आतंकवाद के राजनीतिक संकेत को अंजाम देने की सामाजिक फितरत

छह दिसबंर 1992 को दोपहर दो से तीन बजे के दौरान नागपुर के महाल स्थित मोहल्ले में आरएसएस मुख्यालय के ठीक बगल की खुली जगह पर पुलिस जुटने लगी थी। अयोध्या से बाबरी मसजिद ढहाने की खबर जैसे जैसे आ रही थी, आरएसएस मुख्यालय में सरगरमी बढ़ रही थी। संघ के स्वयंसेवकों से लेकर छिटपुट पदाधिकारियों की मौजूदगी में यह एहसास समूचे इलाके में था कि जो कहा, सो किया। यानी पहली बार उस जीत का एक एहसास संघ मुख्यालय या कहे महाल मोहल्ले की गलियों में महसूस किया जा सकता था, जिसे आजादी के ठीक बाद से कभी महसूस नहीं किया गया था।

महाल का जिक्र इसलिये क्योंकि इस मोहल्ले में कमोवेश हर परिवार संघ का स्वयंसेवक है। और पहला एहसास इसलिये क्योंकि आजादी से पहले और बाद की दो घटनाएं संघ के स्वयंसेवकों को टीस दिये हुये थीं। दरअसल, हिन्दुत्व को लेकर संघ की पहल को सावरकर ने कभी मान्यता नहीं दी। इसी वजह से सावरकर नागपुर आये तो भी संघ मुख्यालय नही गये। हालांकि संघ के मुखिया से मुलाकात में कोई गुरेज नहीं किया लेकिन महाल में संघ के स्वयंसेवकों को हमेशा यह एहसास रहा कि सावरकर के तेवर के आगे संघ हिन्दुत्व बौना है।

नागपुर के काटन मार्केट की एक सभा में सावरकर यह कहने से भी नहीं चूके कि सांस्कृतिक संगठनों से देश हिन्दुत्व की राह पर नहीं चल निकलेगा। खैर महाल के स्वयंसेवकों को दूसरी टीस गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध का लगना था। लेकिन

6 दिसंबर 92 की दोपहर जिस जगह पर पुलिस जमा हो रही थी, उसी खुली जगह पर संघ के सरसंघचालक देवरस की कुर्सी भी लगा दी गयी। देवरस करीब तीन-साढे तीन बजे संघ मुख्यालय के अपने घर के बगल की इस खुली जगह पर दो लोगों का सहारा लेकर आये और लकड़ी की उस कुर्सी पर बैठ गये । करीब तीन दर्जन पुलिसकर्मियों ने समूचे क्षेत्र को घेर रखा था। पत्रकारों की भीड़ मौजूद थी। सभी की बातों का जबाब भी देवरस दे रहे थे। पुलिस ने इसके संकेत दे दिये थे कि देवरस की गिरफ्तारी होगी। लेकिन उनकी बिगडी तबीयत की बजह से उन्हे संघ मुख्यालय में ही नजरबंद कर रखा जायेगा। जैसे ही इसकी पहल पुलिस ने शुरु की अचानक कुछ लडकियों और महिलाओ ने देवरस के इर्द-गिर्द घेरा बना लिया। जानकारी मिली की यह दुर्गावाहिनी से जुड़ी हुई हैं। पुलिस टीम में कोई महिला पुलिसकर्मी थी नहीं तो नजरबंदी की पहल रुक गयी क्योंकि पुलिस से दो-दो हाथ करने को दुर्गा वाहिनी की लड़कियां तैयार थीं।

