विषवमन करते लेखक

 

भारत का संविधान, अनुच्छेद 19, भारत के प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है निःसंदेह यह अनमोल तोहफा है। लेकिन अभिव्यक्ति के समय यह प्रत्येक नागरिक का दायित्व है कि ऐसा कुछ भी न कहा जाए, लिखा जाए जिससे देश की एकता अखण्डता प्रभावित होती हो या देश की छवि धूमिल होती हो। लेकिन आज वो सब कुछ लिखा और कहा जा रहा है जो अनुच्छेद 19 की मूल भावना के विरूद्ध जाता दिख रहा है।

जो व्यक्ति देश में सांसद या विधायक बन सकता है वह प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री या अन्य संवैधानिक पदों पर भी नियुक्त हो सकता है। यह एक निर्विवाद सत्य है। ऐसे में विपक्षी नेताओं का यह विलाप की सोनिया गांधी विदेशी महिला है को लेकर किसी संवैधानिक पद पर नियुक्ति को लेकर विरोध करने की आदतों को छोड़ देना चाहिए। यह सत्य है कि वह मूलतः विदेशी है लेकिन भारतीय संस्कृति के अनुसार स्वदेशी है। आज की गला काट राजनीतिक प्रतियोगिता के दौर में कोई भी स्वदेशी व्यक्ति पार्षद तक के पद का मोह नहीं छोड़ पाता, न मिलने पर पार्टियां तक बदल लेता है वही सोनिया गांधी द्वारा भारत का सर्वोच्च पद प्रधानमंत्री का ठुकरा कर उन तमाम तथाकथित समाजसेवा का दंभ भरने वालों को उनकी छदमता की औकात को बताया है, जो एक निर्विवाद सत्य है। आज ऐसा लगता है कि देश के नेताओं के पास देश हित की जगह स्वहित प्रमुख हो गया है। देश सेवा, समाज सेवा के नाम पर खुद को चमकाना एवं जनता को बरगला कर मीडिया में छा समय काटना ही एक मात्र उद्देश्य रह गया है, जो देश के भविष्य के साथ न केवल खिलवाड़ है बल्कि घातक भी है।

यूं तो राजनेता और अधिकारी प्रमुख पदों से निवृत्त होने के पश्चात् अपने कार्यकाल को पुस्तक रूप में लिखने का रिवाज काफी समय से रहा है, लेकिन विगत एक दशक से नेताओं, पत्रकारों एवं अधिकारियों द्वारा कार्य अनुभव आधारित पुस्तक लेखन का न केवल चलन बढ़ा है बल्कि विवादस्पद चीजों का उल्लेख कर मीडिया में बने रहने एवं अपने नाकारापन को ढ़कने के लिए जवाबदेही से बचने की बचकाना हरकतें आज चरम पर है जो न तो देश के लिए अच्छा हेै और न ही स्वयं के लिए।

यहां अटल बिहारी बाजपेयी याद आ रहे है जिन्होंने 2006 में अपनी किताब के लोकार्पण पर बेबाकी से कहा था ‘‘अब राजनेताओं को कुछ लिखना खरतनाक हो गया है, क्योंकि जब ये राजनीति पर लिखते है तो विवाद होता है, दूसरों की जान तो सांसत में पड़ती ही है, उनकी अपनी भी पड़ जाती है।’’ आज उनका ये विचार अक्षरशः सत्य होता प्रतीत हो रहा है।

खुशवंत सिंह द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘ट्रूथ लव एण्ड ए लिटिल मैलिस’’ में मेनका गांधी एवं इंदिरा गांधी के रिश्तों पर कई जगह टिप्पणियां की थी, जिसको लेकर मेनका गांधी ने उन पर मुकदमा भी दायर किया था। इसी तरह जसवंत सिंह की पुस्तक ‘-‘ए काल टू आॅनर’’ में कांग्रेस के राज में प्रधानमंत्री के दफ्तर में एक विदेशी जासूस का डेरा रहता था, विवादित रहा। इसी तरह राजनीति में भूचाल लाने वाली जसवंत सिंह की पुस्तक ‘‘जिन्ना इण्डिया पार्टीशन इंडिपेंडेंस’’ में जिन्ना प्रेम ने पार्टी से किनारा करा दिया। इसी तरह पार्टी के वरिष्ठ स्तंभ लालकृष्ण आडवानी द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘माई कंट्री माई लाईफ’’ मंे जिन्ना प्रेम, दिसम्बर 1999 में कंधार विमान अपहरण में 160 यात्रियों के बदले छोड़े गए तीन खूंखार आतंकवादियों को ले अपने को पाक-साफ बताने की चेष्टा की गई। ए. जी. नूरानी द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘इंडिया-चायना बाउण्डरी प्राब्लमः हिस्ट्री एण्ड डिप्लोमेसी’’ में भारत-चीन विवाद को पं. नेहरू की देन बताया।

