सुलगी हुई घाटी की नई आफत

दिन ढलने को था, आसमान से श्वेत कबुतर अपने आशियानों की तरफ लौटने ही वाले थे, कहवा ठण्डा होने जा रहा था, पत्थरबाजों के हौसले परवान पर थे, अलगाववाद और चरमपंथ अपनी उधेड़बुन में बूमरो गुनगुना रहा था, चश्म-ए-शाही का मीठा पानी भी कुछ कम होकर एक शान्त स्वर झलका रहा था, इसी बीच दिल्ली के भाजपा कार्यालय में कश्मीरी भाजपा के विधायकों और मंत्रीयों का एक खास बैठक से उपजा फैसला जिसने तीन साल के संबंध को दरकिनार कर महबूबा मुफ्ती का साथ तोड़ना स्वीकारा, और राम माधव ने घोषणा कर ही दी कि पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी को भारतीय जनता पार्टी अब समर्थन नहीं देगी। सरकार गीर गई, महबूबा मुफ्ती ने इस्तीफा भी भेज दिया।

पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की नेता और जम्मू कश्मीर की पहली महिला मुख्यमंत्री रहीं महबूबा मुफ़्ती ने गठबंधन तोड़ने के लिए बीजेपी की ये कहते हुए आलोचना की है कि राज्य में सख़्ती की नीति नहीं चल सकती। और जम्मू कश्मीर के लिए बीजेपी के प्रभारी राममाधव ने दिल्ली में एक संवाददाता सम्मेलन में गठबंधन से अलग होने की वजह बताते हुए कहा, ''हमने तीन साल पहले जो सरकार बनाई थी, जिन उद्देश्यों को लेकर बनाई थी, उनकी पूर्ति की दिशा में हम कितने सफल हो पा रहे हैं, उस पर विस्तृत चर्चा हुई।''

उन्होंने कहा कि, ''पिछले दिनों जम्मू कश्मीर में जो घटनाएं हुई हैं, उन पर संज्ञान लेने के बाद प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह से परामर्श लेने के बाद आज हमने निर्णय लिया है कि गठबंधन सरकार में चलना संभव नहीं होगा।''

राममाधव का कहना था, ''पिछले तीन साल से ज़्यादा समय में बीजेपी अपनी तरफ़ से सरकार अच्छे से चलाने की कोशिश कर रही थी, राज्य के तीनों प्रमुख हिस्सों में विकास को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रही थी। आज जो हालात राज्य में बने हैं, जिसमें एक भारी मात्रा में आतंकवाद और हिंसा बढ़ गई। उग्रवाद बढ़ रहा है, नागरिकों के मौलिक अधिकार और बोलने की आज़ादी ख़तरे में पड़ गए हैं।''

खैर जितने मुहँ-उतनी बातें, परन्तु इन सबके बीच सवाल वहीं खड़े है कि आखिर तीन वर्षों तक क्यों, कैसे, किन तथाकथित कारणों के कारण या केवल राष्ट्रपति चुनाव के कारण यह गठबंधन बना रहा? या फिर राष्ट्रपति शासन के बहाने मार्शल लॉ की सख्ती और सेना को दिए जाने वाले अधिकारों के रास्तें 2019 के लोकसभा चुनाव की राह तैयार की जा रही है। वैसे भी घाटी के हालात बैकाबू तो हो ही गए थे, पत्थरबाजों पर नकैल न कस पाने से राज्य की राजनैतिक तासीर संदेह के घेरे में थी, साथ ही देश की जनता के दिल में भी कश्मीर और भाजपा के प्रति नफरत का बीजारोपण हो रहा था, क्योंकि आप सत्ता में थे,और उम्मीद सत्तापक्ष से ही होती है।

 