बाबरी मस्जिद को लेकर और अयोध्या में राम मंदिर को लेकर पत्रकारो के सवाल जबाब के बीच देवरस बार बार यह संकेत दे रहे थे कि बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना कोई आखिरी या पहली सफलता नहीं है बल्कि रणनीति का एक हिस्सा मात्र है । जिसे राजनीतिक तौर पर देखना और समझना चाहिये चाहे यह सास्कृतिक संघर्ष नजर आ रहा हो। ऐसे में डंडो से लैस दुर्गावाहिनी की लड़कियां जैसे ही पुलिस से दो-दो हाथ करने को नजर आयीं तो मैंने सरसंघचालक देवरस से पूछा, “दुर्गावाहिनी के इसतरह इस्तेमाल का मतलब क्या निकाला जाये..जब यह सहमति बन चुकी है कि आपको आप ही के निवास में नजरबंद रखा जायेगा।” इस पर देवरस का जबाब था कि दुर्गावाहिनी को भी समझना होगा कि कल को उनकी परिस्थतियां किन वातावरण के घेरे में आ सकती हैं। फिर यह एक तैयारी है जिसमे सभी को भागीदारी देनी होगी । इस पर मेरा सवाल था–क्या यह राजनीतिक समझ विकसित करने की तैयारी है । देवरस ने कहा-सास्कृतिक संघर्ष है । लेकिन राजनीति से तो अछूता कुछ भी नहीं । फिर हंसते हुये बोले, आपलोगों से ज्यादा से ज्यादा बात हो सके, इसके लिये दुर्गावाहिनी ने रास्ता बना दिया आप उन्हे बधायी दें। कुछ देर में ही महिला पुलिसर्मियों की टुकड़ी पहुंची और कुछ विरोध और नारों के बीच देवरस को नजरबंद कर लिया गया ।

वहीं अगले दिन नागपुर के मुस्लिम बहुल इलाके मोमिनपुरा के लोगों ने बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के विरोध में एक रैली निकालने का निर्णय लिया । रैली निकल रही है, उसकी जानकारी पुलिस के पास भी पहुंची । पुलिस और रैली निकालने वालों की तकरार के बाद तय हुआ की रैली शहर में नहीं घूमेगी । मोमिनपुरा से निकल कर आधे किलोमीटर का चक्कर लगा कर वापस मोमिनपुरा की गलियों में चली जायेगी और सभा भी वही करेगी । रैली दोपहर में जब निकली तो काले झंडे और बैनर के साथ नारे भी लग रहे थे। लेकिन जैसे ही मोमिनपुरा के मुहाने पर रैली पहुंची, पुलिस ने मुख्य सड़क पर रैली न लाने का निर्देश देकर वहीं सभा करने को कहा। नारे लगा रहे युवाओं में इससे आक्रोष भड़का। उनका कहना था कि वह बाबरी मस्जिद को ढहाये जाने के विरोध का सार्वजिक इजहार भी नहीं कर सकते। वे पुलिस बैरिकेट तोड़कर सड़क पर आने लगे । पुलिस ने लाठिया भांजी । लेकिन महज पांच मिनट के भीतर ही उस वक्त के नागपुर के पुलिस कमिश्नर ईनामदार ने गोली चलाने का निर्देश दे दिया। करीब 22 राउंड से ज्यादा गोलियां चलीं। 13 लडकों की मौत हो गयी। बीस से ज्यादा घायल हो गये। जो लड़के मरे वह सभी मोमिनपुरा के भीतर ही मरे। इतना ही नहीं मोमिनपुरा के एक छोर से दूसरे छोर तक लाशें गिरीं। पुलिस ने महज मुख्य सड़क रक रैली को आने से ही नहीं रोका बल्कि आक्रोष दबाने के लिये मोमिनपुरा के भीतर घरों में घुसकर युवाओ की डंडो से जमकर पिटाई की। जो बाहर निकला उसे गोली मार दी। किसी लड़के के शरीर में गोली कमर से नीचे नही लगी । नागपुर के लिये यह अपने तरह की पहली घटना थी, क्योकि इससे पहले कभी पुलिस की गोली चली और लोग मरे यह बुनकरो के आंदोलन में हुआ था या फिर दलित आंदोलन के उग्र रुप धारण करने पर।

