महान योद्धा और सम्राट ‘ पुष्यमित्र शुंग ‘

जिसके कारण वैदिक संस्कृति और सनातन धर्म जीवित रह पाया –

आचार्य चाणक्य ने जिस अखंड भारत के निर्माण हेतु आजीवन संघर्ष किया उसका लाभ भी सनातन धर्म को न मिल पाया, आचार्य चाणक्य जीवन भर चन्द्र्गुप्य मौर्य को संचालित करते रहे, परन्तु आचार्य चाणक्य के स्वर्गवास के बाद चन्द्रगुप्त मौर्य जैन बन गया, और जैन सम्प्रदाय के प्रचार प्रसार मे ही जीवन व्यतीत किया, अंत मे संथारा करके मृत्यु को प्राप्त हुआ।

चन्द्रगुप्त मौर्य का पुत्र बिन्दुसार था जो आगे जाकर मखली गौशाल नामक व्यक्ति द्वारा स्थापित आजीविक सम्प्रदाय में दीक्षित हुआ, आजीविक सम्प्रदाय भी पूर्णतया वेद-विरोधी वाममार्गी पंथ था, अर्थात बिन्दुसार ने भी आजीवन वेद विरोधी आजीविक सम्प्रदाय के प्रचार प्रसार हेतु ही सारे संसाधन व जीवन लगाया।

बिन्दुसार के बाद उसका पुत्र चंड-अशोक गद्दी पर बैठा, मौर्य वंश के सम्राट चन्द्रगुप्त के पौत्र अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद बौद्ध पंथ अपना लिया। जिसने वैदिक धर्म पर अधिक से अधिक प्रतिबंध लगाए, यज्ञों पर प्रतिबन्ध लगाये, गुरुकुलों को बोद्ध-विहार में परिवर्तित किया, मन्दिरों को नष्ट किया, सनातन धर्म के शास्त्रों में हेर-फेर भी करवाए, नकली धर्म ग्रन्थ लिखवाए, अधिक से अधिक सनातन धर्मियों को बौद्ध सम्प्रदाय में तलवार के बल पर और धन आदि का लालच देकर भी बौद्ध सम्प्रदाय की जनसंख्या बढाई। चंडअशोक के काल में ही भारत की वैदिक भूमि बौद्ध भिक्षुओं और बौद्ध मठों का गढ़ बनती चली गई।

यह कैसी अहिंसा है … जीवन भर हिंसा करके अंतिम अविजित स्थान पर विजय पाकर आपने शस्त्र त्यागे और उसे त्याग की परिभाषा दी जाती है ??

जब मोर्य वंश का नौवा अन्तिम सम्राट बृहदरथ मगध की गद्दी पर बैठा, तब उस समय तक आज का अफगानिस्तान, पंजाब व लगभग पूरा उत्तरी भारत बौद्ध बन चुका था।

जब सिकंदर व सैल्युकस जैसे वीर, भारत के वीरों से अपना मान मर्दन करा चुके थे, तब उसके लगभग 90 वर्ष पश्चात् जब भारत से बौद्ध संप्रदाय की अवैदिक अहिंसात्मक नीति के कारण ” वीर वृत्ति ” का लगभग ह्रास हो चुका था, ग्रीकों ने सिन्धु नदी को पार करने का साहस दिखा दिया।

सम्राट बृहदरथ के शासनकाल में ग्रीक शासक , जिसे बौद्ध साहित्य में मिलिंद और मनिन्द्र कहा गया है, ने भारत वर्ष पर आक्रमण की योजना बनाई।

मनिन्द्र ने सबसे पहले बौद्ध पंथ के धर्म गुरुओं से संपर्क साधा और उनसे कहा कि यदि आप भारत विजय में मेरा साथ दें तो मैं भारत विजय के पश्चात् बौद्ध पंथ स्वीकार कर लूँगा। बौद्ध गुरुओं ने राष्ट्र द्रोह किया तथा भारत पर आक्रमण के लिए एक विदेशी शासक का साथ दिया। सीमा पर स्थित बौद्ध मठ राष्ट्रद्रोह के अड्डे बन गए। बौद्ध भिक्षुओ का वेश धरकर मनिन्द्र के सैनिक मठों में आकर रहने लगे। हजारों मठों में सैनिकों के साथ साथ हथियार भी छुपा दिए गए।

दूसरी तरफ़ सम्राट बृहदरथ की सेना का एक वीर सैनिक ” पुष्यमित्र शुंग ” अपनी वीरता व साहस के कारण मगध कि सेना का सेनापति बन चुका था । बौद्ध मठों में विदेशी सैनिको का आगमन उसकी नजरों से नही छुप पाया, पुष्यमित्र ने सम्राट से मठों की जांच की आज्ञा मांगी परंतु बौद्ध सम्राट बृहदरथ ने मना कर दिया।

राष्ट्रभक्ति की भावना से ओत प्रोत सेनापति पुष्यमित्र शुंग, सम्राट की आज्ञा का उल्लंघन करके बौद्ध मठों की तलाशी लेने पहुँच गया।

मठों मे स्थित सभी विदेशी सैनिको को पकड़ लिया गया तथा उनको यमलोक पहुँचा दिया गया, और उनके हथियार कब्जे में कर लिए गए | राष्ट्रद्रोही बौद्धों को भी गिरफ्तार कर लिया गया। परन्तु वृहद्रथ को यह बात अच्छी नही लगी।

