संघ या भाजपा में किसका ज़हर किसे डसेगा ?

बीजेपी को कौन ठीक करेगा ? ये कुछ ऐसा ही है जैसे पीसा की झुकती मीनार को कौन सीधा कर देगा। यह टिप्पणी संघ के ही एक बुजुर्ग स्वयंसेवक की है, जो उन्होंने और किसी से नहीं बल्कि जम्मू में सरसंघचालक से कही । इसका जबाब भी सरसंघचालक की तरफ से तुरंत आया कि संघ सांस्कृतिक संगठन है, उसे राजनीतिक से क्या लेना देना। इस पर एक दूसरे स्वयंसेवक ने सवाल उठाया कि राजनीति करने वाले भी अगर स्वयंसेवक है और वह भटक गये हैं तो उन्हें कौन ठीक करेगा। इसपर सरसंघचालक का जबाब आया कि भटकाव की एक उम्र होती है, एक उम्र के बाद भटकाव नहीं निजी स्वार्थ होते हैं। उन्हे दुरस्त करने के लिये किसी भी स्वयंसेवक को पहले अपने आप से जूझना पड़ता है। यह शुद्दीकरण है।

 

जाहिर है यह संवाद लंबा भी चला होगा । लेकिन यह संवाद संघ के संस्थापक और पहले सरसंघचालक हेडगेवार की तरह का है । जब हेडगेवार ने हिन्दू राष्ट्र का सवाल काशी की एक सभा में उठाया तो वक्ताओ में से सवाल उछला कि कौन मूर्ख कहता है कि यह हिन्दू राष्ट्र है । इसपर हेडगेवार ने न सिर्फ हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना को सामने रखा बल्कि हिन्दुओ को लेकर ही उस सवाल का भी जबाब दिया, जिसमें कहा गया कि चार हिन्दू भी कभी एक रास्ते नहीं चलते। जब तक शवयात्रा में शामिल न हों।

 

लेकिन यही सवाल बदले हुये रुप में संघ के सामने 84 साल बाद भी भाजपा को लेकर खड़ा हो गया है। संघ के भीतर भाजपा को लेकर चार हिन्दुओ की कथानुसार सवाल उठने लगे हैं कि सत्ता के मारे भाजपा के चार नेता भी एक दिशा में नहीं चल रहे । और अगर सत्ता होती तो सभी एक दिशा में चल पड़ते । सवाल जबाब के इस सिलसिले में अपने ही राजनीतिक संगठन और अपने ही स्वयंसेवकों को लेकर सरसंघचालक मोहनराव भागवत को भी आठ दशक पुराने उन तर्को को ही सामने रखना पड़ रहा है, जिसको कभी हेडगेवार ने सामने रखा था । भाजपा की उथल-पुथल ने संघ को अंदर से किस तरह हिला दिया है, इसका अंदाज इसी बात से लग सकता है कि नागपुर के हेडगेवार भवन के परिसर में स्वयंसेवकों की सबसे बड़ी टोली जो हर सुबह शाम मिलती है, उसमें बीते रविवार इस बात को लेकर चर्चा शुरु हो गयी कि भाजपा की समूची कार्यप्रणाली सिर्फ राजनीतिक सत्ता की जोड़-तोड़ में ठीक उसी तरह चल रही है जैसे कांग्रेस में चला करती है। इसलिये भाजपा के स्वयंसेवक भी संघ से ज्यादा कांग्रेस से प्रभावित हैं। यानी कांग्रेसीकरण की दिशा को भाजपा ने आत्मसात कर लिया है ।

 

असल में चर्चा इतनी भर ही होती तो भी ठीक है । कुछ पुराने स्वयंसेवको ने भाजपा की त्रासदी का इलाज हेडग्वार की सीख से जोड़ा । चर्चा में बकायदा हेडगेवार के उस प्रकरण को सुनाया गया जो उन्होंने कांग्रेस छोडकर आरएसएस बनाने की दिशा में कदम बढ़ाये । स्वयंसेवकों को जो किस्सा वहां सुनाया गया उसके मुताबिक,

 

