संघ के भीतर का अंधेरा

बीजेपी और संघ के वरिष्ठ चाहे समझौता एक्सप्रेस, मालेगांव, हैदराबाद और अजमेर ब्लास्ट पर खामोशी ओढ़े रहें लेकिन स्वयंसेवकों में पहली बार इस सवाल पर खदबदाहट खुलकर उभरी है कि अगर अजय राहीकर,लेफ्ट.कर्नल श्रीकांत प्रसाद पुरोहित, राकेश घावडे से लेकर साध्वी प्रज्ञा और स्वामी दयानंद पांडे को कानूनन आतंकवादी करार देने की दिशा में सरकार कदम बढ़ा रही है तो फिर उनकी भूमिका क्या होनी चाहिये। यह सवाल स्वयंसेवकों में किस तेजी से उभर रहा है, इसका खुला अंदाजा पिछले दिनों तिरुअंनतपुरम में तब मिला, जब सरसंघचालक मोहन भागवत केरल में संघ ने नये मुख्यालय शक्ति निवास का उद्घघाटन करने पहुंचे। न चाहते हुये भागवत पर दबाव बना कि उन्हें आतंक और हिन्दुत्व को लेकर संघ की परिभाषा सामने रखनी ही चाहिये। मोहन भागवत ने भी इस मुद्दे की संवेदनशीलता समझा और कहा, “संघ नहीं मानता है कि ताकत भय,घृणा और हिंसा से आती है। संघ किसी भी तरह की हिंसा और घृणा के विरुद्घ है। संघ का उद्देश्य प्रेम, शांति और संगटन के जरीये हिन्दू समाज की सनातन शक्ति को जागृत करना है।”

 

लेकिन केरल जैसी जगह पर वामपंथियो से हिंसक तरीके से दो-दो हाथ करने वाले स्वयंसेवकों के जब सवाल उठे कि अगर संघ नहीं है तो फिर उस पर साधे जा रहे निशाने का जवाब देने के लिये कोई पहल क्यों नहीं हो पा रही है। हालांकि भागवत ने मीडिया पर ठीकरा फोड़ते हुये कहा कि यह संघ को बदनाम करने के लिये दुष्प्रचार किया जा रहा है। लेकिन स्वयंसेवकों के इस रुख ने पहली बार संघ के भीतर भी यह सवाल खड़ा किया है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अपनी भूमिका क्या और किस रुप में होनी चाहिये। असल में स्वयंसेवकों के भीतर की इसी कश्मकश को लेकर संघ के वरिष्ठों में भी अब बैचैनी आ गयी है। लेकिन इस बैचेनी में स्वयंसेवक न सिर्फ खुद को मथने लगे हैं बल्कि देश भर में चल रहे संघ के डेढ लाख से ज्यादा सेवा प्रकल्पों में भी एक सवाल तेजी से उभर रहा है कि आखिर उनका रास्ता जा किधर रहा है।

 

इससे पहले स्वयंसेवकों के सवालो का जबाब राजनीतिक सत्ता अक्सर देती थी। जिससे सरसंघचालक के सामने भी स्वयंसेवकों की दिशा तय करने में कोई परेशानी नहीं होती थी। लेकिन पहली बार संघ के मुखिया के सामने भी यही सवाल है कि देश की राजनीतिक सत्ता का ही जब इक्नामिक ट्रासंफोरमेशन हो रहा है तो उसमें हिन्दू समाज में सनातन शक्ति जागृत करने का कौन सा तरीका कारगर हो सकता है जिससे स्वयंसेवकों के सामने एक लक्ष्य तो नजर आये। आर्थिक बदलाव ने हिन्दु समाज को भी प्रभावित किया है और स्वयंसेवकों की नयी पीढ़ी इसी प्रभावित समाज के कंघों पर सवार होकर आगे बढ़ी है। फिर आर्थिक बदलाव ने संघ के उस आर्थिक स्वावलंबन को भी तोड़ा है जो पहले को-ओपरेटिव आंदोलन से लेकर फुटकर बाजार की थ्योरी तले स्वयंसेवको को आश्रय देते थे। यानी संघ का रास्ता समाज के शुद्दीकरण के उस चौराहे पर जा खड़ा हुआ है, जहां उसका अपना नजरिया चौराहे पर की बे-लगाम आवाजाही को लाल-हरी-पीली बत्ती के आसरे नियंत्रण में लाने का भ्रम बनाये रखना चाहती है। और यह भ्रम है अगर इसको लेकर स्वयंसेवकों में सवाल खड़े हो जाये तो रास्ता किधर जायेगा, इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है।

 

