कश्मीर फाइल्स : ऐतिहासिक मोड़

बैजयंत जय पांडा

श्मीर फाइल्स’ फिल्म को देश भर में अभूतपूर्व सफलता मिल रही है और हर गुजरते दिन के साथ यह नए रिकॉर्ड बना रही है। हालांकि, ‘कश्मीर फाइल्स’ जैसी फिल्म की सफलता को केवल बॉक्स ऑफिस नंबरों के आधार पर नहीं आंका जाना चाहिए। किसी भी बड़े अभिनेता की अनुपस्थिति और बॉलीवुड द्वारा कम समर्थन के बावजूद जनता द्वारा फिल्म को अभूतपूर्व रूप से स्वीकार करना इस बात का प्रमाण है कि सामाजिक विषय अभी भी भारत के फिल्म उद्योग में मूल्यवान है। यह फिल्म कई अन्य मामलों में भी अलग रही है। उदाहरण के लिए, कश्मीर पर पूर्व में बनी फिल्मों के विपरीत, यह एकमात्र ऐसी फिल्म है जिसने कश्मीरी पंडितों की जन-संहार और ‘जातीय सफाई’ की दुर्दशा की कड़वी सच्चाई का सामना करने की हिम्मत की है, न कि प्रेम कथाओं के रूप में इसे छुपाया गया है। दूसरा, यह फिल्म भारतीय जनता की चेतना में एक विशेष प्रकार के कुप्रचार को बिठाने की गहरी साजिश के एक हिस्से के रूप में अक्सर बॉलीवुड फिल्मों के माध्यम से घुमाए गए कहानी से अलग है, जो स्वागत योग्य है।

कश्मीरी पंडितों के जन-संहार, मारीचझापी हत्याकांड आदि जैसी घटनाओं को जनता से छिपाने के लिए मीडिया, बॉलीवुड के द्वारा लंबे समय से एक ठोस प्रयास किया गया है और पिछली सरकारें इस अन्याय के पक्षकार रही हैं। कश्मीर फाइल्स ने कश्मीरी पंडितों की संघर्ष भरी कहानी बताने की कोशिश की है, जो घाटी में उग्रवाद और आतंकवाद से तबाह हो गए हैं, इस फिल्म में कठोर तथ्यों के आधार पर और दु:खद पलायन को जन-संहार के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसे जानबूझकर निहित स्वार्थों के कारण मीडिया और पिछली सरकारों के द्वारा शेष भारत से दूर रखा गया था। यह हिंसा के अंतहीन चक्र, अलगाववाद की कहरों, पाकिस्तान द्वारा वित्त पोषित आतंकी संगठनों की घुसपैठ और लोगों के बीच बढ़ते असंतोष और पत्रकारिता के कुप्रचार के बारे में बात करता है। इसमें 5 लाख कश्मीरी पंडितों के न्याय के लिए संघर्ष, यातना और कई वर्षों के इंतजार की पीड़ा को दर्शाया गया है।

फिल्म को मिला अपार प्यार और समर्थन भारत में हो रहे बदलाव के बारे में भी बहुत कुछ कहता है। भारतीय समाज और विशेष रूप से युवा वास्तव में एक परिवर्तनकारी बदलाव के कगार पर हैं, जहां एक फिल्म जो राष्ट्रवाद की भावना के साथ हिंदुओं की दुर्दशा की कहानी दर्शाती है, समाज के सभी वर्गों में सराही और पसंद की गई है। यह एक ऐसे समाज के रूप में हमारे लिए एक महत्वपूर्ण क्षण है जहां हम अधिक से अधिक भारतीयों को चर्चा करते हुए देख रहे हैं और आज हम जिस खतरे का सामना कर रहे हैं उसे स्वीकार कर रहे हैं। 1990 के दशक में कश्मीरी पंडितों को सब कुछ छोड़ना पड़ा, जब कश्मीर “रालिव, गालिव, चालिव” (धर्म बदलो, कश्मीर छोड़ो या मरो) के नारों से गूंज उठा और आज भी भारत के कई हिस्सों में इसके होने की संभावना है। उदाहरण के लिए असम, जिसने भीषण जनसांख्यिकीय परिवर्तन देखे हैं, ने भी खतरे को पहचान लिया है। असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने कश्मीर फाइल्स को देखने के बाद लोगों में जागरूकता पैदा करने का आग्रह किया है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कश्मीरी पंडितों के साथ हुए नरसंहार एवं पलायन को असम में उसके पुराने समुदायों द्वारा दोहराया नहीं जाए।

