सामाजिक-शैक्षिक क्रांति की महानायिका सावित्रीबाई फुले

       इतिहास इस बात का गवाह है कि जब-जब समाज और राष्ट्र में शोषण, अन्याय और अत्याचार बढ़ता है और मूलभूत मानवीय अधिकारों का हनन होने लगता है, तो उस समाज में इस दमन-चक्र के खिलाफ आवाज उठाने के लिए कोई महापुरुष जन्म लेता है। सावित्रीबाई फुले ऐसे ही महापुरुषों की महान श्रंृखला की एक गौरवशाली कड़ी बनी हैं, जो देश में सामाजिक क्रांति एवं नारी शिक्षा के साथ-साथ देश के हजारों गरीब, प्रताड़ित तथा शोषित लोगों की एक सशक्त आवाज बनकर उभरीं और उन्होंने अपने परिवार तथा अपने व्यक्तिगत सुख-दुख को तिलांजलि देकर अपना पूरा जीवन देश में एक अभिनव शिक्षा क्रांति के लिये समर्पित कर दिया। वे भारत की जुझारू समाज सुधारिका, महान राष्ट्रनायिका एवं मराठी कवयित्री थीं। उन्होंने अपने पति ज्योतिराव गोविंदराव फुले के साथ मिलकर स्त्रियों के अधिकारों एवं शिक्षा के लिए बहुत से कार्य किए। उन्होंने अपने कर्तृत्व की जो अमिट रेखाएं खींची हंै, वे इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगी। शिक्षाक्रांति के साथ-साथ समाजक्रांति के सूत्रधार के रूप में उन्हें युग-युगों तक याद किया जायेगा। उनके विराट व्यक्तित्व को किसी उपमा से उपमित करना उनके व्यक्तित्व को ससीम बनाना होगा। उनके लिये तो इतना ही कहा जा सकता है कि वे अनिर्वचनीय हैं, ध्रुव तारे की तरह केन्द्र बिन्दु है।

            सावित्रीबाई फुले का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले के खण्डाला तहसील में नायगांव में माली परिवार में 3 जनवरी 1831 को हुआ। इनके पिता का नाम खन्दोजी नेवसे और माता का नाम लक्ष्मी था। सावित्रीबाई फुले का विवाह 1840 में ज्योतिबा फुले से हुआ था। जैसे-जैसे उम्र बढ़ी इस भारत की उदीयमान अबला ने बचपन से ही कुछ विलक्षण, अनूठे एवं अचरज वाले कार्य करना प्रारंभ कर दिये थे। खेलकूद की उम्र में वे नव-सृजन एवं दूसरों को प्रेरणा देने, जागृत करने में अहर्निश लगी रही। विरोध को समभाव से सहकर वे जिस प्रकार उसे प्रेरणा के रूप में बदलती रही, वह इतिहास का एक प्रेरक पृष्ठ है। उनका पूरा जीवन समाज में वंचित तबके खासकर महिलाओं और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष में बीता।

एक नारी को असमान एवं दोयम दर्जा की मानने वालों के लिए सावित्रीबाई एक चुनौती थी। जब महिलाएं पुरुषों की गुलामी में जकड़ी हो और पुरुषवादी रीति-रिवाज, आचार-विचार, रहन-सहन, ज्ञान-विज्ञान, खान-पान, संस्कार-संस्कृति, सभी क्षेत्रों में असहाय जीवनयापन करती हो, यह एक तरह का दासता का जीवन है। इस जीवन से मुक्ति का मार्ग दिखाने वाले सामाजिक क्रांति के जनक महात्मा ज्योतिराव फुले ने दासता की बेड़ियों को तोड़ा। उन्होंने प्रत्येक मानव को आनंदमय जीन जीने के लिए शिक्षा पाने की चेतना जगायी। उन्होंने अपनी अशिक्षित पत्नी सावित्रीबाई फुले को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया और मानव समाज में भारतवर्ष में अपने घर से ही प्रयोग किया। पत्नी को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा लेकिन शिक्षित और प्रशिक्षित किया। उन्होंने देश की प्रथम शिक्षिका बनाकर नारी उत्थान का मार्ग ही प्रशस्त कर दिया। न केवल शिक्षित किया बल्कि जन-जन को शिक्षित करने और विशेषकर महिलाओं कोे शिक्षित करने की जिम्मेदारी भी दी।

