पहाड़ों पर विकास यानी प्रकृति विनाश को न्यौता

    स वर्ष ऐन दीपावली (12 नवंबर ) के दिन जब पूरा देश इस पावन पर्व के जश्न में डूबा था,ठीक उसी दिन उत्तराखंड राज्य के उत्तरकाशी ज़िले में यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर निर्माणाधीन सिल्क्यारा नामक एक सुरंग का एक हिस्सा ढह गया। इस हादसे में इस सुरंग निर्माण में लगे 41 श्रमिक बीच सुरंग में ही फंसे रहे। इस सुरंग का निर्माण उत्तराखंड के उत्तरकाशी में 'चार धाम परियोजना' के तहत किया जा रहा है। श्रमिकों को सकुशल व सुरक्षित बाहर निकालने के लिये उच्चस्तरीय बचाव व राहत अभियान युद्धस्तर पर चलाया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी तक ने बचाव कार्य पर अपनी नज़र बनाये रखी। बचाव अभियान में एसडीआरएफ, बीआरओ, परियोजना से जुड़ी एजेंसी एनएचआईडीसीएल,राष्ट्रीय आपदा मोचन बल (एनडीआरएफ), उत्तराखंड राज्य आपदा प्रतिवादन बल, सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) और परियोजना का निर्माण करने वाली राष्ट्रीय राजमार्ग एवं अवसंरचना विकास निगम (एनएचआइडीसीएल) और भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) समेत विभिन्न एजेंसियां शामिल हुईं। एक पखवाड़े से भी अधिक चले इस राहत व बचाव अभियान में कई बार अलग अलग तरह की रुकावटें भी आईं। ड्रिलिंग के समय कई बार धातु रूपी अवरोध आये। यहां तक कि सुरंग बनाने वाली ऑगर मशीन तक ख़राब हो गयी जिसके चलते सुरंग में फंसे 41 श्रमिकों को सुरक्षित बाहर निकालने में दो सप्ताह से भी अधिक का समय लग गया। अंत में हैदराबाद से आई आधुनिक प्लाज़्मा मशीन को सुरंग में ड्रिलिंग के काम पर लगाया गया। बचाव अभियान चलने के अंतिम दिनों में एक पाइप के माध्यम से सुरंग में फंसे श्रमिकों तक ऑक्सीजन, दवाएं और खाने-पीने की चीज़ें पहुंचाई गयीं।

      सिल्क्यारा सुरंग हादसे के बाद एक बार फिर पर्वतीय क्षेत्रों में होने वाले विकास कार्यों तथा इनसे उपजने वाले संकटों पर बहस शुरू हो गयी है। पहाड़ों में सुरंग बनाना ही ज़रूरी है या इसके बिना भी विकास किया जा सकता है,भू वैज्ञानिक पर्यावरण के जानकार यह सवाल फिर पूछने लगे हैं। इस हादसे के बाद हिमाचल प्रदेश जैसे कुछ सुरंग प्रधान राज्यों की सरकारों की भी नींदें खुली हैं। हिमाचल सरकार अब राज्य में निर्माणाधीन सुरंगों का सुरक्षा ऑडिट कराने की तैय्यारी में है। इसके तहत सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण समझा जाने वाले चंडीगढ़-मनाली राजमार्ग के अंतर्गत निर्माणाधीन सुरंगें भी सुरक्षा ऑडिट में शामिल रहेंगी। प्राप्त समाचारों के अनुसार देशभर की लगभग 29 सुरंगों को सुरक्षा ऑडिट के लिये चिन्हित किया गया है। इनमें 12 सुरंगें केवल हिमाचल प्रदेश राज्य में ही हैं। लगभग 79 किमी लंबी इन सभी 12 सुरंगों की तकनीकी जांच भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) और डीएमआरसी अर्थात दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन के विशेषज्ञों द्वारा संयुक्त रूप से की जाएगी। हिमाचल सरकार  यह क़वायद उत्तरकाशी की सिल्क्यारा सुरंग धंसने के बाद ही करने जा रही है।

