क्या भ्रष्टाचार हमारे देश में यथार्थ का रूप ले चुका है ?

     देश की सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई से जब देश के एक 'प्रसिद्धि प्राप्त' टी वी एंकर ने सर्वोच्च न्यायालय  में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर इसकी वास्तविकता जानने के लिये सवाल किया कि- “क्या सुप्रीम कोर्ट में भी भ्रष्टाचार है?” इस पर जस्टिस गोगोई ने बड़े ही दार्शनिक अंदाज़ में इस सवाल का जवाब देते हुये कहा कि -‘भ्रष्टाचार उतना ही पुराना है जितना कि समाज। भ्रष्टाचार जीवन का एक तरीक़ा बन गया है – जीवन का ऐसा तरीका जिसे लोग अब स्वीकार्य करते हैं.” पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने यह भी कहा कि, “जज आसमान से नहीं गिरते हैं। ग़ौर तलब है कि जो 'प्रसिद्धि प्राप्त' टी वी एंकर” जस्टिस गोगोई से सुप्रीम कोर्ट में व्याप्त भ्रष्टाचार पर सवाल पूछ रहा था वह स्वयं भी देश के एक प्रसिद्ध उद्योगपति से रिश्वत मांगने के आरोप में तिहाड़ जेल की यात्रा कर चुका है और उस एंकर पर नज़र रखने वाले लोग अब उसके नाम के साथ 'तिहाड़ी ' लगाकर उसके ' भ्रष्ट कारनामों ' की याद ताज़ा करते रहते हैं। स्वयं जस्टिस गोगोई को भी जिस समय राज्य सभा का सदस्य बनाया गया था उस समय वे भी कई तरह के विवादों से घिरे हुये थे। इससे पूर्व सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज रहे जस्टिस मार्कंडेय काटजू भी देश की न्यायपालिका पर गंभीर टिप्पणी कर चुके हैं। प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया के चेयरमैन पद पर रहते हुये जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने न्यायपालिका में भ्रष्टाचार पर एक बड़ा रहस्योद्घाटन करते हुये यह दावा किया था कि तमिलनाडु के एक ज़िला अदालत के जज पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप होने के बावजूद उसे मद्रास हाई कोर्ट का एडीशनल जज बनाया गया था। यह तो चंद उदाहरण मात्र हैं जिनसे इस बात का केवल संकेत मिलता है कि जिन अदालतों में धर्म ग्रंथों पर हाथ रखकर सच बोलने की क़समें खिलाई जाती हों जिनके फ़ैसले 'परमेश्वर ' के फ़ैसले समझे जाते हों,जिनके फैसलों पर टीका टिपण्णी करना 'तौहीन-ए-अदालत ' समझा जाता हो,उन्हीं अदालतों के बारे में जब स्वयं पूर्व मुख्य न्यायाधीश यह कहने लग जाये कि, भ्रष्टाचार जीवन का एक तरीक़ा बन गया है और “जज आसमान से नहीं गिरते हैं, तो समझ लेना चाहिये कि देश भ्रष्टाचार में आकंठ डूब चुका है।

     कभी कभी टिप्पणीकार लिखते हैं कि पुरुषों की तुलना में महिलाएं कम भ्रष्ट होती हैं। परन्तु जब पूजा सिंघल,नीरा यादव व टीनू जोशी जैसी अनेक महिला प्रशासनिक अधिकारियों के भ्रष्ट एवं काले कारनामों का ज़िक्र आता है तो यह धारणा भी वैसे ही ध्वस्त हो जाती है जैसे कि न्यायपालिका के ईमानदार होने की धारणा। तो क्या सत्ताधीशों द्वारा दिया गया यह नारा कि -'न खाऊंगा न खाने दूंगा ',यह ज़मीनी हक़ीक़त से दूर महज़ एक लोक लुभावन नारा मात्र बन कर रह गया है ? वैसे भी राजनीति और भ्रष्टाचार का तो चोली दामन का साथ माना जाता है। आज तक देश के आम लोग इन सवालों के  संतोषजनक उत्तर नहीं पा सके कि सरपंच के चुनाव से लेकर लोकसभा के चुनावों तक में लाखों और करोड़ों रूपये पानी की तरह बहाने वाले प्रत्याशी किस आस और उम्मीद के साथ और किन स्रोतों से इतने पैसे ख़र्च करते हैं। और यह भी कि चुनावी जीतने से पहले का 'ग़रीबदास' चुनाव जीतते ही अचानक 'अमीर चंद ' कैसे बन जाता है?

     इन शर्मनाक परिस्थितियों में फिर चाहे मोरबी का झूला पुल टूट कर सैकड़ों लोगों की जान लेले,या नए नए हाइवे व चमचमाती सड़कों पर गड्ढे पड़ जायें। सीवर के मेनहोल लीक कर ज़मीन में गड्ढा बना डालें या रेलवे अंडर पास पानी से भर जायें। चाहे 6 क्वेंटल गांजा चूहे खा जायें या बांधों के तटबंध टूट जायें। चाहे एक ईमानदार सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी को टूटी फूटी गड्ढेदार सड़कों के चलते जनता से सार्वजनिक तौर पर मुआफ़ी क्यों न मांगनी पड़ जाये। परन्तु यदि भ्रष्टाचार का बोल बाला है तो कुछ भी संभव है। इस समय पूरे देश में निर्माण कार्य व विकास के नाम पर जो अभूतपूर्व लूट मची है ऐसी पहले कभी नहीं देखी गयी। और प्रायः हर जगह नेता-अधिकारी-ठेकेदार का नेटवर्क दोनों हाथों से देश के लोगों की टैक्स की कमाई लूट रहा है। पर्यावरण संरक्षण के नाम पर भी कई जगह भ्रष्टाचार का नंगा नाच होते देखा जा रहा है। पिछले दिनों मध्य प्रदेश से आई एक ख़बर के अनुसार राज्य सरकार ने जंगल को बढ़ाने के मक़सद से 1600 करोड़ रूपये ख़र्च कर काग़ज़ों पर बीस करोड़ पौधे लगा डाले। बारह वर्षों के अंदर काग़ज़ों पर तो करोड़ों पेड़ ज़रूर लग गये परन्तु वास्तव में इसी दौरान 207 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र का जंगल घट गया। इसतरह के 'जादुई आंकड़े' केवल हमारे ही देश में देखने सुनने को मिल सकते हैं।

      ऐसा लगने लगा है कि जो भारत और यहाँ के सरबराह दुनिया के समक्ष आदर्श गढ़ने की बातें करते रहते हैं,जहां नैतिकता,सात्विकता,धर्म और सेवा,पुण्य-पाप,सत्कर्म,परोपकार आदि की बातें चीख़ चीख़ कर की जाती हों उसी 'भारत महान' में इंसान पैसों के लिये भ्रष्टाचार की सभी सीमाओं को पार करता जा रहा है। धर्म-कर्म-न्याय-राजनीति कोई भी क्षेत्र भ्रष्टाचार से अछूता नहीं रह गया है। इन हालात में इंसानी ज़ेहन में यह सवाल पैदा होना लाज़िमी है कि क्या भ्रष्टाचार हमारे देश में यथार्थ का रूप ले चुका है।