दास्तान-ए-सफ़र-ए-ग़रीब रथ

     देश की अनेक तीव्रगामी रेल गाड़ियों से तो प्रायः यात्रा करने का अवसर मिलता रहा मगर इत्तेफ़ाक़ से ग़रीब रथ नामक बहुचर्चित ट्रेन से यात्रा करने का अवसर कभी नहीं मिला था। परन्तु पिछले दिनों यह अरमान भी उस समय पूरा हो गया जबकि एक क़रीबी रिश्तेदार के देहांत के सिलसिले में अचानक ग़रीब रथ से ही मुज़फ़्फ़रपुर जाने व इसी ट्रेन से वापसी का भी अवसर मिला। भारतीय रेल द्वारा 2006 में गरीब रथ एक्सप्रेस शृंखला की शुरुआत की गयी थी। तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने ग़रीब रथ एक्सप्रेस जैसी कम किराये वाली तथा तीव्रगामी वातानुकूलित रेलगाड़ियों की शुरुआत इसी उद्देश्य से की थी ताकि साधारण  लोग भी वातानुकूलित गाड़ियों में यात्रा कर सकें। इस ट्रेन के थ्री ए सी कोच में साइड में भी मिडिल की ही तरह तीन बर्थ लगाई गयी हैं। निश्चित रूप से किराया व स्टॉपेज कम और रफ़्तार अधिक होने की वजह से यह ट्रेन साधारण लोगों की पसंदीदा ट्रेन बन चुकी है। परन्तु इस ग़रीब रथ एक्सप्रेस में पहली बार यात्रा करने का मेरा जो निजी व कटु अनुभव रहा उसे भी साँझा करना ज़रूरी है।

      गत 20 जून को अमृतसर से सहरसा जाने वाली  12204 ग़रीब रथ से मुज़फ़्फ़रपुर जाने हेतु ए सी थ्री के कोच नं G 11 में (डिब्बा संख्या 084905 ) मेरा आरक्षण था। पूरी ट्रेन बिहार के प्रवासी कामगारों से भरी थी। अधिकांश यात्रियों के  पास अत्यधिक सामान होने के कारण कोच पूरी तरह अव्यवस्थित था। इसके अलावा लगभग हर कोच में प्रवेश द्वार के पास अनेक ऐसे यात्री भी रास्ते में बैठे थे जिनका आरक्षण नहीं था। ऐसे यात्री पूरी रात कोच के भीतर ख़ाली बर्थ की तलाश में या किसी दूसरे की सीट पर लटककर बैठने की फ़िराक़ में बार बार इधर से उधर आ जा  रहे थे। इसकी वजह से अन्य यात्री न केवल असहज व विचलित हो रहे थे बल्कि उनमें असुरक्षा की भावना भी थी। परन्तु इन्हें रोकने टोकने वाला कोई भी नहीं था। दरवाज़े के पास सारी रात बैठे ऐसे ही एक दो यात्रियों से बात करने पर पता चला कि टिकट निरीक्षक को बिना रसीद का 'सेवा शुल्क ' देने के बाद उसी ने इन यात्रियों को किसी भी कोच में यात्रा करने की छूट दी है।

      बहरहाल लगभग तीन घंटे देरी से चल रही उपरोक्त ट्रेन मध्यरात्रि के बाद जब गोरखपुर पहुंची तो इसी G 11 में (कोच संख्या 084905 ) में एक संदिग्ध व्यक्ति घुसा और मेरी ही दस नंबर की साइड लोवर बर्थ पर क़ब्ज़ा जमा कर लेट गया। उस समय मैं वाशरूम गई थी। गोरखपुर से छपरा के बीच वह व्यक्ति चाय बेचने वालों से चाय मांग कर तो पीता परन्तु जब वे पैसे मांगते तो कोई जवाब न देता। आख़िरकार थक कर वेंडर्स उसे बुरा भला कहकर चले जाते। जब मैंने उससे अपनी बर्थ छोड़ने के लिये कहा तो वह ख़ामोश रहा। बहुत कहने पर भी कुछ न बोला। थोड़ी ही देर बाद उसी बर्थ से बुरी दुर्गन्ध आनी शुरू हुई। पूरा कोच भीषण दुर्गन्ध से विचलित हो उठा। गोरखपुर से छपरा तक रात दो तीन चार बजे के दौरान चलती ट्रेन में यह ड्रामा चलता रहा। न वह टिकट निरीक्षक के कहने से उठे न ही बेडरोल वितरित करने वाले स्टाफ़ के कहने से न ही मेरे या किसी अन्य यात्री के कहने से। आख़िरकार उसपर पानी छिड़ककर जब उसे छपरा में उतारा गया तो देखा गया कि उसने बर्थ पर ही ढेर सारा शौच कर दिया है जो दुर्गन्ध फैला रहा था। वह व्यक्ति अर्धनग्न भी था। बहरहाल उसे छपरा स्टेशन पर कोच से बाहर उतारने में कई यात्रियों के साथ साथ टी सी,व बेडरोल स्टाफ़ को भी काफ़ी मशक़्क़त करनी पड़ी। उसके नीचे उतरने के बाद सवाल आया कि उस बर्थ को कौन और कैसे साफ़ करे ? ट्रेन फिर छपरा से भी चल पड़ी। मैंने जब टी सी पर यह कहकर दबाव बनाने की कोशिश की कि आपकी ड्यूटी के दौरान यदि कोई अवांछित व्यक्ति कोच में प्रवेश करता है और यहाँ तक कि किसी दूसरे यात्री की बर्थ पर शौच तक कर देता है तो यह आपकी ही ज़िम्मेदारी है। लिहाज़ा आप ही इसे तत्काल साफ़ करवाने का भी प्रबंध करें। अन्यथा यह घटना समाचारपत्रों में भी सचित्र प्रकाशित होगी।

