स्त्री का दरकता दर्जा

इतिहास गवाह है कि स्त्रियों के साथ हमेशा से दोयम दर्जे का व्यवहार ही होता आया है फिर बात चाहे सीता की हो या द्रोपदी की या आधुनिक युग की कर्मशील प्रगतिशील उच्च पदों पर आसीन महिलाओं की हो। फिर चाहे ये क्षेत्र राजनीतिक, शासकीय या अशासकीय ही क्यों न हो। घर से लेकर बाहरी कार्यक्षेत्र तक कही न कही उसे कमतर या दोयम दर्जे के व्यवहार से सामना करना ही होता है।

ऐसे ही दो उदाहरण हाल ही संसद में नजर आये और दोनों में ही पुरूषों को मुंह की खानी पड़ी इसे पुरूषों का अहम कहा जाए या नासमझी। एक पूर्व तो एक वर्तमान गृहमंत्री माफी ही मांगते नजर आये पहले प्रकरण में लालकृष्ण आडवानी ने एक बहस के मुद्दे से हट यू. पी. ए. सरकार को ही नाजायज कह डाला फिर क्या यू. पी. ए. चेयर पर्सन सोनिया गांधी भयंकर गुस्सा हुई। नतीजन जैसे ही आड़वानी को अपनी गलती का एहसास हुआ तुरन्त अपने शब्दों को संसद में वापस लिया।

दूसरे प्रकरण में असम मुद्दे पर जानकारी मांगने पर सपा सांसद जया बच्चन सुशील कुमार शिंदे ने यह कहते हुए चुप कराने की कोशिश की गई कि यह कोई फिल्मी मुद्दा नहीं है। जया के तीव्र विरोध के सामने संसद में गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे को माफी मांगना पड़ी।

नदी अपने तटों की सीमा में बहे तो जीवन दायनी होती है। लेकिन तटों को तोड़ते ही सिर्फ ओैर सिर्फ विनाशलीला ही करती है। ऐसा ही कुछ गृहस्थ जीवन में भी होता है। गृहस्थ जीवन की सरिता पुरूष-स्त्री दो तटों के मध्य बहती है तब तक तो ठीक, लेकिन जब-जब ये अपने मर्यादा के तटों की सीमा को तोड़ती है तो समाज में केवल बदनामी की न केवल सुनामी आती है बल्कि सामाजिक ताने-बाने को ध्वस्त करती है।

अब तो स्त्री दोयम दर्जे से भी गिर कहीं न कहीं मनोरंजन का खिलौना और साधन भी बनती जा रही है। इससे क्या राजनीति, क्या प्रशासनिक, क्या कार्पोरेट, क्या सामाजिक, क्या धार्मिक, साधु-संत, आश्रम या अन्य क्षेत्र अछूते नहीं रहे हैं।

ऐसा नही है कभी रावण ने सीता का हरण किया था, दुर्योधन ने द्रोपदी का चीर हरण किया था, बल्कि आज भी समाज में रूप बदल-बदल कर रावण और दुर्योधन मौजूद है। दुर्योधन एवं रावण की तो एक सीमा थी लेकिन आज के तथाकथित कुकर्मी नेताओं एवं मंत्रियों की तो कोई सीमा ही नही है। ये इतने निर्लज, बेशर्म और बेहया हो गए है कि इन्हें न तो अपनी नजरों में गिरने की, और न ही समाज, घर के बच्चों के सामने जलील होने की चिंता है। पहले कहा भी जाता था ‘‘पैसा गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो, कुछ गया, अगर इज्जत गई तो सब कुछ गया।’’ लेकिन आज जिस्म के सौदागरों के लिए पैसे के आगे इज्जत कोई मायने नहीं रखती। नारायण दत्त तिवारी के जैविक पुत्र का मामला अभी खत्म ही नहीं हुआ था कि बिन ब्याही माँ जो गोपाल कांडा से शादी होने का दावा कर रही है ने 2009 में एक बच्ची को जन्म दिया, इसका पिता वो गोपाल कांडा को ही बताती है इसका भी डी. एन. एन. टेस्ट होना चाहिए बल्कि खुद गोपाल कांडा को इस मामले में आगे बढ़ पहल करना चाहिए ताकि असली सच उजागर हो सके यूं तो राजनीतिक गलियारे में सेैकड़ों ऐसे केस है लेकिन वे समाज व मीडिया से छिपे हुए है। अब नेता भी ऐसी अवैध सन्तानों पर नजर रखे हुए कही उसके मुंह खोलने से उनकी इज्जत का फालूदा न बन जाए। कही न कही उनके अन्र्तमन में ये डर जरूर समाया हुआ है।