            स्त्री में सृजन की अद्भुत क्षमता है, उस क्षमता का उपयोग समाज-निर्माण एवं व्यक्ति-निर्माण की दिशा में किया जाए तो वह सही अर्थ में निर्मात्री और संरक्षिका होने का सार्थक गौरव प्राप्त कर सकती है। सावित्रीबाई ने ऐसा ही गौरव हासिल किया और शिक्षित होकर कन्याशाला प्रारंभ की, जिसके खिलाफ कट्टरपंथियों मोर्चाबंदी की और तरह-तरह से परेशान करना प्रारंभ कर दिया। उन्होंने पिता गोविंदराव को दबाव लाकर फुले दंपत्ति को घर से निकाल दिया, क्योंकि उनके पिता भी नारी शिक्षा को पाप मानते थे। फुले दंपति को एक मुसलमान मित्र ने अपने घर में शरण दी। वहीं से सावित्रीबाई जब पाठशाला जाती थी तो कट्टरपंथी उनका मजाक उड़ाते, उन पर छींटाकशी करते और कभी गोबर तथा पत्थर मारकर उन्हें बाधित करते और कहते यह बड़ा भयंकर महापाप कर लड़कियों को पढ़ा रही है। सावित्री सब कुछ सहन करते हुए शिक्षा का कार्य संपन्न कर रही थी। शिक्षा के नेत्री सावित्रीबाई फुले ने इस तरह शिक्षा पर षडयंत्रकारी तरीके से एकाधिकार जमाएं बैठी ऊंची जमात का भांडा फोड़ा और शिक्षा का अधिकार हर जाति और वर्ग के लिये खोला ।

            सावित्रीबाई फुले भारत के पहले बालिका विद्यालय की पहली प्रिंसिपल और पहले किसान स्कूल की संस्थापक थीं। महात्मा ज्योतिबा को महाराष्ट्र और भारत में सामाजिक सुधार आंदोलन में एक सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में माना जाता है। उनको महिलाओं और दलित जातियों को शिक्षित करने के प्रयासों के लिए जाना जाता है। ज्योतिराव, जो बाद में ज्योतिबा के नाम से जाने गए सावित्रीबाई के संरक्षक, गुरु और समर्थक थे। सावित्रीबाई ने अपने जीवन को एक मिशन की तरह से जीया जिसका उद्देश्य था विधवा विवाह करवाना, छुआछूत मिटाना, महिलाओं की मुक्ति और दलित महिलाओं को शिक्षित बनाना। वे एक कवियत्री भी थीं उन्हें मराठी की आदि कवयित्री के रूप में भी जाना जाता था। उन्होंने उद्देश्यपूर्ण जीवन जीकर जो ऊंचाइयां और उपलब्धियां हासिल की हैं, वे किसी कल्पना की उड़ान से भी अधिक हैं। अपने जीवन के सार्थक प्रयत्नों से उन्होंने इस बात को सिद्ध किया है कि व्यक्ति यदि चाहे तो नगण्य अवसरों को भी अपने कर्तृत्व की छेनी से तराश कर उसे महान् बना सकता है।

            सावित्रीबाई ने विपरीत एवं संघर्षपूर्ण दौर में काम शुरु किया जब धार्मिक अंधविश्वास, रुढिवाद, अस्पृश्यता, दलितों और स्त्रियों पर मानसिक और शारीरिक अत्याचार अपने चरम पर थे। बाल-विवाह, सती प्रथा, बेटियों के जन्मते ही मार देना, विधवा स्त्री के साथ तरह-तरह के अमानुषिक व्यवहार, अनमेल विवाह, बहुपत्नी विवाह आदि प्रथाएं समाज का खून चूस रही थी। समाज में ब्राह्णवाद और जातिवाद का बोलबाला था। ऐसे समय सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबाफुले का इस अन्यायी समाज और उसके अत्याचारों के खिलाफ खडे़ हो जाने से सदियों से चली आ रही कुप्रथाओं, अत्याचारों एवं आडम्बरों से समाज को मुक्त किया गया।

            महान शिक्षिका सावित्रीबाई फुले ने न केवल शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व काम किया अपितु भारतीय स्त्री की दशा और दिशा सुधारने के लिए उन्होंने 1852 में ”महिला मंडल“ का गठन कर भारतीय महिला आंदोलन की प्रथम अगुआ भी बन गई। इस महिला मंडल ने बाल विवाह, विधवा होने के कारण स्त्रियों पर किए जा रहे जुल्मों के खिलाफ स्त्रियों को तथा अन्य समाज को मोर्चाबन्द कर समाजिक बदलाव के लिए संघर्ष किया। हिन्दू स्त्री के विधवा होने पर उसका सिर मूंड दिया जाता था। विधवाओं के सर मूंडने जैसी कुरीतियों के खिलाफ लड़ने के लिए उन्होंने नाईयों से विधवाओं के ”बाल न काटने“ का अनुरोध करते हुए आन्दोलन चलाया जिसमें काफी संख्या में नाईयों ने भाग लिया तथा विधवा स्त्रियों के बाल न काटने की प्रतिज्ञा ली। इतिहास गवाह है कि भारत क्या पूरे विश्व में ऐसा सशक्त आन्दोलन नहीं मिलता जिसमें औरतों के ऊपर होने वाले शारीरिक और मानसिक अत्याचार के खिलाफ स्त्रियों के साथ पुरूष जाति प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी हो।

            सावित्री के जीवन की अनेक घटनाएं नारी उत्थान और उन्नयन की गवाह है। उन्होंने भारतवर्ष में नारी शिक्षा की क्रांति प्रारंभ कर नारी उत्थान का मार्ग प्रशस्त किया। वे साहित्य रचना भी करती थी। 1854 में ‘काव्य फूले’ कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। उनकी रचनाएं मानव के लिये प्रेरणादायी हंै। उन्होंने शैक्षणिक कार्यों के साथ मानव कल्याण के महत्वपूर्ण कार्य जैसे रात्रि पाठशाला, वाचनालय, विधवा आश्रम, बाल हत्या प्रतिबंधक गृह प्रारंभ किए। वे अंतिम समय तक भी मानव सेवा जैसे कि प्लेग से पीड़ित मरीजों को पीठ पर लाद कर अस्पताल में इलाज कराती थी। विधवा काशीबाई को पुत्र हुआ उसका लालन-पालन कर गोद लिया। डाॅक्टर बनाया और मरीजों की सेवा करते हुए स्वयं प्लेग की चपेट में आ गई। 10 मार्च 1897 को प्लेग के कारण सावित्रीबाई फुले का निधन हो गया।

            सावित्रीबाई फुले अपने कार्यों से सदा समाज में अमर रहेगी। जिस वंचित शोषित समाज के मानवीय अधिकारों के लिए उन्होने जीवनपर्यन्त संघर्ष किया वही समाज उनके प्रति अपना आभार, सम्मान, और उनके योगदान को चिन्हित करने के लिए पिछले तीन-चार दशकों से दिल्ली से लेकर पूरे भारत में सावित्रीबाई फुले के जन्मदिन 3 जनवरी को “भारतीय शिक्षा दिवस” और उनके परिनिर्वाण 10 मार्च को “भारतीय महिला दिवस” के रूप में मनाता आ रहा है। भारत सरकार ने सावित्रीबाई फुले के जन्मोत्सव पर 1997 में दो रुपये का डाक टिकट जारी किया। उनके जीवन पर अनेक पुस्तक प्रकाशित की गई। देशभर में सावित्रीबाई फुले की स्मृति में जगह-जगह विद्यालय, महाविद्यालय प्रारंभ हुए। उनका जन्म दिवस मनाते हुए हमें शिक्षा की कमियों एवं अपूर्णताओं को दूर करने के लिये संकल्पित होना होगा, तभी इस महानायिका एवं समाज-सुधारिका के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।