लेकिन,यह पहला मौका था जब 6 दिसंबर की घटना के 48 घंटो के बाद ही समूचे शहर को लगने लगा कि मोमिनपुरा और महाल की पांच किलोमीटर की दूरी सीमा पार सरीखी दूरी हो गयी है। यह घटना उस वक्त तो कानून-व्यवस्था को बरकरार रखने के दायरे में सिमट कर थम गयी लेकिन उस दौर से लेकर आंतकवाद का दामन पकड कर अपने आक्रोष को ठंडा करने या समाधान की राह सोचने की जो समझ विकसित होती चली गयी वह आज मुंह बाएं सामने खड़ी है।

जाहिर है अयोध्या की घटना के बाद देश ने जो देखा समझा या कहे राजनीति ने सत्ता का दामन पकड़ कर अपनी सहुलियतों को जिस तरह सियासी रंग में रंग दिया इसमें दोनो ही तबकों के हाथ खाली रहे। इतना ही नहीं सियासी रंग इतना गाढ़ा हुआ कि देश के बहुसंख्यक तबके ने खुद को ठगा महसूस किया। समूचे देश में मुस्लिमो ने मोमिनपुरा सरीखे मोहल्लो से निकलना बंद किया और उनके इजहार का तरीका उन्हीं तक सिमटता गया, जिसे कभी कांग्रेस ने तो कभी मुस्लिम लिडरानों ने राजनीति का हथियार बनाया । कमोवेश आरएसएस का भी अपने घेरे में यही हाल हुआ। देवरस सरीखा कोई सरसंघचालक उनके बाद न हुआ जो खुले आसमान तले सवालो का जबाब देने आता। या फिर सांस्कृतिक आंदोलन को भी राजनीतिक तौर पर ढालने का मंत्र जानता। बंद कमरो में रणनीति बनने लगी और अपने अपने घेरे में लोकतंत्र के कई आधार स्तंभ ढहाये गये और उसे सफलता मान कर जीत का राजनीतिक आंतक पैदा किया गया।

ऐसे मे साधु-संतो के बीच हिन्दुत्व को लेकर यह नयी बहस है कि आरएसएस जिस हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना को समेटे हुये हो, उससे लाख दर्जे बेहतर तो सावरकर थे, जो सीधे संघर्ष की बात तो करते थे । सावरकर की सोच अचानक उन संगठनो में पैठ बनाने लगी है जो आरएसएस के जरिये बीजेपी को राजनीतिक मान्यता देते रहे हैं । जाहिर है सावरकर की थ्योरी तले पहले जनसंघ खारिज था तो अब बीजेपी खारिज हो रही है। इसलिये साध्वी प्रज्ञा को साधु-संतो के बीच अचानक एक प्रतीक भी बनाया जा रहा जो बिगड़ती व्यवस्था में हिन्दुत्व की नयी थ्योरी को पैदा कर सके। इसलिये बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिह हो या आरएसएस के सरकार्यवाहक मोहनराव भागवत दोनों यही कह रहे है कि भारतीय संस्कृति से जुड़ा व्यक्ति आतंकवादी नहीं हो सकता । वहीं कांग्रेस मुस्लिमो को रिझाने के लिये संकेत की भाषा अपना रही है कि संघी हिन्दुत्व भी आंतकवाद की राह पर है।

हालांकि साध्वी-साधु प्रकरण से यह ख्याल जरुर बढ़ाया जा रहा है कि आंतकवाद का धर्म से कुछ भी लेना देना नहीं है । लेकिन राजनीतिक तौर पर नया सच यह भी है कि अगर आंतकवाद का धर्म होता है तो धर्म के आसरे किया गया आंतकवाद, आंतकवाद नही कुछ और होता है। दरअसल, 6 दिसबंर 1992 को बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद सरसंघचालक देवरस ने इसी संकेत की बात की थी कि अयोध्या का मतलब महज मंदिर निर्माण नहीं हिन्दुत्व जागरण है और मोमिनपुरा में विरोध का इजहार रोक कर पुलिस की गोली ने इस संकेत को अंजाम दिया था। संयोग से देश इसी राजनीतिक संकेत और अंजाम के बीच झूल रहा है, बच सकते हैं तो बचें।