19 वर्ष की उम्र में ही गोपाल कांडा के एम. डी. एल. आर. एयरलाईंस से केरियर शुरू करने वाली गीतिका शर्मा ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि यह नौकरी ही उसे असामाजिक मौत के लिए उकसायेगी।

यूं तो राजनीति के क्षेत्र में सेक्स और नेताओं का चोली-दामन का सम्बन्ध रहा है फिर बात चाहे उत्तर के पूर्व मंत्री अमरमणि त्रिपाठी- कवियत्री मधुमिता शुक्ला की हो, आनंद-शशि सेक्स स्केण्डल की हो, राजस्थान के पूर्व मंत्री महिपाल सिंह मदरेणा- भंवरी देवी की हो, हरियाणा के पूर्व उप मुख्यमंत्री चंदर मोहन-अनुराधा बाली की हो, हरियाणा के पूर्व गृहमंत्री गोपाल कांडा- गीतिका शर्मा की हो या म.प्र. में लव ट्रय एंगिल में शहला-धु्रव-जाहिदा की हो। इसका एक पक्ष देखे, इन सभी प्रकरणों में कही न कही महिलाओं की भी अति महत्वकांक्षा, रातों-रात सफलता की सीढ़ी चढ़ने की तमन्ना, अपने को शक्ति सम्पन्न बनाने की हवस ने मोहब्बत को व्यापार बना अनैतिकता के दल-दल में कूदने के दुःसाहस के खेल में अधिकांशों को न केवल मोैत को गले लगाना पड़ा बल्कि आसामयिक मौत की भी शिकार हुई। ये न तो लड़कियों एवं स्त्री के लिए अच्छा है और न ही समाज के लिए।

इसे पुरूषों की एक सोची समझी चाल ही जायेगा कि कहने को तो ढेर सारे आयोग, संगठन बना दिये है लेकिन स्त्री के साथ होने वाले अत्याचार, उत्पीड़न में कोई भी कमी नहीं आई है उलट नित नए-नए तरीकों से बढ़े ही है। राजनेताओं ने स्त्री को स्त्री में बांट लडाने का भी पूरा इंतजाम कर रखा है। प्रत्येक राजनीतिक पार्टी ने दिखाने के लिए तो महिला विंग बना दी है लेकिन चुनाव में जब टिकट वितरण की बारी आती है तो इनके प्रति केवल दोयम दर्जे का ही व्यवहार होता है। तभी तो महिला आरक्षण के नाम से ही बटती भागीदारी से ही पुरूषो को जब अपनी सत्ता खिसकती नजर आती है तब वह कुटिल चाल चल स्त्री को स्त्री के ही विरूद्ध साजिश के तहत् अगड़ी-पिछड़ी, अल्पसंख्यक, अनुसूचित जाति, जनजाति महिला का भेद खड़ा कर सिर्फ लड़वाता ही नजर आता है। ये कही से भी महिला समाज के लिए हितकारी नहीं है। हकीकत देखा जाए महिला सिर्फ महिला होती है बांटने और महिलाओं को बटने से सर्वथा बचना ही चाहिए तभी उनकी एकता की शक्ति को लोगों के कमतर आंकने का भी भ्रम टूटेगा।