सुन्नत (खतना) की कुप्रथा पर संत कबीर के विचार

बालक कबीर का खतना करने आये काजी और तमाम मुस्लिम रिश्तेदारों से बालक कबीर का खतना और इस्लामी रीति रिवाजों को लेकर आश्चर्यचकित कर देने वाले कुछ प्रश्न (महान कवि कबीर दास)

सुन्नत करवाने से मनाही

नबी इब्राहिम की चलाई हुई मर्यादा सुन्नत हर एक मुसलमान को करनी जरूरी है शरीया अनुसार जब तक सुन्नत न हो कोई मुसलमान नहीं गिना जाता। कबीर जी आठ साल के हो गए। नीरो जी को उनके जान-पहचान वालों ने कहना शुरू कर दिया कि सुन्नत करवाई जाये। सुन्नत पर काफी खर्च किया जाता है। सभी के जोर देने पर आखिर सुन्नत की मर्यादा को पुरा करने के लिए उन्होंने खुले हाथों से सभी सामग्री खरीदी। सभी को खाने का निमँत्रण भेजा। निश्चित दिन पर इस्लाम के मुखी मौलवी और काजी भी एकत्रित हुए। रिश्तेदार और आस पड़ौस के लोग भी हाजिर हुए। सभी की हाजिरी में कबीर जी को काजी के पास लाया गया। काजी कुरान शरीफ की आयतों का उच्चारण अरबी भाषा में करता हुआ उस्तरे को धार लगाने लगा।

  • उसकी हरकतें देखकर कबीर जी ने किसी स्याने की भांति उससे पूछा: यह उस्तरा किस लिए है ? आप क्या करने जा रहे हो ?
  • तो काजी बोला: कबीर ! तेरी सुन्नत होने जा रही है। सुन्नत के बाद तुझे मीठे चावल मिलेंगे और नये कपड़े पहनने को मिलेंगे।
  • पर कबीर जी ने फिर काजी से प्रश्न किया। अब मासूम बालक के मुँह से कैसे और क्यों सुनकर काजी का दिल धड़का। क्योंकि उसने कई बालकों की सुन्नत की थी परन्तु प्रश्न तो किसी ने भी नहीं किया, जिस प्रकार से बालक कबीर जी कर रहे थे।
  • काजी ने प्यार से उत्तर दिया: बड़ों द्वारा चलाई गई मर्यादा पर सभी को चलना होता है। सवाल नहीं करते। अगर सुन्नत न हो तो वह मुसलमान नहीं बनता। जो मुसलमान नहीं बनता उसे काफिर कहते हैं और काफिर को बहिशत में स्थान नहीं मिलता और वह दोजक की आग में जलता है। दोजक (नरक) की आग से बचने के लिए यह सुन्नत की जाती है
  • यह सुनकर कबीर जी ने एक और सवाल किया: काजी जी ! केवल सुन्नत करने से ही मुसलमान बहिश्त (स्वर्ग) में चले जाते हैं ? क्या उनको नेक काम करने की जरूरत नहीं ?

फिर कबीर दास जी ने काजी से कहाँ

जो तू तुर्क(मुसलमान) तुर्कानी का जाया भी भीतर खतत्न क्यों न कराया।।

अर्थ:-

कबीर दास जी कहते हैं:- हे काजी यदि तू मुस्लिम होने पर अभिमान करता है और कहता है की तुझे अल्लाह ने मुसलमान बनाया है तो तु अपनी माँ के पेट से खतना क्यों नहीं करवा के आया ?

तुझे धरती पर मुसलमान बनने कि जरूरत क्यों पड गई, अल्लाह ने तुझे सिधा मुस्लिम (अर्थात खतना करके) बनाके क्यों नहीं भेजा ?????????

  • यह बात सुनकर सभी मुसलमान चुप्पी साधकर कर कभी कबीर जी की तरफ और कभी काजी की तरफ देखने लगे। काजी ने अपने ज्ञान से कबीर जी को बहुत समझाने की कोशिश की, परन्तु कबीर जी ने सुन्नत करने से साफ इन्कार कर दिया। इन्कार को सुनकर लोगों के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। काजी गुस्से से आग-बबुला हो गया।
  • काजी आखों में गुस्से के अँगारे निकालता हुआ बोला: कबीर ! जरूर करनी होगी, राजा का हुक्म है, नहीं तो कौड़े मारे जायेंगे। कबीर जी कुछ नहीं बोले, उन्होंने आँखें बन्द कर लीं और समाधि लगा ली। उनकी समाधि तोड़ने और उन्हें बुलाने का किसी का हौंसला नहीं हुआ, धीरे-धीरे उनके होंठ हिलने लगे और वह बोलने लगे– राम ! राम ! और बाणी उच्चारण की:

हिंदू तुरक कहा ते आए किनि एह राह चलाई ॥

दिल महि सोचि बिचारि कवादे भिसत दोजक किनि पाई ॥१॥

काजी तै कवन कतेब बखानी ॥

पड़्हत गुनत ऐसे सभ मारे किनहूं खबरि न जानी ॥१॥ रहाउ ॥

सकति सनेहु करि सुंनति करीऐ मै न बदउगा भाई ॥

जउ रे खुदाइ मोहि तुरकु करैगा आपन ही कटि जाई ॥२॥

सुंनति कीए तुरकु जे होइगा अउरत का किआ करीऐ ॥

अर्ध सरीरी नारि न छोडै ता ते हिंदू ही रहीऐ ॥३॥

छाडि कतेब रामु भजु बउरे जुलम करत है भारी ॥

कबीरै पकरी टेक राम की तुरक रहे पचिहारी ॥४॥

सन्दर्भ- राग आसा कबीर पृष्ठ 477

अर्थ:-

समझदारों ने समझ लिया कि बालक कबीर जी काजी से कह रहे हैं कि हे काजी: जरा समझ तो सही कि हिन्दू और मुस्लमान कहाँ से आए हैं ? हे काजी तुने कभी यह नहीं सोचा कि स्वर्ग और नरक में कौन जायेगा ?

कौन सी किताब तुने पढ़ी है, तेरे जैसे काजी पढ़ते-पढ़ते हुए ही मर गए पर परमात्मा के दर्शन उन्हें नहीं हुए। रिशतेदारों को इक्कठे करके सुन्नत करना चाहते हो, मैंने कभी भी सुन्नत नहीं करवानी। अगर मेरे खुदा को मुझे मुसलमान बनाना होगा तो मेरी सुन्नत अपने आप हो जायेगी।

हे काजी अगर मैं तेरी बात मान भी लूँ कि मर्द ने सुन्नत कर ली और वह स्वर्ग में चला गया तो स्त्री का क्या करोगे ? अगर स्त्री यानि जीवन साथी ने काफिर ही रहना है तो फिर तो हिन्दू ही होना अच्छा है।

मैं तो तुझे कहता हूँ कि यह किताबे आदि छोड़कर केवल राम नाम का सिमरन कर। मैंने तो राम का आसरा लिया है इसलिए मुझे कोई चिन्ता फिक्र नहीं |

विश्‍वजीत सिंह अनंत