‘तपती धरती’ का जो ज़िम्मेदार,बचाव भी उसी से दरकार

मौसम विशेषज्ञों द्वारा ग्रीष्म ऋतू शुरू होने से पहले ही यह भविष्यवाणी कर दी गयी थी कि इस बार दुनिया के अधिकांश देश झुलसाने वाली अभूतपूर्व गर्मी का सामना कर सकते हैं। सहस्त्राब्दियों पुराने ग्लेशियर्स के लगातार पिघलते रहने के बीच जब यह ख़बर भी आयी थी कि पूरे विश्व को प्रकृतिक रूप से लगभग बीस प्रतिशत ऑक्सीजन की आपूर्ति करने वाले अमेज़ॉन के सैकड़ों किलोमीटर क्षेत्र के जंगलों को ब्राज़ील सरकार के संरक्षण में विकास के नाम पर काट दिया गया है। तभी यह अंदाज़ा होने लगा था कि दुनिया भविष्य में अभूतपूर्व तपिश का सामना करने की दिशा में आगे बढ़ रही है। और पूरे विश्व विशेषकर भारत को भी इसबार झुलसती गर्मी का सामना करना पड़ा। देश के विभिन्न स्थानों पर 2 से लेकर 3 प्रतिशत तक सामान्य तापमान में वृद्धि दर्ज की गयी। राजधानी दिल्ली के मंगेशपुर नामक एक क्षेत्र में तो पारा 49 डिग्री सेल्सियस पार कर गया। जगह जगह सूखा पड़ने की ख़बरें आईं।

निश्चित रूप से आम लोग ग्लोबल वार्मिंग रुपी इस त्रासदी से पूरी तरह तो हरगिज़ नहीं निपट सकते। क्योंकि विकास और प्रगति के नाम पर छिड़ी विश्वव्यापी प्रतिस्पर्धा के ज़िम्मेदार दुनिया के शासक और सरकारें हैं। इन्हीं का काम ऐसी ‘विकासवादी’ योजनायें बनाना है जो प्रायः पर्यावरण विरोधी होती हैं।  जिनमें हरे प्राकृतिक जंगल काटे जाते हैं और सीमेंट व कंक्रीट के ‘तपते जंगलों’ का विस्तार किया जाता है। परन्तु ऐसा भी नहीं है कि हम अपने,अपने घरों के आसपास का तापमान कम या स्थिर रखने के लिये अपने स्तर पर कुछ भी नहीं कर सकते। तपिश कम करने और ग्लोबल वार्मिंग से जूझने के ऐसे तमाम छोटे छोटे उपाय हैं जिनका सीधा संबंध सरकार या शासन से नहीं बल्कि आम लोगों से है। जिन्हें अपनाकर हम स्थानीय स्तर पर कम से अपने अपने घर परिवार में तो झुलसती गर्मी से राहत महसूस कर ही सकते हैं और प्रकृति प्रदत्त इस बेशक़ीमती जल और ऑक्सीजन युक्त धरा का सम्पूर्ण नहीं तो कुछ क़र्ज़ तो अदा कर ही सकते हैं।

सर्वप्रथम हमें अपनी यह सोच बनानी होगी और अपने बच्चों में भी पैदा करनी होगी कि वातावरण को कम से कम गर्म होने दें। इसके लिये ‘धुंआ’ ,अग्नि और गर्म हवा के उत्सर्जन को जितना संभव हो सके,कम करें। प्रायः देखा गया है कि लोग अपने घरों के बाहर कूड़ा करकट ख़ासकर प्लास्टिक पॉलीथिन आदि इकट्ठाकर उसमें आग लगा देते हैं। आज कल विशेषकर स्वछता अभियान के तहत जब घर घर से कूड़ा इकट्ठा करने का कार्य सरकारी स्तर पर किया जा रहा हो और इस व्यवस्था के बदले नक़द भुगतान भी जनता ही कर रही हो ऐसे में कूड़ा व प्लास्टिक आदि जलाने का ही कोई औचित्य नहीं है। कई बार यह भी देखा गया है कि स्वयं नगर परिषद / निगम के सफ़ाई कर्मचारी ही झाड़ू से एक जगह कूड़ा इकठ्ठा कर उसमें आग लगा देते हैं। कबाड़ का काम करने वाले तमाम लोग रबड़ आदि जलाकर ज़हरीला काला धुआं पैदा करते हैं। इस पर भी नियंत्रण पाना ज़रूरी है। स्टेशन के आस पास बैठे भिखारी तो सर्दियों के अतिरिक्त गर्मी में भी कूड़ा जलाकर प्रदूषण फैलते हैं। गाय-भैंस पालक प्रायः मच्छर भगाने की परंपरा के नाम पर पशुओं के आस पास धुआं करते हैं जिससे पशु भी परेशान होते हैं और आस पास का पूरा क्षेत्र भी प्रदूषित होता है। परन्तु न तो स्वयं इनकी समझ में आता है कि यह इसी स्वर्ग रुपी पृथ्वी को कितना नुक़सान पहुंचा रहे हैं न ही इन्हें कोई समझने वाला है।

