साधु,सिपाही और मुस्लिम आतंकवाद में कहां है देश

आतंकवाद के घेरे में साधु और सिपाही के आने से झटके में मुस्लिम आतंकवाद पर विराम लग गया है । वह बहस जो हर आतंकवादी हिंसा के बाद “सॉफ्ट स्टेट” को लेकर शुरु होती थी और इस्लामिक आतंकवाद के साथ कभी सीमा पार तो कभी बांग्लादेश तो कभी अलकायदा सरीखे संगठन को छूते हुये पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के इर्द गिर्द ताना बाना बुनती थी, अचानक वह बहस थम गयी है ।

साध्वी प्रज्ञा से लेकर लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित के आतंकवादी ब्लास्ट में शामिल होने ने संकेतों ने अचानक उस मानसिकता को बैचेन कर दिया है जो यह कहने से नहीं कतराती थी कि हर मुसलमान चाहे आतंकवादी न हो लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान जरुर है। इसमे दो मत नही कि मुस्लिम समुदाय को लेकर आतंकवाद की जो बहस समाज के भीतर चली और बीजेपी-कांग्रेस सरीखे राष्ट्रीय राजनीतिक दलो ने उसे जिस तरह देखा, उसमें देश की सामाजिक-आर्थिक स्थिति जुड़ती चली गयी। इसे खुफिया एजेंसियों ने भी माना कि बाजार अर्थव्यवस्था का जो चेहरा विलासिता के नाम पर भारतीय समाज से जुड़ा है, उसमे बहुसंख्यक तबके के सामने यह संकट भी पैदा हो गया है कि वह पाने की होड़ में अपना क्या क्या गंवा दे। खासकर समाज के भीतर जब समूचे मूल्य पूंजी के आधार पर तय होने लगे हैं और सरकार की नीतियां भी नागरिकों को साथ लेकर चलने के बजाय एक तबके विशेष के मुनाफे को साथ लेकर चल रही है तो आक्रोष बहुसंख्य तबके के भीतर लगातार बढ रहा है। जो अलग अलग तरीके से अलग अलग जगहो पर निकल भी रही है।

इस घेरे में मुस्लिम संप्रदाय सबसे पहले नजर आ रहा है तो पहली वजह तो उसकी बदहाली है। उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियां हैं, जिसका जिक्र सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में उभरा भी है। लेकिन दूसरी बडी वजह वह राजनीतिक परिस्थितियां हैं, जो सत्ताधारियों के लिये मुनाफे की चाशनी बन चुकी है। जिसे बिना किसी लाग-लपेट कर हर तरह का सत्ताधारी चाट सकता है।

मामला सिर्फ वोट बैंक का नहीं है। जहां कांग्रेस को पुचकारना है और बीजेपी को मुस्लिम के नाम पर हिन्दुओं को डराना है। बल्कि विकास की लकीर का अधूरापन और पूरा करने की सोच भी मुस्लिम समुदाय से जोड़ी जा सकती है। यह मानव संसाधन मंत्रालय से लेकर भारतीय परिप्रेष्य में संयुक्त राष्ट्र भी बखूबी समझता है।

संयोग से बीते डेढ़ दशक में जब आर्थिक व्यवस्था परवान चढ़ी, उसी दौर में व्यवस्था सबसे ज्यादा कमजोर होती भी दिखी। ऐसा नहीं है कि आहत सिर्फ धर्म के नाम पर एक समुदाय विशेष हुआ। आहत समूचा समाज हुआ तो साधू और सिपाही भी पहली बार संदेह के घेरे में आये है। सेना के भीतर कोई बहस होती है या नही, इसे देखने और उजागर करने की समझ और हिम्मत देश के किसी राजनीतिक सिपाही में नहीं है । वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में कारगिल के दौर में सेना के भीतर से आवाज निकल कर देश के पटल पर छा जाने को बैचेन थी। लेकिन सेना का कोई चेहरा नहीं होता। यह चेहरा तो वेतन आयोग की सिफारिशों के विरोध में भी उभर नहीं सका। अर्थव्यवस्था ने सिर्फ पूंजी की सीमा ही रुपये और डॉलर की नहीं मिटायी बल्कि सरकारें यह भी नही समझ सकी देश के भीतर जब देशप्रेम का जुनून ही खत्म हो चला है तो सीमा पर खड़े रहने वाला सिपाही किस अंतर्द्दन्द से गुजर रहा होगा। जब उसके सामने तो सीमा की पहरेदारी होगी लेकिन आम नागरिको के बीच जाकर उसे यह एहसास होता होगा कि देश तो बिकने को तैयार है या फिर वह रक्षा एफडीआई या विदेशी निवेश की कर रहा है, जिस पर देश टिकता जा रहा है।