     सुरंग निर्माण प्रक्रिया को चूँकि मैं ने बहुत क़रीब से देखा है, बल्कि व्यवसायिक रूप से इस प्रक्रिया का हिस्सा भी रहा हूँ इसलिये विकास के नाम पर प्रकृति और पर्यावरण को पहुँचने वाले आघात से भी भली भाँति परिचित हूँ। आइये ऐसा ही एक अनुभव आज यहाँ सांझा करता हूँ। 1980-95 के दौरान हिमाचल प्रदेश में नाथपा झाखड़ी हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट निर्माणाधीन था। इसके लिये प्राकृतिक रूप से अपने मार्ग पर बहने वाली सतलुज नदी की दिशा अस्थाई रूप से बदलनी थी जिसके लिये विभिन्न सुरंगें बनाई जा रही थीं। यह सुरंगें महानगरीय मेट्रो की तरह अगार मशीन से बनने वाली सुरंगें नहीं होतीं। यहां मिटटी के नहीं बल्कि कठोर से कठोर क़िस्म के पत्थरों के पहाड़ों में सुरंग बनाई जाती है। इसके लिये पत्थर के इन पहाड़ों के गर्भ में 15-20 फ़ुट के इस्पात के कई रॉड हाइड्रोलिक ड्रिल के द्वारा एक साथ अर्धाकार क्षेत्र में पहाड़ की छाती में डाल दिये जाते हैं। फिर इन्हें बाहर निकाल कर इनके द्वारा ख़ाली की गयी जगहों में विस्फ़ोटक भर दिया जाता है। उसके बाद सभी रॉड के विफ़ोटक भरे सुराख़ों को तारों के द्वारा एक दूसरे से जोड़ दिया जाता है। उसके बाद निर्माणाधीन सुरंग में मौजूद सभी कर्मर्चारियों को सुरंग से बाहर आने का निर्देश दिया जाता है।

     उधर इसी निर्माणाधीन सुरंग के ऊपरी भाग से गुज़रने वाले मार्ग पर भी यातायात बंद कर दिया जाता है। सब कुछ सुनिश्चित करने के बाद रिमोट कंट्रोल द्वारा अधिकृत अधिकारी ब्लास्ट कर देता है। आप विश्वास कीजिये जिस समय यह विस्फ़ोट होता है उस समय कई किलोमीटर के इलाक़े में पहाड़ भूकंप की तरह कांपते हैं। ब्लास्ट की आवाज़ ऐसे प्रतीत होती है जैसे आसमान में भयंकर बम बलास्ट हुआ हो। और कई सेकेंड तक इस आवाज़ की ध्वनि-प्रतिध्वनि वातावरण में गूंजती रहती है। इस तरह के अनगिनत विस्फ़ोटों का सामना करने वाले इसी हिमाचल प्रदेश ने पिछले दिनों वर्षा ऋतु में तबाही के वह दृश्य देखे जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। जगह जगह भूस्खलन,बाढ़,बादल फटने,पुल टूटने, इमारतों के बहने व ढहने तथा जंगल के जंगल बह जाने जैसे दृश्य देखे गये। उत्तराखंड में भी जोशीमठ व कई अन्य इलाक़ों में न केवल भूस्खलन और बाढ़ आदि के मंज़र देखे गये बल्कि पहाड़ों के खिसकने उनमें दरार पड़ने की भी ख़बरें आईं। सैकड़ों लोगों के घरों में बड़ी बड़ी दरारें पड़ गयीं। तमाम लोग दहशत के चलते घर छोड़ने को मजबूर हुए। 

    और इस तरह की सभी ख़बरों के बाद हर बार यह बहस छिड़ी कि विकास के नाम पर पहाड़ों में सुरंगें बनाना या पहाड़ काट कर रास्ते चौड़े करना मुनासिब है भी या नहीं ? क्या सुरंग बनाये बिना चाइनीज़ तकनीक से पहाड़ों की खाइयों में ऊँचे से ऊँचे खम्बों को आधार बनाकर उनपर सड़क या रेल मार्ग नहीं बिछाया जा सकता ? सुरंगें बनाना और पहाड़ काट कर सड़कें चौड़ी करने का जो पारम्परिक तरीक़ा हमारे देश में अपनाया जाता है वह न केवल पर्यावरण के लिये हानिकारक है बल्कि इससे जान व माल की क्षति की भी पूरी संभावना बनी रहती है। कहना ग़लत नहीं होगा कि इंसान विकास के नाम पर स्वयं अपनी ही तबाही की पटकथा स्वयं लिख रहा है। कहीं बेतहाशा भू जल दोहन कर,कहीं अंधाधुंध पेड़ों की कटाई कर,कहीं धुंआ व प्रदूषण फैला कर ,कहीं प्लास्टिक व पॉलीथिन का अत्याधिक प्रयोग कर, कहीं सुरंगें बनाकर तो कहीं पहाड़ काट कर मनुष्य अपनी 'कथित विकास गाथायें' लिख रहा है। परन्तु सच तो यह है कि ख़ास तौर पर पहाड़ों पर होने वाला 'विध्वंसात्मक विकास', विकास नहीं बल्कि यह प्रकृति के विनाश को न्यौता दिया जाना है।