संघ की चौसर पर नीतीश का वार ही है मोदी का हथियार

जनसंघ के दौर में आडवाणी की तुलना में अटल बिहारी वाजपेयी कहीं ज्यादा कट्टर संघी थे। और वाजपेयी की इसी पहचान ने उन्हें दीनदयाल उपाध्याय के बाद जनसंघ का अध्यक्ष बनवाया। लेकिन वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के दौर में आडवाणी की पहचान कट्टर संघी के तौर पर हो गई। और वाजपेयी सेक्युलर पहचान के साथ पहचाने जाने लगे। अब नरेन्द्र मोदी के लिये दिल्ली का रास्ता संघ खोल रहा है तो आडवाणी सेक्युलर लगने लगे हैं। नरेन्द्र मोदी सांप्रदायिक हो चुके हैं। जबकि अयोध्या मामले में आडवाणी के खिलाफ अभी भी आपराधिक साजिश का मामला दर्ज है। और गुजरात को झुलसाने के बाद जिस नरेन्द्र मोदी को देश ने ही नहीं दुनिया ने सांप्रदायिक माना, उन्हीं को डेढ महीने पहले टाइम मैगजीन ने कवर पर छाप कर 2014 का नायक करार दिया।

 

यानी सवाल सेक्यूलर और धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा गढने का नहीं है। सवाल है कि जब राष्ट्रपति के उम्मीदवार को लेकर चर्चा चल रही है तब प्रधानमंत्री के उम्मीदवार की परिभाषा नीतीश ने क्यों गढ़ी। और नीतीश की परिभाषा सुनते ही बीजेपी नेताओ से पहले सरसंघचालक मोहन भागवत ने नरेन्द्र मोदी की तरफदारी कर नीतीश को खारिज करने का बीड़ा क्यों उठा लिया। असल में आरएसएस की बिसात पर पहले दिल्ली के बीजेपी नेता फंसे और अब नीतीश कुमार फंसे। ध्यान दें तो मोदी का कद  मुंबई में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने बढ़ाया और नीतीश कुमार ने विरोध के स्वर के जरिये उस पर ठप्पा लगा दिया। क्योंकि झटके में आडवाणी, सुषमा और जेटली सरीखे कद्दावर नेता हाशिये पर आ गये। लेकिन पहली बार देश की मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों ने आरएसएस में भी आस जगायी है और क्षेत्रीय दलो में भी उम्मीद बढ़ायी है कि वह अपने तरीके से अपने कद को बढा सकते हैं।

 

इसी का असर है कि नीतीश कुमार को लगने लगा है कि वह बिहार से बाहर राष्ट्रीय राजनीति को एनडीए से बाहर होकर ज्यादा प्रभावित कर सकते हैं। और संघ को लगने लगा है कि नरेन्द्र मोदी गुजरात से बाहर निकल कर राजनीतिक तिकड़म वाले वोट बैक को राष्ट्रवाद तले दबा भी सकते हैं और राजनीतिक धारा को मोड़ भी सकते हैं । मजा यह है कि मोहनभागवत जिस थ्योरी पर बहस चाहते थे उसे नीतीश कुमार ने हवा दे दी। क्योंकि हिदुत्व को लेकर संघ की परिभाषा में मुस्लिम और ईसाई को भी जगह देने की बात हेडगेवार ने 1925 में ही उठाई। और हिन्दुत्व की परिभाषा गढ़ने की जरुरत हेडगेवार को इसलिये पड़ी क्योंकि 1923 में वीर सावरकर ने हिन्दुत्व की परिभाषा में दूसरे किसी धर्म को जगह नहीं दी थी। हेडगेवार खुद कांग्रेस से निकले थे। और एक वक्त ऐसा भी था कि कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर रहते हुये 1918 में मदनमोहन मालवीय हिन्दु सभा की अगुवाई भी कर रहे थे और तब सेक्यूलर या साप्रदायिकता को लेकर कोई सवाल हिन्दुत्व के मद्देनजर नहीं उठा। लेकिन अयोध्या आंदोलन के दौर में संघ के भीतर सावरकर के हिन्दुत्व का समर्थन जागा इससे इंकार नहीं किया जा सकता। विहिप ने हिन्दुत्व को लेकर सावरकर की थ्योरी पकड़ी तो संघ के भीतर भी हिन्दुत्व का उग्र चेहरा अयोध्या से लेकर आतंकवाद के मद्देनजर उभरा। इसीलिये अयोध्या आंदोलन की आग शांत होते होते जब गुजरात में गोधराकांड हुआ तो संघ के भीतर का सावरकर हिस्सा तेजी से सक्रिय हुआ। माना यही जाता है कि एक तरफ अटल बिहारी वाजपेयी राजधर्म का सवाल उठाकर नरेन्द्र मोदी को कठघरे में खड़ा कर रहे थे तो दूसरी तरफ संघ का भीतर का सावरकर धड़ा तत्कालिक सरसंघचालक कुप्प सी सुदर्शन को बदला लेने के मोदी पाठ की वकालत कर रहा था। और इसी अंतर्विरोध में मोदी को हटाने पर बनी सहमति भी एक महीने में पलट गई। लेकिन अब सवाल आगे का है। संघ पूरी ताकत से नरेन्द्र मोदी के पीछे खड़ा होने को तैयार है । और दिल्ली में बैठे बीजेपी के कद्दावर नेता पूरी ताकत से नरेन्द्र मोदी को रोकने के लिये तैयार हैं। यानी नरेन्द्र मोदी को लेकर जो लड़ाई अपनी सियासी बिसात के लिये नीतीश कुमार लड़ रहे हैं, असल में उससे कहीं ज्यादा बड़ी लडाई संघ और बीजेपी के नेताओ के बीच शुरु हो चुकी है। नीतीश कुमार की पहल बीजेपी के नेताओ के लिये आक्सीजन है। लेकिन सवाल है कि जब खुद आरएसएस बीजेपी ही नहीं बल्कि देश की राजनीति को अपने तरीके से परिभाषित करने पर उतारु है तो उसमें एनडीए के टूटने की धमकी दिल्ली के बीजेपी नेताओ को तो डरा सकती है। लेकिन संघ के लिये तो लड़ाई से पहले यह टूट भी राजनीतिक हथियार ही बन रही है। और नरेन्द्र मोदी गुजरात में खामोश रहकर भी दिल्ली की समूची राजनीति के केन्द्र में आ खड़े हुये हैं।