संघ के सामने सबसे बड़ी मुश्किल अपने राजनीतिक संगठन बीजेपी को लेकर भी है और बीजेपी से राजनीतिक तौर पर टकराते विश्व हिन्दु परिषद. स्वदेशी जागरण मंच , किसान संघ से लेकर आदिवासी कल्याण संघ के रास्तों को लेकर भी है। लेकिन आरएसएस के सामने सबसे मुश्किल घड़ी आज इस मायने में है कि आरएसएस के निर्माण से लेकर यानी 1925 से लेकर 1998 तक कमोवेश हर एक-डेढ दशक में संघ ने कोई ना कोई ऐसा कदम जरुर उठाया, जिससे स्वयंसेवकों की ऊर्जा को एक दृश्टि मिली या कहें एक रास्ता मिला। जिसमें स्वयंसेवक हमेशा इस गर्व में रहा कि वह आरएसएस से जुड़ा है।

 

डां. हेडगेवार कांग्रेस से निकले और उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती संगठन के विस्तार और कांग्रेस से बड़ी मान्यता पाने की तड़प थी। स्वयंसेवकों ने इस चुनौती को स्वीकारा और भाउराव देवरस लखनऊ पहुंचे तो एकनाथ रानाडे महाकौशल और राजाभाउ पातुरकर लाहौर गये तो वसन्तराव ओक दिल्ली आये। इसी तरह दादाराव परमार्थ को दक्षिण और बाला साहब देवरस को कलकत्ता भेजा गया। इसी तरह नरहरि पारिख और बापूराव दिवाकर को बिहार भेजा गया। और सभी स्वयसेवक इस चुनौती पर खरे भी उतरे। और 1934 में जब वर्धा में संघ का शिविर लगा तो महात्मा गांधी भी संयोग से वहीं थे और हेडगेवार के आग्रह पर उन्होंने संघ शिविर देखकर छुआछुत और भेदभाव छोड़कर सभी को एकसाथ खड़े देखकर खुशी जाहिर की। स्वयंसेवकों को मान्यता मिली और हेडगेवार ने पहली बाधा पार की। फिर चौदह साल बाद 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद स्वयंसेवकों के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनी मान्यता वापस पाने की थी। 1 फरवरी 1948 को सरसंघचालक गुरु गोलवरकर की गिरफ्तारी और 4 फरवरी को संघ पर पाबंदी ने स्वयंसेवकों के सामने आस्तित्व का संकट पैदा किया। यानी फिर स्वयंसेवकों को चुनौती मिली और असर यही हुआ कि 21 जनवरी 1949 तक करीब 60 हजार स्वयसेवकों ने गिरफ्तारी दी। उसके बाद सरकार ने संघ से प्रतिबंध उठाया। और स्वयसेवको को लगा उनका रास्ता सही है। लेकिन नेहरु से टकराव और सरकार से मान्यता पाने की दिशा में चीन के साथ युद्द में संघर्ष काम आया। 13 साल बाद 1962 में चीनी आक्रमण के वक्त स्वंयसेवकों ने जिस तरह जनता का मनोबल ऊंचा उठाते हुये सेना के लिये जन-समर्थन जुटाया और सीमा पर जाकर घायल सैनिकों का उपचार किया, उसका असर यही हुआ कि पहली बार 26 जनवरी 1963 में गणतंत्र दिवस की परेड में हिस्सा लेने के लिये संघ को भी आंमत्रित किया गया।

 

स्वयंसेवकों का उत्साह कुलाचे मारने लगा और उन्हें लगा उनका रास्ता सही है। सरसंघचालक गुरुगोलवरकर को भी मान्यता मिली। वही फिर 12 साल बाद 1975 में संघ के सामने कांग्रेस के खिलाफ जेपी के विकल्प का साथ देने और आपातकाल से जूझने का सवाल उठा। तो सरसंघचालक देवरस ने राजनीतिक तौर पर स्वयंसेवकों को पहली बार तैयार किया और स्वयंसेवकों को भी लगा उनका रास्ता सही है क्योकि उस वक्त 1977 में देश ने भी स्वयंसेवकों को सही ठहराया और सत्ता पलटी। ठीक तेरह साल बाद अयोध्या आंदोलन में भी स्वयंसेवकों को हिन्दुत्व राजनीति का जो पाठ पढ़ाया गया और बीजेपी से लेकर संघ के मुखिया तक ने जिस रास्ते को पकड़ा, उसे स्वयंसेवकों ने 6 दिसबंर को 1992 को ना सिर्फ सही माना बल्कि 1998 में जब पहली बार स्वयसेवक सत्ता में आये तो संघ ने खुल्लमखुल्ला इसका ऐलान किया कि उसका रास्ता सही है।

 