कश्मीर में गठबंधन टूटने के कारणों में शुमार है संघर्षविराम

केंद्र सरकार ने गठबंधन टूटने के दो दिन पहले ही जम्मू कश्मीर में घोषित एकतरफा संघर्षविराम को और आगे नहीं बढ़ाने का फ़ैसला किया था, यह संघर्षविराम रमज़ान के महीने के दौरान राज्य में 16 मई को घोषित किया गया था। गृह मंत्रालय ने कहा कि चरमपंथियों के ख़िलाफ़ फिर से अभियान शुरू किया जाएगा। यह घोषणा ईद के एक दिन बाद की गई थी। संघर्षविराम चाहने वाली पीडीपी और भाजपा में इस बात को लेकर भी ठनी हुई थी कि क़्या सेना उन पत्थरबाजों से बढ़कर है? यही बात पीडीपी को हजम नहीं हुई और तकरार हो ही गई।

कारण तो धारा 370 भी हो सकती है

पीडीपी नेत्री महबूबा ने श्रीनगर में कहा कि, ''हमने ये सोचकर बीजेपी के साथ गठबंधन किया था कि बीजेपी एक बड़ी पार्टी है, केंद्र में सरकार है। हम इसके ज़रिए जम्मू कश्मीर के लोगों के साथ संवाद और पाकिस्तान के साथ अच्छे संबंध चाहते थे, उस समय अनुच्छेद 370 को लेकर घाटी के लोगों के मन में संदेह थे लेकिन फिर भी हमने गठबंधन किया था ताकि संवाद और मेलजोल जारी रहे।'' अघोषित रूप से तो भाजपा का धारा 370 को लेकर कुछ तो रुख रहा ही होगा, जिसके कारण ये जिक्र भी आया कि धारा 370 को हटाने का दबाव भी है।

घाटी का रक्तरंजित होकर बेकाबू होना भी जिम्मेदार

विगत कई महीनों से कश्मीर में पत्थरबाजों की सक्रियता और एक ही तरह की नारेबाजी, 'कश्मीर मांगे-आज़ादी', 'हमें सेना से मुक्ति दो' और 'कश्मीर बनेगा अलग देश' इन सबके कारण भी हालात बेकाबू होते ही जा रहें थे, और पीस रहे थे निर्दोष लोग।

बहरहाल चिन्ता इस बात की है कि अब क्या होगा? क्या कांग्रेस, नेशनल कांफ्रेंस व निर्दलीय विधायकों के साथ मिलकर सरकार बनाएंगी, या राष्ट्रपति शासन की आड़ में सेना को मिलेंगे खुले अधिकार जो घाटी के लिए भयावह भी हो सकते है, क्योंकि पत्थरबाजों पर नकेल कँसना तो आवश्यक है ही, पर भोली जनता न बीच में उलझ जाए, इसबात का ख्याल रहें।

वैसे कर चुकी है नेशनल कांफ्रेंस अपना रुख साफ

नेशनल कांफ्रेंस ने जम्मू कश्मीर की सियासी हलचल पर सधी हई प्रतिक्रिया देते हुए राज्यपाल शासन को फ़िलहाल एकमात्र विकल्प बताया है। पार्टी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने श्रीनगर में कहा कि, ''नेशनल कांफ्रेंस को 2014 में सरकार बनाने का जनादेश नहीं मिला था, आज 2018 में भी सरकार बनाने का जनादेश नहीं है। हम किसी और तंजीम के साथ सरकार बनाने की कोशिश नहीं कर रहे हैं।''

उन्होंने कहा, ''न हमने किसी से संपर्क किया है न किसी ने हमसे संपर्क किया है। राज्यपाल के पास राज्यपाल शासन लगाने के सिवा कोई चारा नहीं है। हालात आहिस्ता आहिस्ता दुरुस्त करना होगा। इसके लिए हम राज्यपाल का पूरा समर्थन करेंगे, लेकिन राज्यपाल शासन ज़्यादा देर नहीं रहना चाहिए। हम चाहेंगे राज्य में नए सिरे से जल्द से जल्द चुनाव हो। उन्होंने ये कहा कि 'बेहतर होता कि गठबंधन तोड़ने का फ़ैसला महबूबा मुफ़्ती लेतीं।'