यह फिल्म इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह ‘कश्मीरियत’ के दोहरे मानकों को उजागर करती है जो कि वर्तमान संदर्भ में कश्मीर घाटी में सांप्रदायिक सद्भाव और धार्मिक समन्वय की सदियों पुरानी स्वदेशी परंपरा है। पिछले दशकों में पश्चिम देशों को जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण रूप से ऐसी जानकारी दी गई है जो कश्मीर में भारत की भूमिका की एक विपरीत तस्वीर प्रस्तुत करती है। यह फिल्म कश्मीर की कहानी, भारत के पक्ष को पेश करने के लिए सॉफ्ट-पावर’ के रूप में हमारी स्थिति को मजबूत करने के साधन के रूप में इस्तेमाल की जा सकती है। परिणाम यह है कि अमेरिका में ‘रोड आइलैंड’ राज्य ने आधिकारिक तौर पर कश्मीरी हिंदू जन-संहार को सदन के अध्यक्ष और प्रतिनिधि सभा के बहुमत और अल्पसंख्यक नेताओं ने स्वीकारा है।

अंत में, यह कहना झूठ नहीं होगा कि कश्मीर फाइल्स ने नवोदित फिल्म निर्माताओं के लिए अवसरों का पिटारा खोल दिया है, जो सामाजिक मुद्दे पर आधारित फिल्में बनाना चाहते हैं और बॉलीवुड में कहानी सुनाने का एक प्रामाणिक राष्ट्रवादी तरीका भी स्थापित करना चाहते हैं। बॉलीवुड को कई दशकों से संवेदनशील और राजनीतिक मुद्दों से दूर रहने के लिए जाना जाता था, जिसके कारण हिंदुओं को कई कारणों से पीड़ित होना पड़ा है, जिसमें अंडरवर्ल्ड फंडिंग के प्रभाव से ‘लेफ्ट लिबरल’ द्वारा इन विषयों का प्रतिरोध तक शामिल हैं। हालांकि, कश्मीर फाइल्स को मिली अपार सफलता के साथ और जैसाकि हम देखते हैं कि बॉलीवुड में बड़े नाम भी धीरे-धीरे फिल्म के समर्थन में आ रहे हैं, उम्मीद है कि बॉलीवुड में एक ऐसा ईको-सिस्टम विकसित होगा जो किसी भी विषय के दूसरे पक्ष को भी प्रस्तुत करेगा।

भारत के बारे में नकारात्मक बातें करने वाले और पंडितों के जनसंहार जैसे घिनौने सच को दबाने की साजिश रचनेवालों की देर से लेकिन उनकी प्रतिक्रिया से संकेत मिलता है कि वे जानते हैं कि देश बदल गया है। यह अब उनके कुप्रचार द्वारा आत्ममुग्धता में डूबने को तैयार नहीं है और इसने हमारे इतिहास के तथ्यों का सामना करने के लिए विवेक विकसित कर लिया है। अब ये वामपंथी इतिहासकारों की जकड़ से मुक्त होना चाहते हैं।

यह बॉलीवुड और पूरे देश के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ है। अब और अधिक दबी हुई सच्चाइयों के सामने आने की आशा है।
 

                                          (लेखक भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं)