सेकुलर नहीं हैं नीतीश

गुजरात की सत्ता संभालने के छह माह के भीतर ही गुजरात में हुए दंगे मोदी के माथे पर लगा ऐसा दाग हैं जिसे अपने पक्ष में कर कोई भी धर्मनिरपेक्ष होने का दंभ भर सकता है| नीतीश ने यही किया| उन्होंने मोदी की दंगों के दौरान अकर्मण्यता व हिंदूवादी संगठनों को दिए गए कथित साथ को मुद्दा बनाते हुए मोदी पर जमकर शाब्दिक तीर चलाए। उन्होंने प्रधानमंत्री पद हेतु जो पांच आहार्ताएं बताईं उनमें मोदी किसी में फिट नहीं बैठे| ज़ाहिर है मोदी के बचाव में संघ को तो उतरना ही था और वह उतरा भी किन्तु इस पूरे विवाद से एक प्रश्न ज़रूर खड़ा हो गया है कि क्या धर्मनिरपेक्ष होना या दूसरों द्वारा धर्मनिरपेक्षता का प्रमाण-पत्र मिलना ही राजनीति की पहली अहम शर्त बन गया है?

बदलते राजनीतिक परिदृश्य में धर्मनिरपेक्षता के मायने बदलना राजनीति की उस बुराई की ओर इंगित करता हैं जहां सत्ता शीर्ष पर काबिज होने की ललक ही सर्वोपरि है। धर्मनिरपेक्षता माने धर्म से स्वतंत्र या लौकिकता व सांसारिक संबंधी विचार। किन्तु स्वार्थ-सिद्धि हेतु राजनेताओं ने धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा ही बदल दी है। वर्तमान में धर्मनिरपेक्षता को अल्पसंख्यक हितों से जोड़कर देखा जाने लगा है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा को कई बार अपनी सुविधानुसार बदला है; फिर चाहे वह भिंडरावाला को प्रश्रय देना हो या शाहबानो केस, अयोध्या मसला हो या हाल ही में कोटे में से कोटे के अंतर्गत दिया गया आरक्षण| कांग्रेस ने वोट बैंक की राजनीति की खातिर इसकी सुचिता पर जो ग्रहण लगाया है उसे ही अब अन्य क्षेत्रीय क्षत्रप भी अपनाने लगे हैं| ताज़ा मामला है- नीतीश कुमार तथा नरेन्द्र मोदी के मध्य धर्मनिरपेक्ष व्यक्तित्व का निर्धारण करना।

मुंबई में हुई भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक से पूर्व संजय जोशी के विदाई प्रकरण ने नरेन्द्र मोदी के पार्टी और उसकी मातृ संस्था संघ में बढ़ते कद का राष्ट्रीय राजनीति में उनकी आगामी भूमिका का अहसास करवा दिया था| मीडिया व तमाम देशी-विदेशी सर्वेक्षण भी मोदी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को मजबूत बता रहे थे| हालांकि मोदी के बढ़ते कद से भाजपा के ही कई बड़े नेता आशंकित थे किन्तु १६ वर्षों तक भाजपा के साथ गलबहियां करते आए जदयू के नीतीश कुमार ने मोदी के बढ़ते कद को रोकने की खातिर ऐसा दांव चला जिससे मोदी की भावी प्रधानमंत्री पद की ताजपोशी पर तो ग्रहण लगा ही, साथ ही गठबंधन में दरार के संकेत भी लक्षित होने लगे।

 

एक ओर जहां मोदी स्वयं को विकास पुरुष साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे वहीं नीतीश कुमार धर्मनिरपेक्षता का चोला ओढ़ वोट बैंक मजबूत करने में लगे हैं। राजनीति में पतन का इससे ज्वलंत उदाहरण क्या होगा कि अब नीतीश को विकास की बजाए जातिवादी व धर्म आधारित राजनीति करने पर विवश होना पड़ रहा है। लालू प्रसाद यादव की जातिवादी जकड़न को तोड़कर नीतीश ने जिस बिहार की कमान संभाली थी उसने उनके राज में भले ही कई मील के पत्थर स्थापित किए हों या राष्ट्रीय स्तर पर बेहतरीन उदाहरण पेश किए हों किन्तु नीतीश ने उसे जातिवाद व धर्मनिरपेक्षता के ऐसे मोहजाल में फांस लिया है जिससे मुक्ति मिलना संभव नहीं है। कब्रिस्तानों की घेरेबंदी, महादलित की खोज, अगड़ी-पिछड़ी जाति का झगड़ा, माफियाओं को संरक्षण; ये कुछ ऐसे काम हैं जिन्हें नीतीश गर्व से स्वीकार कर सकते हैं। इनमें विकास कहाँ है? और जो विकास के आंकड़े सरकारी फाईलों में पेश किए जाते हैं वे उन बाबुओं की मक्कारी का सबूत हैं जो असलियत देखना ही नहीं चाहते। नीतीश की धर्मनिरपेक्ष छवि पर तो उसी वक्त प्रश्न-चिन्ह लग गया था जब २००२ में हुए गुजरात दंगों के दौरान वे एनडीए सरकार में रेल मंत्री थे और अपने पद पर बने रहे| क्यों नीतीश ने उस वक्त सरकार और मंत्रिपद दोनों से इस्तीफ़ा नहीं दिया? क्या यही नीतीश की धर्मनिरपेक्षता थी? नीतीश उस वक्त भी पद-पिपासु थे, आज भी हैं और अब उनकी आँखें तीसरे मोर्चे को पुनर्जीवित कर प्रधानमंत्री पद की ओर निहार रही हैं| और इसके लिए उन्हें मोदी को रोकना ही होगा जिसके लिए वे तन्मयता से जुट भी गए हैं|

 

फिर नीतीश ही क्यों, और भी तमाम क्षेत्रीय क्षत्रप देखें, आपको धर्मनिरपेक्षता का ढोंग करते कई नगीने दिख जायेंगे| मुलायम सिंह यादव जो खुद को बड़ा धर्मनिरपेक्ष बताते नहीं अघाते, पिछड़ी जाति के वोट बैंक के लिए उन्हीं ने हिन्दुत्ववादी चेहरे कल्याण सिंह से दोस्ती प्रगाढ़ की और जब उन्हें इस दोस्ती के दुष्परिणामों का अहसास हुआ तो शाही इमाम उनके दल में नज़र आने लगे। वाह री धर्मनिरपेक्षता जो लोगों को आपस में बाँट कर उन्हें दुश्मन बनाती हो? कांग्रेस का तो इतिहास ही धर्मनिरपेक्षता की विकृत छवि के लिए याद किया जाएगा किन्तु भाजपा, सपा, बसपा, तृणमूल, वामदल, जदयू सहित तमाम पारिपारिक एकसत्तात्मक पार्टियां व उनसे जुड़े नेता; क्या सच में स्वयं को धर्मनिरपेक्ष कहने का नैतिक साहस रखते हैं? कदापि नहीं| धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा को विकृत कर आप स्वयं को चाहे जितना बड़ा धर्मनिरपेक्ष साबित करा लें किन्तु आम आदमी की धर्मनिरपेक्षता पर कुठाराघात क्यों? जहां तक मोदी का सवाल है तो यक़ीनन उन्हें प्रधानमंत्री पद पर काबिज़ होने में कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा किन्तु यदि नीतीश यह सोच कर चल रहे हों कि धर्मनिरपेक्षता के पैमाने पर स्वयं को बड़ा दिखाने से उन्हें कांग्रेस या संभावित तीसरे मोर्चे का साथ मिल जाएगा तो वे गलत हैं| नीतीश को कांग्रेस का इतिहास ज़रूर पढ़ लेना चाहिए वरना कहीं उनकी हालात भी लालू व पासवान जैसी न हो जाए, जो आज कहीं के न रहे। धर्मनिरपेक्षता पर दूसरों को गरियाने से पूर्व नीतीश एक बार अपने गिरेबां में झांके तो अधिक बेहतर होगा।