डॉ शुजात बुखारी की हत्या भी वजह

राममाधव ने पीडीपी से गठबंधन तोड़ने की तमाम वजहें गिनाते हुए वरिष्ठ पत्रकार शुजात बुख़ारी की गोली मारकर हत्या किए जाने का भी जिक्र किया। चुकी शुजात बुखारी की हत्या इसलिए बड़ी मानी जा सकती है, क्योंकि बुखारी एक अन्तराष्ट्रीय दर्जे के बेहद सुलझे हुए पत्रकार होने से साथ-साथ कई सरकारों के अघोषित सलाहकार भी थे। इन सब तमाम वजहों के बाद भी गठबंधन का टूटना घाटी के लिए एक नई आफत तो जरूर ले आया है, जिसमें राष्ट्रपति शासन के बाद पत्थरबाजों को बख्शा नहीं जाएगा, यह साफ तौर पर दिख रहा है, क्योंकि कश्मीर के रास्तें हिन्दुस्तान में देशप्रेम और मानवीय संवेदनाएं तो जरूर बटौरी जा सकती है।

सेना भी कस सकेगी पत्थरबाजों पर नकेल

घाटी के हालात बद से बदतर होते जा रहे है, पत्थरबाजों से निर्दोष परेशान है, सेना पर हमले तो जगजाहिर है ही, इन सबके बीच साल 2014 का थाईलेंड याद आता है, जिसमें थाई सेना ने कई महीनों की राजनीतिक अस्थिरता के बाद मार्शल लॉ लगा दिया था। राजधानी में सैनिक तैनात थे, जिन्हें बहुत सी शक्तियां दे दी गई थी, मगर सेना ने ज़ोर देकर कहा था कि यह तख्तापलट नहीं है।

थाई सेना के कमांडर जनरल प्रयूथ चान ओचा ने कहा था कि ‘हथियारों का इस्तेमाल करके नागरिकों को ख़तरे में डाल रहे दुर्भावनापूर्ण संगठनों’ की मौजूदगी की वजह से मार्शल लॉ लागू किया गया है।

मगर देश में राजनीतिक उठापटक कई महीनों से जारी थी, सरकार विरोधी आंदोलनकारी बहुत समय से कैबिनेट को हटाने की धमकी दे रहे थे। थाईलैंड की सेना ने पिछले कुछ दशकों में कई बार तख्तापलट किए हैं– 1932 में पूर्ण राजशाही के ख़ात्मे के बाद से अब तक 11 बार ऐसा हो चुका है।ताज़ा तख़्तापलट 2006 में हुआ था, जब प्रधानमंत्री थाकसिन चिनावाट को भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद सेना ने पद से हटा दिया था।

इन सबके अतिरिक्त भारत का कानून कुछ अलग ही कहता है। भारत में फौजी कानून संबंधी उल्लेख केवल 34वीं धारा में है, जो किसी विशेष क्षेत्र में फौजी कानून उठा लिए जाने के बाद क्षतिपूर्ति अधिनियम (ऐक्ट आब इंडेम्निटी) की व्यवस्था करती है। किंतु फौजी कानून से मिलता जुलता ही धारा 359 (1) के अंतर्गत राष्ट्रपति का वह अधिकार होता है जिससे वह धारा 21 और 22 के अंतर्गत अधिकारों का न्यायिक निष्पादन स्थगित कर दे सकता है। यह समझा जाता है कि यह मूलत: फौजी कानून का ही रूप है, किंतु प्रतीत होता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इसे विवाद के लिए छोड़ दिया है (ए आइ आर 1964) जो हो, इस संबंध में कोई भी मत अपनाया जाए, संविधान की धारा 352 के अंतर्गत संकटकाल की घोषणा का मौलिक अधिकारों पर प्रभाव न्यूनाधिक मात्रा में फौजी कानून जैसा ही है।