” कलकत्ता से मेडिकल की पढ़ाई पूरी करने के बाद डॉक्टर हेडगेवार तीन हजार रुपये की नौकरी छोड़ कर नागपुर आ गये । जहा वह कांग्रेस में भर्ती हो गये। 1920 में नागपुर में काग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ, डा हेडगेवार उसकी व्यवस्था में लगे स्वयंसेवी दल के प्रमुख थे । दिन रात परिश्रम करके उन्होने अधिवेशन को सफल बनाया । नागपुर के युवकों की ओर से पूर्ण स्वतंत्रता प्रप्ति तक अविराम संघर्ष करते रहने का प्रस्ताव भी उन्होंने अधिवेशन में रखवाया । 1921 के असहयोग आंदोलन में वे एक साल के लिये जेल भी गये । वहां उन्होंने देखा कि अपने भाषणो में बड़े-बड़े आदर्शो की बात करने वाले कांग्रेसी नेता जेल में एक गुड के टुकड़ों के लिये कैसे लड़ते हैं। मुस्लिम तुष्टीकरण,अनुशासनहीनता और निजी स्वार्थपरता जैसी कांग्रेस-चरित्र की विशेषताओ को देखकर उनका मन इस ओर से खट्टा हो गया । इसके बाद ही उन्होंने सोचा ही बिना हिन्दू संगठन के भारत का उत्थान संभव नहीं है, क्योकि हिन्दू समाज ही देश का एकमेव समाज है। इसी के बाद 1925 में विजयी दशमी के दिन राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ की स्थापना की।”

 

हेगडेवार की इस कथा के बाद स्वयसेवक इस सवाल से जूझते है कि भाजपा की वजह से क्या संघ को लेकर हेडगेवार की सोच मर जायेगी । चर्चा आगे बढ़ती है तो भाजपा से बेहतर संघ के स्वयंसेवकों को वही काग्रेस भी नजर आने लगती है, जिसके खिलाफ कभी हेडगेवार कडे हुये थे । अनुशासन को लेकर कांग्रेस और भाजपा की तुलना । फिर निजी स्वार्थ को लेकर भाजपा नेताओं पर अंगुली उठाते हुये गिनती कम पड़ना । और फिर सत्ता के लिये गठबंधन की राजनीति को मुस्लिम तुष्टीकरण से कहीं ज्यादा खतरनाक ठहराते हुये यह सवाल करना कि संघ को कहां तक भाजपा को फिर से मथने के लिये जुटना चाहिये।

संघ के स्वयसेवको के भाजपा को लेकर यह सवाल सिर्फ नागपुर तक सीमित हो ऐसा भी नहीं है । यह सवाल राजकोट में भी मौजूद हैं और असम में भी । लेकिन संघ के लिये बड़ा सवाल यही से शुरु होता है । क्योंकि इस दौर में संघ अगर भाजपा को देखकर कोई टीका-टिप्पणी ना करे तो संघ की मौजूदगी का एहसास संघ में ही नहीं होता । इसलिये महत्वपूर्ण यह नहीं है कि सरसंघचालक भाजपा से जुडे हर सवाल का जबाब जहां जाते हैं, वहां पत्रकारों को देखकर या कहे कैमरो को देखकर देने लगते हैं। बल्कि पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन भी इसी तरह की प्रतिक्रिया देने लगे हैं । जैसा वह सरसंघचालक रहते हुये किया करते थे और सबसे अलोकप्रिय होते चले गये। स्थिति संघ के लिये इससे आगे बिगड़ रही है । पिछले दस वर्षो में वाजपेयी की अगुवायी में संघ के स्वयंसेवकों ने पांच साल देश जरुर चलाया। लेकिन इसी दौर में संघ अपनी जमीन पर ही परायी होती गयी और उसकी खुद की जमीन भी भाजपा की सत्ता महत्ता को बनाये रकने पर आ टिकी है। भाजपा के संकट ने संघ के सामने 84 साल में पहली बार ऐसी चुनौती रखी है, जहां से खुद का शुद्दीकरण पहले करना है। संघ का कोई संगठन पिछले दस वर्षो में सरोकार से नहीं जुटा। यानी जिस संगठन का जिस क्षेत्र में जो काम है, उसकी विसंगतियो से जूझते हुये हिन्दू समाज की व्यापकता को एकजुट करने की जो सोच हेडगेवार और गोलवरकर से होते हुये देवरस और रज्जू भैया तक फैली, उस पर भाजपा के उफान के दौर में कुछ इस तरह ब्रेक लगी कि संघ भी पिछडता चला गया ।

 