सैनिको को लेकर जिस भोसले स्कूल का नाम आ रहा है, वह देश के उन पहले स्कूलों में शुमार है जो आजादी से पहले पब्लिक स्कुल की सोच को लेकर आगे बढ़े। नासिक का भोसले सैनिक स्कूल 1937 में स्थापित हुआ। और देश के सात टॉप पब्लिक स्कूलों की पहली कान्फ्रेंस 16 जून 1939 में शिमला के गोर्टन कैस्टल कमेटी रुम में हुई । इसमें भोसले सैनिक स्कूल नासिक के अलावा सिधिया स्कूल ग्वालियर, डाले कालेज इंदौर, ऐटीचीसन कालेज इंदौर, दून स्कूल देहरादून ,राजकूमार कालेज रायपुर और राजकोट के राजकुमार कालेज के अध्यक्ष या सचिव शामिल हुये थे । जिसमें देश की संसकृति के अनुरुप पव्लिक स्कूलो को आगे बढाने का खाका रखा गया था।

अब तक इन स्कूलो के 68 बैठकें हो चुकी हैं। यानी हर साल सभी जुटते जरुर हैं तो यह सवाल भी उठेगा कि जिन स्कूलों की नींव आजादी से पहले पड़ी, उसमें आजादी के बाद पव्लिक स्कूलों की भूमिका को लेकर भी क्या सवाल उठते होंगे। भोसले सैनिक स्कूल पांचवी कक्षा से बारहवी कक्षा तक हैं। यहा के कोर्स में हिन्दुत्व को लेकर महाराष्ट्र बोर्ड का ही सिलेबस पढाया जाता है । लेकिन तरीका 1935 में बनाया गया सेन्ट्रल हिन्दु मिलेट्री एजुकेशन सोसायटी वाला ही है। जाहिर है देश को लेकर जो नींव इस तरह के स्कूलो में पड़ेगी, वैसा देश नहीं है तो सवाल कहीं भी उठेंगे। नागपुर के भोसले स्कूल के वाद विवाद प्रतियोगिता में पिछले दो-तीन साल से यह सवाल छात्र उठा रहे हैं कि जिन परिस्थितयो से देश गुजर रहा है, उसमे समाधान क्या है। जाहिर है यहा राष्ट्रीय स्वंससेवक संघ के हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना उभरती होगी। जो राजनीतिक नजरीये से खतरनार मानी जा सकती है। लेकिन संघ के भीतर के संघठनों में भी जब यह सवाल उठने लगा कि वाजपेयी सरकार में भी देशवाद और हिन्दुत्व खारिज हुआ तो समाधान क्या हो। अगर मुस्लिम समुदाय को बिलकुल अलग कर भी दिया जाये तो हिन्दुत्व कट्टरवाद के आक्रोष की इतनी परते है कि पहली बार समाज के उन खेमो में अपनी ही नींव से भरोसा टूटने लगा जो मानकर चल रहे थे कि उनकी समझ समाधान दे सकती है।

साधु समाज को तो सालों साल या कहे अभी तक भरोसा ही नहीं है कि जिन्ना के लोकतंत्र की हिमायत करने वाले लालकृषण आडवाणी को आरएसएस ने माफ कर दिया। साधु-संतो के बीच हिन्दुत्व को लेकर यह बहस है कि आरएसएस जिस हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना को समेटे हुये हौ उससे लाख दर्जे बेहतर तो सावरकर थे । जो सीधे संघर्ष की बात तो करते थे। सावरकर की सोच अचानक उन संगठनो में पैठ बनाने लगी है जो आरएसएस के जरिए बीजेपी को राजनीतिक मान्यता देते रहे हैं। जाहिर है सावरकर की थ्योरी तले पहले जनसंघ खारिज था तो अब बीजेपी खारिज हो रही है। इसलिये साध्वी प्रज्ञा को साधु-संतो के बीच अचानक एक प्रतीक भी बनाया जा रहा जो बिगडती व्यवस्था में हिन्दुत्व की नयी थ्योरी को पैदा कर सके । इसलिये बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिह हो या आरएसएस के सरकार्यवाहक मोहनराव भागवत दोनों यही कह रहे है कि भारतीय संस्कृति से जुड़ा व्यक्ति आतंकवादी नहीं हो सकता । वहीं कांग्रेस मुस्लिमो को रिझाने के लिये संकेत की भाषा अपना रही है कि संघी हिन्दुत्व भी आतंकवाद की राह पर है। लेकिन हर कोई फिर उन परिस्थितयो से आंख मूंद रहा है जो समाज के भीतर तनाव पैदा कर राज्य के प्रति अविश्वास को जन्म दे रही हैं। इसलिये जयपुर-अहमदाबाद-दिल्ली के आतंकवादी घमाको में मुस्लिम और मालेगांव में हिन्दु आतंकवादी नजर आ रहा है। जबकि हर कोई भूल रहा है दोनो भारतीय नागरिक हैं।