इस प्रकार धारा 358 के अंतर्गत जब तक संकटकालीन स्थिति कायम रहती है, कार्यपालिका को धारा 19 की व्यवस्थाओं के उल्लंघन का अधिकार रहता है। राष्ट्रपति द्वारा धारा 359 (1) के अंतर्गत संकटकालीन अवधि तक या आदेश में उल्लिखित अवधि तक के लिए दूसरे मौलिक अधिकार भी स्थगित किए जा सकते हैं।

राष्ट्रपति के अधिकार पर केवल इतना ही नियंत्रण होता है कि संकटकाल की घोषणा स्वीकृति के लिए संसद के समक्ष प्रस्तुत की जानी चाहिए। इस घोषणा को संसद के समक्ष प्रस्तुत करने की कोई निश्चित अवधि नहीं होती और न प्रस्तुत किए जाने पर किसी प्रकार का दंड का प्राविधान ही है, किंतु घोषणा के प्रसारित होने के दो मास पश्चात् वह स्वत: समाप्त हो जाती है। एक घोषणा के समाप्त होने पर फिर दूसरी घोषणा जारी करने में राष्ट्रपति पर कोई प्रतिबंध नहीं है। धारा 359 (1) के अंतर्गत जारी किया गया राष्ट्रपति का आदेश संसद के समक्ष यथाशीघ्र प्रस्तुत होना चाहिए। इस प्रस्तुतीकरण के समय का निर्णय करना कार्यपालिका पर छोड़ दिया गया है क्योंकि यदि राष्ट्रपति का आदेश संसद के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया जाता तो भी इसका प्रभाव कम नहीं होता और न ही प्रस्तुत करने के अभाव में कोई वैधानिक कार्रवाई की व्यवस्था है।

इस कानून व्यवस्था का हवाला देकर कश्मीर में सेना को स्वतंत्रता दी जा सकती है, जिसके आलोक में सेना कश्मीर में हालात काबू कर सकने में कामयाब रहें।

जिस तरह से पूर्व प्रधानमंत्री स्व: इंदिरा गांधी ने भीन्डेरवाला और खालिस्तान आन्दोलन पर काबू किया था, वही रुख प्रधानमंत्री मोदी अपना कर कश्मीर पर काबू पा ले, या ये भी हो सकता है कि सेना से हवाले से हालातों पर नियंत्रण किया जाए। बात जो भी हो पर दोनों ही स्थिति में कश्मीर को तैयार रहना होगा, भुगतान के लिए। क्योंकि बेलगाम पत्थरबाजों पर नकेल कसना अब अत्यंत आवश्यक है वर्ना देश की सुरक्षा व्यवस्था खतरें में है।

    साथ ही घाटी में आतंकवाद चरम पर पहुँच जाए तो घाटी भी बारुद के ढेर पर ही बैठी है। इन हालातों पर काबू पाना भी जरूरी है पर स्थानीय निर्दोष नागरिकों के बचाव के साथ, वर्ना बेवजह ही घाटी रक्तरंजित हो उठेगी। एक गठबंधन का टूटना, कई तरह की शंकाओं को आमंत्रित कर चुका हैं, जिनमें सेना का उग्र होना और पत्थरबाजों के मुखर स्वर के साथ-साथ कश्मीर में सैन्य शासन जैसे हालात भी पैदा करना शामिल है ।

अगले ही वर्ष लोकसभा चुनाव भी है तो यह भी हो सकता है कि 6 माह का राष्ट्रपति शासन हो जाए और लोकसभा से साथ ही विधानसभा चुनाव भी करवाएं जाए, या फिर नए यौद्धाओं के साथ बीजेपी या पीडीपी नई सरकार बना ले। परिणाम जो भी हो पर भुगतान अंतत: घाटी को ही करना है,कई तरह की मुसीबतों की आमंत्रण पत्रिका के तौर पर इस गठबंधन टूटने को जरूर माना जाएगा।