उल्टी समझ को शीर्षासन

जातिवाद का जहर भारत की नस-नस में फैल चुका है। अगर कोई इससे लड़ना चाहे तो वह उसे ही लील जाने की कोशिश करता है। अभी-अभी अहमदाबाद के एक संस्थान का ऐसा ही मामला सामने आया है। जेसुइट ईसाइयों की एक संस्था में शौचालयों की सफाई के लिए एक कर्मचारी की जरुरत थी। उसके निदेशक ने विज्ञापन जारी किया। उन्होंने विज्ञापन में लिखा कि ऐसे व्यक्ति को प्राथमिकता दी जाएगी, जो जन्म से ब्राह्मण, राजपूत, वैश्य या पटेल हो। यदि वह मुसलमान हो तो सैय्यद और पठान को तथा ईसाइयों में सीरियन ईसाई को और पारसी और जैन को पसंद किया जाएगा।

जाहिर है कि ऐसा विज्ञापन पढ़कर ऊंची जातियों के कुछ लोगों का खून खौल गया होगा। उनमें से किसी का आवेदन आना तो दूर रहा, तीन-चार राजपूत जवान उस संस्था के दफ्तर पहुंच गए और उन्होंने कहा कि तुमने क्या समझ रखा है? क्या हम भंगी हैं? हम तुम्हारा मैला साफ करेंगे? यही काम तुम क्या पादरियों और मौलानाओं से करवा सकते हो?

जवाब में निदेशक ने कहा कि मेरा नाम प्रसाद चाको है। ईसाई बनने के पहले हम ब्राह्मण ही थे। हमें तो इसमें कोई एतराज नहीं है और मौलानाओं और पादरियों को भी कोई एतराज क्यों होना चाहिए? देश की फौज में सभी जातियों के लोग हैं। रक्षा के काम का ठेका सिर्फ राजपूतों का ही नहीं है। इस बात पर हंगामा हो गया। प्रदर्शन हो गए। पुलिस बुलानी पड़ी।

मेरी राय यह है कि जन्मना जाति जितनी जल्दी खत्म हो, उतना अच्छा! शास्त्रों में भी कहा है कि सभी मनुष्य जन्म से शूद्र होते हैं। संस्कार से वे ब्राह्मण बनते हैं (जन्मना जायते शूद्रः, संस्कारात द्विजर्उच्यते)। यदि तथाकथित ऊंची जातियों में पैदा होने वाले लोग शारीरिक श्रम के काम करें तो बौद्धिक और शारीरिक श्रम का भेद घट सकता है। अब से लगभग 45-50 साल पहले जब मैं मास्को में पढ़ता था तो मैंने देखा कि मेरे प्रोफेसरों और ठंड की रातों में सड़कों से बर्फ खींचने वाली औरतों की तनखा लगभग एक-जैसी होती थी। उनमें सामाजिक भेदभाव नहीं के बराबर था।

न्यूयार्क में मैंने देखा कि बड़े-बड़े विद्वान, करोड़पति, फिल्मी सितारे और नेता लोग भी अपने शौचालय खुद साफ करते हैं। उन्हें कोई झिझक नहीं होती। गांधीजी तो दूसरों का शौच भी खुद साफ करते थे। सफाई में बुराई क्या है? यह तो पवित्र कार्य है। इसकी मजदूरी भी काफी उंची हो सकती है, बशर्ते कि इसे भी हम ऊंचा काम समझें। यह शर्म की बात है कि मेहनत के सभी कामों को हम घटिया समझते हैं और उन्हें कुछ जातियों के लिए आरक्षित कर दिया गया है। इन जातियों को भी हम घटिया मानने लगे हैं। अहमदाबाद के जेसुइटों ने हमारी इस उल्टी समझ को शीर्षासन करवा दिया है।