के जमाने से वक्फ की संपत्ति जिस अनुपात में घटती गईं, ओवैसी परिवार की संपत्ति उसी अनुपात में बढ़ती गई, ऐसा क्योंकर हुआ? सलाहुद्दीन ओवैसी वर्षों तक सांसद रहे, उसके बाद असदउद्दीन भी सांसद हैं, एक ही परिवार से अकबरुद्दीन भी विधायक हैं, इसके अलावा चचेरे-ममेरे-फुफेरे भाईयों-भतीजों की टीम भी विधायकी, महापौर और पार्षदों के पदों पर काबिज है, इस “ओवैसी परिवारवाद” के बारे में कोई जवाब नहीं मिलता. ओवैसी बंधुओं से इस लेखक का अधिक चुभने वाला सवाल यह है कि हैदराबाद और तेलंगाना के बड़े हिस्से में दारुल उलूम द्वारा संचालित मुसलमानों की शिक्षण संस्थाएँ और मदरसे धीरे-धीरे बन्द क्यों होते चले गए, जबकि ओवैसी परिवार के ट्रस्ट द्वारा संचालित निजी स्कूल-कॉलेज जमकर फल-फूल रहे हैं. इसके अलावा जब से ओवैसी परिवार की मुठ्टी में सत्ता बन्द है, तब से लेकर आज तक हैदराबाद में कई बार हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए, लेकिन फिर भी उस समय ओवैसियों ने सत्ताधारी काँग्रेस का दामन नहीं छोड़ा, ना ही काँग्रेस की कोई आलोचना की. चलो माना कि ये तो सुलतान सलाहुद्दीन के समय की बात थी, लेकिन जब से असदउद्दीन ओवैसी के हाथ में AIMIM के सत्ता-सूत्र आए हैं, उसके बाद ओल्ड मलकापेट मस्जिद की जमीन अतिक्रमणकारियों ने हथियाई, रामोजी फिल्म सिटी में वक्फ बोर्ड की जमीन रामोजी ने कब्ज़ा कर ली, किरण कुमार रेड्डी तथा राजशेखर रेड्डी के रिश्तेदारों ने भी हैदराबाद में वक्फ बोर्ड की मौके की जमीन लूट ली, लेकिन असदुद्दीन ओवैसी चुप्पी साधे रहे. ओवैसी बंधुओं को अचानक इस्लाम की याद तब आई जब मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी से उनके सम्बन्ध खटास भरे हुए और रेड्डी ने “ओवैसी परिवार की शिक्षा और चिकित्सा इंडस्ट्री” अर्थात मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों की जाँच और अनियमितताओं के बारे में पूछताछ आरम्भ की.

फिलहाल ओवैसी बंधु अपनी पार्टी को “अखिल भारतीय” बनाने के चक्कर में पूरे देश में मुस्लिम वोटरों की थाह ले रहे हैं और कथित सेकुलरों का दुर्भाग्य कहें कि मुस्लिमों का एक तबका इनकी पार्टी की तरफ आकर्षित भी हो रहा है. हिन्दू संगठन ओवैसी को शुरू से ही संदेह की निगाह से देखते आए हैं, क्योंकि अधिकाँश हिंदुओं को उनके परिवार और रजाकारों के “काले इतिहास” के बारे में जानकारी है. क्या अब तक आप ओवैसियों के इस पाकिस्तान परस्त, धार्मिक कट्टरतापूर्ण व्यवहार तथा हैदराबाद में उनके भ्रष्टाचार, एकाधिकार और कब्जे की राजनीति के इतिहास से परिचित थे? मुझे यकीन है, नहीं होंगे. क्योंकि जब हमारे देश के कथित सेकुलर बुद्धिजीवी, वामपंथी इतिहासकार और पत्रकारनुमा व्याख्याकारों को दिल्ली में ठीक उनकी नाक के नीचे इमाम बुखारी की “तमाम बीमारियाँ” ही नहीं दिखाई देतीं, तो हैदराबाद तो उनके लिए बहुत दूर है.