सवाल यह नहीं है कि जनसंघ और फिर भाजपा को संघ ने एक ठोस जमीन दी, इसीलिये उसे राजनीतिक सफलता मिली । महत्वपूर्ण है कि लोहिया से लेकर जेपी भी इस तथ्य को समझते रहे कि संघ के तमाम संगठन, जो अलग अलग क्षेत्रो में काम कर रहे हैं, अगर उन्हे साथ जोड़ा जाये तो राजनीतिक सफलता के लिये एक बडे समाजिक कार्य पर जाया होने वाले वक्त को बचाया जा सकता है। वनवासी कल्य़ाण आश्रम, भारतीय किसान संघ, विघा भारती, भारत विकास परिषद, संस्कार भारती, सेवा भारती, प्रज्ञा भारती, लधु उघोग भारती, सहकार भारती, विज्ञान भारती, ग्राहक पंचायत से लेकर हिन्दू जागरण मंच और विश्वहिन्दू परिषद जैसे दो दर्जन से ज्यादा संगठन संघ की छतरी तले देश के तीस करोड़ लोगो के बीच अगर काम रहे हैं तो उसका लाभ किसी भी राजनीतिक दल को मिल सकता है। इसका लाभ 1967 में गैर कांग्रेसवाद के नारे लगाते लोहिया ने भी उठाया और 1977 में जेपी ने जनता पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने में भी उठाया । और यहां यह भी कहा जा सकता है कि 1990 में अयोध्या आंदोलन की अगुवायी करते लालकृष्ण आडवाणी उस मानसिकता के बीच नायक भी बनते चले गये जो चाहे अयोध्या आंदोलन का आडवाणी तरीका पंसद ना करता हो लेकिन संघ के तौर तरीके सो अलग अलग संगठनो के जरीये जुड़ा था।

 

1999 में वाजपेयी की जीत के पीछे महज कारगिल जीत का भावनात्मक प्रचार नहीं था, बल्कि सुदूर गांवो में भी संघ की शाखा इस बात का एहसास करा रही थी कि भाजपा कहीं अलग है । या कहे कांग्रेस से अलग राजनीतिक दल है, जो सरोकार को समझता है । लेकिन इसका एहसास कियी को नहीं था कि भाजपा की सत्ता संघ के लिये धीमे जहर का काम करेगी । यह ज़हर संघ के भीतर बीते दस साल में किस तरह फैलता चला गया इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि 1998 के बाद से सिवाय विश्व हिन्दू परिषद के किसी संघठन की सदस्य सख्या में इजाफा नहीं हुआ। उतना ही नहीं जिन संगठनो ने जो भी मुद्दे उठाये, उन सभी मुद्दों का आंकलन राजनीतिक तौर पर भाजपा के घेरे में पहले हुआ, उसके बाद संघ के सरोकार का सवाल उठा।

 

आदिवासी, मजदूर, किसान , शिक्षा व्यवस्था, स्वदेशी यानी कोई भी मुद्दा भाजपा के लिये घाटे का है या मुनाफे का, इसकी जांच परख पहले हुई । फिर सत्ता में भाजपा के साथ खड़े राजनीतिक दलों की भी अपनी अपनी राजनीतिक जरुरत थी, तो भाजपा की राजनीतिक प्रयोगसाला में आने के बाद किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच, वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती, हिन्दू जागरण मंच सभी कुंद कर दिये गये। क्योंकि इनके मुद्दे सरकार को परेशानी में डाल सकते थे। और जो लकीर आर्थिक सुधार के भाजपा के दौर में भी खींची, उसको इतनी महत्ता दी गयी कि उस वक्त सरसंघचालक सुदर्शन ने अपने से बुजुर्ग और ज्यादा मान्यताप्राप्त दंतोपंत ठेंगडी को भी खामोश करा दिया।

 