अपने आसपास के वातावरण को और अधिक गर्म होने से बचाने के लिये दूसरा उपाय है कम से कम विद्युत् खपत की जाये । विशेषकर गर्मियों में बेतहाशा व अनावश्यक रूप से चलने वाले एयर कंडीशनर्स, वातावरण को सबसे अधिक गर्म करते हैं। बड़े मकानों में तो कई कई ए सी लगाकर अधिक से अधिक बिजली बिल चुकाने व वातावरण को गर्म करने में साझीदार बनने से बेहतर है कि अपने घरों को सेंट्रली एयर कूल्ड करने की व्यवस्था करें। इससे कम बिजली ख़र्च में और पर्यावरण को हानि पहुंचाये बिना हम गर्मी में अपने मकानों को ठण्डा रख सकते हैं।सभी विद्युत्  उपकरण ज़रूरी होने पर ही इस्तेमाल करें। आवश्यकता न हो तो बत्ती पंखे आदि बंद ही रखें। इन बातों को अपनी आदतों में शामिल करना होगा। इसके साथ साथ अपने घरों में अधिक से अधिक पौधे गमलों में लगायें। वृक्षारोपण को अपनी जीवनचर्या में शामिल करें। पार्कों में सड़कों के किनारे,शमशान-क़ब्रिस्तान,धर्मस्थलों जहाँ भी जगह हो अधिक से अधिक वृक्ष लगायें। अपने मकान या ज़मीन पर बड़े फलदार व छायादार वृक्ष लगायें।

धरती पर बढ़ता जल संकट भी बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग का ही परिणाम है। जहाँ हम प्रदूषण नियंत्रित कर व वृक्षारोपण आदि के माध्यम से वातावरण को वर्षानुकूल बनाने में सहायक हो सकते हैं वहीं जल की बर्बादी रोककर भी हम धरती व पर्यावरण के साथ साथ अपनी अगली नस्लों को भी अनुकूल वातावरण देने का प्रयास कर सकते हैं। यदि आप सड़कों गलियों में चलें तो अक्सर टूंटियों से पानी बहता रहता है। जहाँ पानी बहता दिखाई दे उसे तुरंत बंद करें। यदि किसी जगह टूंटी ख़राब है तो सरकारी कर्मचारी की प्रतीक्षा करने के बजाय पास पड़ोस के लोग स्वयं टूंटी का प्रबंध कर जल की बर्बादी को रोकें। तमाम लोग अपने घरों के सामने की सड़कों पर और अपने मकानों की फ़र्श आदि धोने में बेतहाशा पानी बर्बाद करते हैं। रोज़ाना कारें धोते हैं। यह सब अनावश्यक है। हर काम सीमा के भीतर होना चाहिये। और हर एक को यह महसूस करना चाहिये कि जिस जल को वह बहा रहा है वह स्वयं उसके,उसके बच्चों व मानव जीवन के लिये कितना अनिवार्य व उपयोगी है। आज पृथ्वी पर भीषण गर्मी व जल संकट के रूप में जो भी नज़र आ रहा है ज़ाहिर है हम ही उसके ज़िम्मेदार भी हैं। और इस ‘तपती धरती’ व जलसंकट का जो भी ज़िम्मेदार है बचाव के उपाय भी निश्चित तौर पर उसी से दरकार होंगे।