केंद्र की एन डी ए सरकार ने प्रत्येक वर्ष 25 जून को 'संविधान हत्या दिवस' के रूप में मनाने सम्बन्धी अधिसूचना जारी की है। केंद्र सरकार की इस इस अधिसूचना के अनुसार '25 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा की गई थी, उस समय की सरकार ने सत्ता का घोर दुरुपयोग किया था और भारत के लोगों पर ज़्यादतियां और अत्याचार किए लिहाज़ा हर साल 25 जून को देश उन लोगों के महान योगदान को याद करेगा, जिन्होंने 1975 के इमरजेंसी के अमानवीय दर्द को सहन किया था'। केंद्र सरकार द्वारा 25 जून को 'संविधान हत्या दिवस' के रूप में मनाने के फ़ैसले को पूरी तरह राजनैतिक, द्वेषपूर्ण व रक्षात्मक कहना ग़लत नहीं होगा। क्योंकि केवल इंदिरा गांधी ही नहीं बल्कि मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी व राहुल गाँधी जैसे कांग्रेस के सर्वोच्च नेता इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि देश में 1975 में आपातकाल लगाने का फ़ैसला एक ग़लती थी। 12 जून, 1975 को जब इंदिरा गांधी को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रायबरेली में हुए चुनाव के दौरान की गई गड़बड़ी का दोषी पाया और छह साल के लिए पद से बेदख़ल कर दिया था। इलाहबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गाँधी का चुनाव निरस्त करते हुये अगले 6 वर्षों तक उनके चुनाव लड़ने पर भी रोक लगा दी थी। उसके बाद ही जयप्रकाश नारायण द्वारा इंदिरा गाँधी के इस्तीफ़े की मांग को लेकर 'संपूर्ण क्रांति' के नाम से राष्ट्रव्यापी आंदोलन छेड़ दिया गया था और देश भर में प्रदर्शन शुरू हो गए थे। हालांकि 24 जून, 1975 को जब इलाहाबाद हाईकोर्ट का फ़ैसला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो वहां भी इलाहबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले को तो ज़रूर बरक़रार रखा गया परन्तु इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बने रहने की इजाज़त दे दी गई। उसके बावजूद अपना पद खोने के भय से इंदिरा गाँधी ने 25 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा कर डाली। हालाँकि कहा यह जाता है कि पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रॉय ने उस समय आपातकाल की घोषणा के निर्णय में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और आपातकाल का निर्णय दरअसल रॉय का ही निर्णय था। रॉय के फ़ैसले पर ही इंदिरा गांधी ने हामी भरी और उन्हीं की सलाह पर उसे लागू भी किया। पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी अपनी एक किताब में भी लिख चुके हैं कि ‘वास्तव में इंदिरा गांधी ने मुझे बाद में बताया कि उन्हें आपातकाल की घोषणा के लिए संवैधानिक प्रावधानों की जानकारी भी नहीं थी’ ।
अब यदि हम आपातकाल से ठीक पहले यानी 1974-75 के दौर को याद करें तो वह रेल आंदोलन,चक्का जाम,तालाबंदी और राष्ट्र व्यापी धरने, प्रदर्शनों का दौर था। इसी दौरान 2 जनवरी 1975 को रेल मंत्री ललित नारायण मिश्रा की हत्या समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर उस समय कर दी गयी थी जब वे समस्तीपुर- दरभंगा ब्रॉड गेज रेलवे लाइन प्रारम्भ करने की घोषणा सम्बन्धी एक कार्यक्रम में वहां एक मंच पर मौजूद थे। यहां हुये एक शक्तिशाली बम विस्फ़ोट में वे गंभीर रूप से घायल हो गए बाद में अगले दिन दानापुर के रेलवे अस्पताल में उनकी मृत्यु हो गई। कहा जाता है कि महात्मा गांधी की हत्या के बाद देश की किसी सबसे बड़ी राजनैतिक हस्ती की यह दूसरी हत्या थी। इन्हीं विषम परिस्थितियों में 25 जून, 1975 को राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कहने पर भारतीय संविधान की धारा 352 के अधीन आपातकाल की घोषणा कर डाली। आपातकाल के दौरान चुनाव स्थगित हो गए थे तथा नागरिक अधिकारों को समाप्त करके मनमानी की गई थी। और हर छह महीने बाद 1977 तक आपातकाल की अवधि बढ़ाई जाती रही। प्रेस पर सेंसरशिप लग गयी थी। बाद में 18 जनवरी, 1977 को इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग करने और मार्च 77 में ही आम चुनाव कराये जाने की घोषणा करते हुये आपातकाल के दौर में जेलों में बंद किये गये सभी नेताओं को रिहा कर दिया। और 23 मार्च, 1977 को आपातकाल समाप्त करने की घोषणा कर दी गयी।
परन्तु सवाल तो यह है कि 50 वर्ष पूर्व के उस इतिहास को आज और इस समय खंगालने की ज़रुरत भाजपा को क्यों महसूस हुयी ? 2014 से सत्ता में रहते हुये पिछले दस वर्षों में मोदी सरकार ने 25 जून को 'संविधान हत्या दिवस' के रूप में मनाने का फ़ैसला क्यों नहीं लिया ? और एक सवाल यह भी कि यदि देश की जनता आपातकाल से इतना ही दुखी थी और इंदिरा गांधी की तानाशाही से वास्तव में तंग आ चुकी थी तो उसी देश की जनता ने मात्र ढाई वर्ष बाद 1979 में इंदिरा गाँधी को पुनः सत्ता क्यों सौंपी ? जिस दर्द को मुट्ठी भर भुक्तभोगी नेता शायद सिर्फ़ इसलिये याद कर रहे हैं कि 19 महीनों के मीसा काल में उन्हें जेलों में डाल दिया गया, कुछ पर अत्याचार किया गया,उनके निजी स्वतंत्र जीवन के ऐश ो आराम को भांग किया गया, उसी दर्द को देश की जनता ढाई वर्षों में ही कैसे भुला बैठी ? बल्कि 1977 में लोकसभा चुनाव में पराजित होने के केवल एक वर्ष में ही नवंबर, 1978 में इंदिरा इंदिरा गांधी ने चिकमंगलूर लोकसभा उपचुनाव में 77,333 मतों के अंतर से जीत कर अपनी लोकप्रियता का लोहा मनवाया ? तो जब देश की जनता ने कांग्रेस के ऊपर 'आपातकाल का मतलब संविधान की हत्या' का लेबल नहीं चिपकाया तो भाजपा नेता आख़िर किस साज़िश के तहत सत्ता में आने के दस वर्षों बाद 50 वर्ष पुराने उस गड़े मुर्दे को उखाड़ रहे हैं जिसे देश भुला चुका है ?
दरअसल भाजपा इस समय विपक्षी दलों के इंडिया गठबंधन की 'संविधान बचाओ-देश बचाओ ' मुहिम से घबराया हुआ है। उसे यह एहसास हो चुका है कि देश की जनता ने कई भाजपा नेताओं द्वारा सार्वजनिक रूप से बोले जा रहे संविधान विरोधी बयानों को गंभीरता से लिया है और ऐसे कई उम्मीदवारों को पराजित भी किया है। विपक्ष की 'संविधान बचाओ की इसी सफल मुहिम ने भाजपा को 2019 में हासिल 303 सीटों से घटाकर 240 तक पहुंचा दिया है। इसी चुनाव परिणाम ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने तीसरे कार्यकाल में संसद में प्रवेश के पहले ही दिन संविधान को माथे से लगाने का 'प्रदर्शन ' करने पर मजबूर किया। आपातकाल का एक पक्ष यह भी कि उस दौरान देश के सभी सरकारी कार्यालयों में कर्मचारियों की समय पर हाज़िरी हो रही थी। ट्रेनें बसें सब समयानुसार सुचारु रूप से संचालित हो रही थीं। आम जनता को इससे लाभ मिल रहा था। इन सबके बावजूद जब कांग्रेस के सभी आला नेताओं ने आपातकाल के अपने ही फ़ैसले को ग़लत स्वीकार कर लिया फिर इस बहस को तो बंद हो जाना चाहिये ? परन्तु अपने ऊपर लग चुके संविधान विरोधी होने के आरोपों से बचने के लिये भाजपा 25 जून को 'संविधान हत्या दिवस' के रूप में मनाने का फ़ैसला लेने सम्बन्धी अधिसूचना जारी कर व इस पर विमर्श कर केवल गड़े मुर्दे उखाड़ने की कोशिश कर रही है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं, ये आवश्यक नहीं कि भारत वार्ता भी इससे सहमत हो )