नया सवाल इसलिये गहरा है क्योंकि भाजपा के पास सत्ता है नहीं। और संघ के संगठनों की सामाजिक पहल भी भाजपा सरीखी ही हो चुकी है। यानी संघ का कोई संगठन अपने ही मुद्दे को लेकर कोई आंदोलन तो दूर मुद्दों पर सहमति बनाकर अपने क्षेत्र में ही किसी प्रकार का दबाब बना नहीं सकता है। स्थिति कितनी बदतर हो चली है, यह पिछले हफ्ते संघ के संगठनो की पहल से ही समझ लें। संघ के संगठनों ने पिछले हफ्ते जो काम किये, उसमें पर्यावरण को लेकर भोपाल में गोष्ठी है। जिसमें पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन ने कहा कि पश्चिमी देशो के सिद्दांत से ही पर्यावरण संतुलन बिगड़ा है । हिन्दु मंच ने दिल्ली में आतंकवाद मुक्त पखवाड़ा मनाया, सेवा भारती ने उदयपुर में 695 मरीजो को शिविरो में जांचा । विश्वहिन्दू परिषद ने तमिलनाडु में कोडईकनाल के घने जंगलो में 207 वन बंधुओ की स्वधर्म वापसी करायी । नारी रक्षा मंच ने संस्कार को लेकर इंदौर में एक सम्मेलन किया। लखनऊ में स्व अधीश कुमार स्मृति व्याख्यानमाला हुई । आदित्य वाहिनी ने उड़ीसा में सनातन धर्म को बनाया। दुर्गा वाहिनी ने भारत तिब्बत सीमा पर सैनिको को रक्षा सूत्र बांधे। कह सकते हैं कमोवेश हर संगठन की कुछ ऐसी ही पहल बीते हफ्ते रही या कहें भाजपा के राजनीतिक हितो को साधने वाले संघ के तौर तरीको ने तमाम संगठनो को इसी तरह की सामाजिक कार्यो में लगा दिया। जहां सिवाय संबंघ बनाने और सामाजिक समरसता का भाव समाज में फैलाते हुये भरे पेट के साथ आराम तलबी के अलावे कुछ नहीं बचा।

 

संघ की जब यह हालात अपने संगठनो को लेकर है तब सवाल पैदा होता है कि उससे भाजपा को क्या राजनीतिक फायदा हो सकता है और भाजपा संघ को महत्ता क्यो दे। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि संघ के इन्ही संगठनों को जिलाये बगैर भाजपा का भी राजनीतिक भला नहीं हो सकता है क्योकि राजनीति चाहे सरोकार से नहीं सौदेबाजी से चलती है, लेकिन भाजपा के नेताओं को सौदेबाजी के टेबल तक पहुचने के लिये संघ का सरोकार चाहिये ही। नया सवाल है कि इन संगठनों में सरोकार की जान कैसे फूंकी जाये । खासकर जब संगठन से बड़े मुद्दे हो चले हैं और मुद्दो को लेकर कोई राजनीति इस देश में बची नहीं है। यानी एक तरफ जिन मुद्दो के आसरे हेडगेवार हिन्दु राष्ट्र का सपना संजोये थे, वही मुद्दे कही ज्यादा व्यापक हो कर राजनीति और संगठन को ही खत्म कर रहे हैं। तब संकट यह है कि इन मुद्दो को किस तरह उठाया जाये, जिससे संघ की पुरानी हैसियत भी लौटे और भाजपा भी महसूस करे कि उसका राजनातिक लाभ संघ के बगैर हो नहीं सकता । क्योंकि नये तरीके की राजनीति और सरोकार गुजरात की तर्ज पर उठ रहे हैं, जो आतंक की लकीर तले विकास और सत्ता को इस तरह रखता है। राजनीति सिमटती है और विकास से जुड़े मुद्दे धर्म का लेप चढ़ा लेते हैं। इन सब के बीच गठबंधन की सोच सर्व धर्म सम्माव की धज्जिया उड़ाती है और नरेन्द्र मोदी सरीखी मानसिकता संघ से भी बड़ी हो जाती है और सत्ता की सौदेबाजी भी मोदी के आगे छोटी होने लगती है।

 

इन नयी परिस्थितियो में अगर दिखायी देने वाला संकट विचारधारा के घेरे में संघ और भाजपा दोनों एक दूसरे के सामने खड़े हुये हैं । तो संघ परिवार की नयी बैचेनी एक-दूसरे के अंतर्विरोध को ठिकाने लगाकर खुद को खड़े करने की पैदा हो चली है। इसमें मुश्किल यह हो गयी है कि भाजपा के भीतर अगर आडवाणी को चुनौती देने के लिये एक अदना सा कार्यकर्त्ता भी खुद को सक्षम मान रहा है तो संघ में एक अदना सा स्वयंसेवक सरसंघचालक से बेहतर समाधान की बात कहने लगा है । यानी सत्ता की लड़ाई में सत्ताधारी ही महत्वहीन बन गये हैं।