सोमनाथ चटर्जी द्वारा लिखित ‘‘कीपिंग द फेसः मेमायर्स आॅफ ए पार्लियामेंटेरियन’’ में सी.पी.एम. नेता प्रकाश करात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एवं सोनिया गांधी को सबक सिखाना चाहते थे इसलिए उन्होंने 2008 में सरकार से समर्थन वापस लिया। राजनीति से इतर धार्मिक लेखन ने भी बवंडर खड़ा किया। अरूण शौरी द्वारा लिखित ‘‘इंडियन कन्ट्रोवर्सी’’ और ‘‘ए सेक्यूलर एजेण्डा’’ में धर्म निरपेक्षता को राजनीति के साथ-साथ धार्मिक अलोचना का भी शिकार होना पड़ा था। इसी तरह सलमान रूश्दी द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘द सेटेनिक वर्सेज’’ में मुस्लिम धर्म के बार में घोर आपत्तिजनक टिप्पणियों के कारण न केवल मुस्लिम समाज का फतवा के रूप में विरोध सहन करना पड़ा बल्कि अपनी जान बचाने के लिए भी कई वर्षों तक भूमिगत् भी रहना पड़ा था। हालांकि भारत में इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।

खेल के क्षेत्र में शोएब अख्तर द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘कंट्रोवर्शियली योर्स’’ जिसमें भारतीय खिलाडि़यों की आलोचना करने के साथ-साथ सचिन उनकी गेंद से डरते है का भी रहस्योघाटन किया।

राजनीतिक विवादों की कड़ी में पूर्व राष्ट्रपति डा. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम की पुस्तक ‘‘टर्निंग प्वाईंट’’ ए जर्नी थ्रू चैलेंजज के कुछ अंश प्रकाशन के पूर्व सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री को ले विवादों में आ गई है।

बहुचर्चित लेखक कुलदीप नैयर की पुस्तक ‘‘बियाण्ड द लाइन्स’’ बावरी मस्जिद गिराए जाने के वक्त पूर्व प्रधानमंत्री स्व. पी. व्ही. नरसिम्हा राव का पूजा पर बैठना और मस्जिद के ध्वस्त होने पर पूजा से उठ जाने वाली टिप्पणी सामाजिक समरसता संतुलन के लिए ठीक नहीं है। हालांकि इस टिप्पणी का पुरजोर विरोध उनके पुत्र पी. पी. रंगाराव ने करने के साथ इस तरह के लेखन को विषवमन भी बताया।

विवादित पुस्तकों के लेखन से यहां कुछ यक्ष प्रश्न उठ खड़े होते है। मसलन मंत्रियों द्वारा ली जाने वाली गोपनीयता की शपथ का क्या यह संविधान के साथ धोखा नहीं है? सरकार के तंत्र में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष जुड़ने एवं लाभ लेने वालों ने उस समय विरोध न कर क्या देशद्रोह का कार्य नहीं किया? घटित घटनाओं को पुर्नजीवित कर देश में क्लेश का माहौल पैदा करने की कही कोई चाल तो नहीं? विवादित पुस्तकें केवल अंग्रेजी में ही लिखी गई है, कही ये विदेशी ताकतों के साथ कोई गठजोड़ तो नहीं? अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर घर की बात को पुस्तक के माध्यम से प्रचारित एवं प्रसारित कर देश की छबि को धूमिल करने का कही कोई गुप्त ऐजेण्डा तो नहीं? अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कही खुद को चमकाने का उद्देश्य तो नहीं? हो सकता है अभी मेरी बातें लोगों को चुभे लेकिन देशहित में केन्द्र सरकार को एक स्वतंत्र जांच एजेन्सी गठित कर इन तथ्यों की हकीकत को तो पता लगाना ही चाहिए, साथ ही साथ जिम्मेदार पदों पर रहे व्यक्तियों के लिए विघटनकारी लेखन पर भी प्रतिबंध लगाया ही जाना चाहिए, आखिर देश की एकता अखण्डता, आन-बान सर्वोपरि जो है।