     उसके बाद टी सी साहब ने बेडरोल कर्मियों से साफ़ करने को कहा। उन्होंने यह कहकर मन कर दिया कि यह मेरी ड्यूटी नहीं। फिर वह किसी सफ़ाई कर्मचारी को लाये। वह भी गंदगी देखकर स्वभाविक रूप से विचलित हो गया। उसे मैंने 'एडवांस बख़्शीश' के रूप में सौ रूपये दिये। तब जाकर उसने मन लगाकर सफ़ाई की। उसने अपनी सुविधा के लिये उसी बर्थ की खिड़की पर लटके उन दोनों पर्दों को ही शौच साफ़ करने के लिये उतारा जो पहले ही शौच से सना पड़ा था। उसके बाद ज़मीन पर पोछा लगाने के लिये उस सफ़ाई कर्मी ने उसी सफ़ेद चादर का इस्तेमाल किया जो यात्रियों को ओढ़ने बिछाने के लिये दी जाती है। पूरे कोच के यात्रियों की पूरी रात दुर्गन्धमय व असहज वातावरण में गुज़री। मुझे भी किसी अन्य बर्थ पर किनारे बैठ कर बहुत मुश्किल से रात गुज़ारनी पड़ी। इस घटनाक्रम में यात्रियों को हुई भारी असुविधा का ज़िम्मेदार कौन है ? क्या यह टिकट निरीक्षक की ज़िम्मेदारी नहीं कि वह किसी अवांछित व अनिधकृत व्यक्ति को कोच में प्रवेश न करने दे ? क्या रेलवे को इसकी ज़िम्मेदारी नहीं लेनी चाहिये ?

     21 जनवरी को अपना कार्य करने के बाद मुझे 22 जनवरी को ही इसी ग़रीब रथ 12203  से मुज़फ़्फ़रपुर से वापस भी आना था। इस बार तो इस ट्रेन में एक नया तमाशा देखने को मिला। एक ही बर्थ का टिकट लिये कई कई यात्री घूम रहे थे। सभी का दावा कि यह बर्थ उनकी है। परन्तु ग़रीब रथ के नियमित यात्रियों ने बताया कि टिकट होने से कुछ नहीं होता जब तक आपके मोबाईल में टिकट कन्फर्मेशन   का मैसेज न आया हो। उसके बाद एक युवा यात्री जिसने अपना नाम अखिलेश बताया वह संदिग्ध अवस्था में बिना किसी सामन के मेरी ही बर्थ के सामने लेटा दिखाई दिया। जब उससे मैंने उसकी बर्थ का नंबर पूछा तो उसने क़रीब 1355 रूपये के भुगतान की एक मैनुअल रसीद दिखते हुये कहा कि टी सी साहब ने 1350 रूपये लेकर कहा है कि जहाँ चाहो लेट जाओ। मैंने पूछा कि इस बर्थ पर कोई आ गया तो क्या करोगे ? वह बोला किसी दूसरी फिर तीसरी बर्थ पर चला जाऊँगा। अब यह व्यक्ति भी संदिग्ध था। जिसने सारी रात इधर उधर लेट कर तो कभी खड़े होकर बिताई।और मेरे जैसे कई यात्री इसकी गतिविधियों के चलते सो नहीं सके।

     सवाल यह है कि क्या सरकार व बुलेट ट्रेन की सवारी करने जा रहा रेल मंत्रालय ग़रीब रथ के यात्रियों को भेड़ बकरियों की तरह समझता है ? गंदे व ज़मीन पर पड़े बेड  रोल,अव्यवस्था,भरपूर गंदिगी, बेरोकटोक किसी को भी किसी भी कोच में घुसने की छूट,यहाँ तक कि बिना टिकट यात्रा के साथ बर्थ पर ही शौच करने की "सुविधा " शायद किसी अन्य ट्रेन में न हो। कम से कम मेरी दास्तान-ए-सफ़र-ए-ग़रीब रथ तो यही है।