लेकिन 1998 से लेकर 2004 तक के दौर में समाज और सत्ता के बीच की दूरियों को और किसी ने नहीं स्वयंसेवकों ने ही बढ़ाया। सामाजिक शुद्दीकरण और हिन्दू समाज की सतनामी शक्ति को जागृत करने की सोच ढीली पड़ी और संघ के स्वयंसेवक, सत्ता के स्वयसेवकों के पिछलग्गू बन तमाशा देखने लगे। संयोग से सत्ता के स्वयसेवकों के छह साल के तमाशे ने सत्ता जाने के बाद आरएसएस को ही तमाशे में बदल दिया। और 2004 से 2010 तक के दौर में स्वयंसेवकों के सामने पहली बार चुनौती यहीं आयी कि उनका रास्ता है किस तरफ यहीं उन्हे पता नहीं है। यानी संघ के इतिहास में पहली बार अयोध्या आंदोलन के बाद सबसे लंबा वक्त गुजरा है, जिसमें स्वयंसेवकों के सामने ना तो कोई राजनीतिक लक्ष्य है, न ही कोई सामाजिक चुनौती और न ही संघ को गांठने का कोई मंत्र, जिसके आसरे तत्काल की सामाजिक व्यवस्था में उनका हस्तक्षेप हो। इसलिये संघ के सामने पहली बार संकट दोहरा है। क्योंकि एक तरफ राजनीतिक संगठन बीजेपी उस राजनीतिक व्यवस्था को आत्मसात करने पर तुला है, जिसमें पूंजी,बाजार और मुनाफा सामाजिक व्यवस्था को व्याख्यित कर रहे हैं तो दूसरी तरफ समाज के अलग अलग खाकों में संघर्ष करने के लिये बने संघ के ही संगठन नयी व्यवस्था के सामने नतमस्तक है। संघ के राजनीतिक स्वयंसेवक यह कहने से नहीं चूक रहे कि सत्ता की नयी व्यवस्था अगर लोकतंत्र की परिभाषा को सत्तानुकूल बनाकर संसदीय राजनीति की बिसात बिछाये हुये है तो बीजेपी इससे इतर राजनीति कैसे कर सकती है।

 

इसलिये दिल्ली की चौकड़ी से आगे नागपुर के गडकरी जाते हुये नहीं दिखते। क्योकि उनके पास भी वैकल्पिक राजनीति का ना तो कोई आधार है ना ही कोई सोच। वहीं संघ सत्तानुकूल व्यवस्था में फिट बैठ नहीं सकती और सनातन शक्ति की पारंपरिक समझ से आगे निकल नहीं सकती , तो फिर सरसंघचालक क्या करें। इस्लामिक आतंक के खिलाफ सावरकर के उग्र हिन्दुत्व को अपनाये। स्वदेशी के फेल होने पर खाद से लेकर बीज पर बैठे बहुराष्ट्रीय कंपनियो के खिलाफ मोर्चा ले। किसान संघ के कुंद पड़ने पर किसान को एकजुट कर अपनी खेती अपना पेट भरने के लिये गांव दर गांव जोड़े। आदिवासी बहुल इलाकों में खनिज संसाधनों की लूट-खसोट के खिलाफ आदिवासियों को एकजुट कर उन्हें संघर्ष के लिये तैयार करें। पशुधन से लेकर सांस्कृतिक विरासत को जीने का आधार बनाने के लिये समाज में अलख जगाये। यह सारे सवाल अब उन लाखों स्वयंसेवकों के जरीये ही निकल रहे हैं, जो संघ के पारंपरिक समझ को देश के नये लोकतंत्र के आगे भौथरा मान रहे हैं। यह स्वयंसेवक बीजेपी के राष्ट्रीय स्वयंसेवकों को भी मान्यता देने को तैयार नहीं है जो सत्ता और समाज के सवाल पर स्वयंसेवक की चादर ओढ़ते-हटाते हैं। स्वयंसेवकों की इस बदलती सोच में फिलहाल सिर्फ समझौता एक्सप्रेस से लेकर हैदराबाद और मालेगांव या अजमेर ब्लास्ट ही सामने आया है जिसमें आतंक का चेहरा संघ के मुखौटे में देखने का प्रयास किया जा रहा है। लेकिन पहल आदिवासी और किसानो को लेकर भी हुई है। इसलिये कुछ इंतजार कीजिये जब नक्सलवाद पर सरकार स्वयंसेवकों के साथ खड़े होने का आरोप भी लगा दे। और किसानों को भडकाने का हिंसक आरोप भी स्वयंसेवकों पर लगे। क्योंकि बीते 12 सालो में स्वयंसेवकों की उर्जा को ना तो द्दश्टि मिली है ना ही कोई रास्ता जबकि बीजेपी के राजनीतिक स्वयंसेवकों ने सत्ता की जोड़-तोड़ में ही अपनी उर्जा खपा दी है और और आएसएस के भीतर भी पहला मौका है जब एक सरसंघचालक रिटायर होने के बाद किसी स्वयसेवक से भी कम उर्जावान है और उनकी जगह आये सरसंघचालक पुरातनी सनातन शक्ति का उद्घघोष करने में ही सारी उर्जा खपा रहे हैं। इसलिये हर मुद्दे पर दूरिया सिर्फ बीजेपी के स्वयंसेवकों और संघ के स्वयंसेवकों में ही नहीं बढ़ी है। बल्कि संघ के स्वयंसेवकों की हर पहल पर बीजेपी के ही राजनीतिक स्वयंसेवक ठहाके लगाने से नहीं चूक रहे। मगर इंतजार कीजिये संघ के स्वयंसेवकों का, जो पहली बार अपनी ही संघ की धारा के विरोध में तैरने को तैयार हैं।