पुष्यमित्र जब मगध वापस आया तब उस समय सम्राट सैनिक परेड की जाँच कर रहा था।  सैनिक परेड के स्थान पर ही सम्राट व पुष्यमित्र शुंग के बीच बौद्ध मठों को लेकर कहा सुनी हो गई। सम्राट बृहदरथ ने पुष्यमित्र पर हमला करना चाहा परंतु पुष्यमित्र ने पलटवार करते हुए सम्राट का वध कर दिया। सैनिको ने पुष्यमित्र का साथ दिया तथा पुष्यमित्र को मगध का सम्राट घोषित कर दिया।

सबसे पहले मगध के नए सम्राट पुष्यमित्र ने राज्य प्रबंध को प्रभावी बनाया तथा एक सुगठित सेना का संगठन किया। पुष्यमित्र शुंग ने 36 वर्षों तक राज्य किया था। मौर्य वंश के अंतिम राजा निर्बल थे और कई राज्य उनकी अधीनता से मुक्त हो चुके थे, ऐसे मे पुष्यमित्र शुंग ने इन राज्यों को फिर से मगध की अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया। उसने अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त की और मगध साम्राज्य का फिर से विस्तार कर दिया।

पुष्यमित्र ने अपनी सेना के साथ भारत के मध्य तक चढ़ आए मनिन्द्र पर आक्रमण कर दिया।

भारतीय वीर सेना के सामने ग्रीक सैनिको की एक न चली। मनिन्द्र की सेना पीछे हटती चली गई, पुष्यमित्र शुंग ने पिछले सम्राटों की तरह कोई गलती नहीं की तथा ग्रीक सेना का पीछा करते हुए उसे सिन्धु पार धकेल दिया। इसके पश्चात ग्रीक कभी भी भारत पर आक्रमण नही कर पाये। सम्राट पुष्यमित्र ने सिकंदर के समय से ही भारत वर्ष को परेशानी में डालने वाले ग्रीको का समूल नाश ही कर दिया।

बौद्ध पंथ के प्रसार के कारण वैदिक सभ्यता का जो ह्रास हुआ, पुन: ऋषिओं के आशीर्वाद से जाग्रत हुआ। भय से बौद्ध पंथ स्वीकार करने वाले पुन: वैदिक धर्म में लौट आए।

कुछ बौद्ध ग्रंथों में लिखा है की पुष्यमित्र ने बौद्दों को सताया, किंतु यह पूरा सत्य नहीं है।

सम्राट ने उन राष्ट्रद्रोही बौद्धों को सजा दी, जो उस समय ग्रीक शासकों का साथ दे रहे थे।

पुष्यमित्र शुंग (185 – 149 ई॰पू॰) उत्तर भारत के शुंग साम्राज्य के संस्थापक और प्रथम राजा थे। बाद मे उन्होंने अश्वमेध यज्ञ किया और उत्तर भारत का अधिकतर हिस्स अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया।

विदर्भ को जीतकर और यवनों को परास्त कर पुष्यमित्र शुंग मगध साम्राज्य के विलुप्त गौरव का पुनरुत्थान करने में समर्थ हुआ था। उसके साम्राज्य की सीमा पश्चिम मे सिन्धु नदी तक अवश्य थी। दिव्यावदान के अनुसार ‘ साकल ‘ ( सियालकोट ) उसके साम्राज्य के अंतर्गत था। अयोध्या में प्राप्त उसके शिलालेख से इस बात में कोई सन्देह नहीं रह जाता कि मध्यदेश पर उसका शासन भली-भाँति स्थिर था। विदर्भ की विजय से उसके साम्राज्य की दक्षिणी सीमा नर्मदा नदी तक पहुँच गयी थी।

इस प्रकार पुष्यमित्र का साम्राज्य हिमालय से नर्मदा नदी तक और सिन्धु से प्राच्य समुद्र तक विस्तृत था। अयोध्या मे पुष्यमित्र का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है,  जिसमें उसे ‘ द्विरश्वमेधयाजी ‘ कहा गया है। इससे सूचित होता है, कि पुष्यमित्र ने 2 बार अश्वमेध यज्ञ किए थे।

पलायनवादी बौद्ध और जैन संपदायों के उत्कर्ष के कारण इस यज्ञ की परिपाटी भारत में विलुप्त हो गई थी। पुष्यमित्र ने इसे पुनः जीवित किया।

सम्भवतः पतञ्जलि मुनि इन यज्ञों में पुष्यमित्र के पुरोहित थे। इसलिए उन्होंने ‘ महाभाष्य ‘ में लिखा है – ‘ इह पुष्यमित्रं याजयामः’ ( हम यहाँ पुष्यमित्र का यज्ञ करा रहे हैं )

अश्वमेध के लिए जो घोड़ा छोड़ा गया, उसकी रक्षा का कार्य वसुमित्र के सुपुर्द किया गया था।

सिन्धु नदी के तट पर यवनों ने इस घोड़े को पकड़ लिया और वसुमित्र ने उन्हें परास्त कर इसे उनसे छुड़वाया। किन विजयों के उपलक्ष्य मे पुष्यमित्र ने दो बार अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है। पुष्यमित्र ने जो वैदिक धर्म की पताका फहराई उसी के आधार को सम्राट विक्रमादित्य व आगे चलकर गुप्त साम्राज्य ने इस धर्म के ज्ञान को पूरे विश्व में फैलाया।

विश्‍वजीत सिंह अनंत

लेखक का ब्‍लॉग है: विश्‍वजीत सिंह अनंतजी

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