लादेन के बाद भारत की मुश्किल

दुनिया के सबसे मजबूत लोकतांत्रिक देश ने आतंकवाद के खिलाफ अपने तरीके से न्याय किया। और दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश आतंकवाद से लगातार छलनी होते हुये भी न्याय की गुहार उसी देश से लगा रहा है जिसकी जमीन आंतकवाद को पनाह दिये हुये है। जाहिर है पहला देश अमेरिका है और दूसरा भारत । अमेरिका ने अल-कायदा को छिन्न-भिन्न करने के लिये पाकिस्तान से साझा रणनीति बनायी लेकिन जब ओसामा बिन लादेन की महक उसे पाकिस्तान में मिली तो उसने पाकिस्तान को भी भरोसे में नहीं लिया। लेकिन भारत ने क्रिकेट डिप्लोमेसी का रास्ता पाकिस्तान के साथ तब भी खोला जब मुंबई हमले के तमाम सबूत जुगाड़ कर पाकिस्तान को सौंपने के बाद भी पाकिस्तान ने भारत की नीयत पर सवाल उठाये और खुद के आंतकवाद से घायल घाव दुनिया को दिखाये।

 

अमेरिकी कामयाबी के बाद तीन बड़े सवाल भारत के सामने हैं। पहला अब अमेरिका का रुख आतंकवाद को लेकर क्या होगा। दूसरा अब पाकिस्तान किस तरह आंतकवाद के नाम पर सौदेबाजी करेगा। और तीसरा लादेन के बाद लश्कर-ए-तोएबा और जैश-ए-मोहम्मद सरीखे आंतकंवादी संगठनो की कार्रवाई किस स्तर पर होगी। जाहिर है लादेन की मौत से पहले तक तीनो परिस्थितिया एक दूसरे से जुड़ी हुई थी , जिसके केन्द्र में अगर पाकिस्तान था तो उसे किस दिशा में किस तरीके से ले जाया जाये यह निर्धारित करने वाला अमेरिका था। और भारत के लिये डिप्लोमेसी या कहे अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति के अलावे कोई दूसरा रास्ता था नहीं। लेकिन अब भारत के सामने नयी चुनौती है । एक तरफ अमेरिका के साथ खड़े होकर पाकिस्तान से बातचीत का रास्ता भी भारत ने बनाये रखा और दूसरी तरफ तालिबान मुक्त अफगानिस्तान को खडा करने में भारत ने देश का डेढ सौ बिलियन डॉलर भी अफगानिस्तान के विकास में झोंक दिया। वही अब अमेरिका की कितनी रुचि अफगानिस्तान में होगी यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है। क्योकि अमेरिका के भीतर अफगानिस्तान को लेकर सवालिया निशान कई बार लगे। साढे तीन बरस पहले जार्ज बुश को खारिज कर बराक ओबामा के लिये सत्ता का रास्ता भी अमेरिका में तभी खुला जब डेमोक्रेट्रस ने खुले तौर पर आंतकवाद के खिलाफ बुश की युद्द नीति का विरोध करते हुये अफगानिस्तान और इराक में झोंके जाने वाले अमेरिकी डॉलर और सैनिकों का विरोध किया। और डांवाडोल अर्थव्यवस्था को पटरी पर ना ला पाने के आोरपो के बीच एक साल पहले ही ओबामा ने इराक-अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिको की सिलसिलेवार वापसी को अपनी नीति बनाया।

 

इन परिस्थितियो में लादेन की मौत के बाद भारत-पाकिस्तान ही नहीं अमेरिकियों को भी इस बात का इंतजार है कि ओबामा अब आंतकवाद को लेकर कौन सा रास्ता अपनाते है। क्या आर्थिक मुद्दो से ध्यान बंटाने के लिये लादेन की मौत से मिले न्याय के जश्न में डूबे अमेरिकियो को बुश की तर्ज पर राष्ट्वाद का नया पाठ आतंक के खौफ तले ही पढायेंगे। जिससे अगले साल होने वाले चुनाव में ओबामा बेड़ा पार कर सके। और इसके लिये अरब वर्ल्ड में अमेरिकी हस्तक्षेप उसी तर्ज पर बढेगा जैसा कभी लादेन को खड़ा करने के लिये अमेरिका ने किया। अगर ऐसा होता है तो भारत को अपनी विदेश नीति में कई मोड़ लाने होंगे। क्योकि अरब दुनिया के साथ भारत के संबंध और मनमोहन सिंह के दौर में भारत की अर्थव्यवस्था अमेरिकी नीति के अनुसार लंबे वक्त चल नहीं पायेगी । लादेन की मौत के बाद अमेरिकी सत्ता अपने नागरिको के बीच अपना युद्द जीत चुकी है । वही भारत की सत्ता अपने नागरिकों को न्याय दिलाना तो दूर ओबामा की तर्ज पर यह कह भी नहीं पाती कि बीते ग्यारह बरस में आतंकवाद की वजह से हमारे पांच हजार से ज्यादा नागरिक मारे जा चुके हैं और उन्हे न्याय दिलायेंगे। अमेरिकी 9-11 से पहले जब दिल्ली में संसद पर हमला हुआ था तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अमेरिका को यह कहते हुये चेताया था कि आज हमपर हमला हुआ है कल आप पर होगा। तब अमेरिका ने भारत के आरोपों की अनदेखी की थी। लेकिन वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुये हमले के बाद जार्ज बुश ने भारत के आंतकवाद विरोधी मुहिम पर अपनी सहमति जतायी थी । वहीं अब सवाल है कि क्या अमेरिका यह कहने की हिम्मत दिखायेगा कि वह आतंकवाद के मुद्दे पर भारत से कहे कि पाकिस्तान से रणनीतिक साझेदारी तभी तक करनी चाहिये जबतक मकसद मिले नहीं। अंजाम तो अपने बूते ही देना होगा।

 

जाहिर यह स्थिति कभी आ पायेगी यह सोचना दूर की गोटी है । वही लादेन की मौत के बाद पाकिस्तानी सत्ता की खामोशी ने पाकिस्तान के भीतर के उस टकराव को उबार दिया है जो लादेन की खोज तक अमेरिका की वजह से दबी हुई थी। राष्ट्रपति जरदारी हो या प्रदानमंत्री गिलानी दोनो की हैसियत सेना की कमान संभाले कियानी के सामने कुछ भी नहीं है। पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई जिस तरह से सत्ता और आतंकवादी संगठनों के बीच तालमेल बैठाये रखते हैं, उसमें आंतकवाद से प्रभावित पाकिस्तान के घाव भी सच है और आंतकवाद पाकिस्तान की स्टेट पालिसी है यह भी सच है । लेकिन पाकिस्तानी सत्ता के भीतर का नया सच अमेरिका के लादेन आपरेशन के बाद उभरा है । जिसमें पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सत्ता को खारिज कर अमेरिका ने अपना काम किया और पाकिस्तान सरकार ने भी अमेरिकी आपरेशन को झुक कर सलाम किया । यानी अमेरिकी नीति पाकिस्तानी सत्ता के लिये कितनी जरुरी है, उसके संकेत असल में 10 बरस पहले आर्मिटेज की उस धमकी में ही छिपे हुये हैं, जहां वह पाकिस्तान को कहते हैं कि अगर लादेन को खत्म करने के रास्ते में वह आया तो उसे भी पाषाण काल [स्टोन ऐज] में पहुंता दिया जायेगा। यह संकेत पाकिस्तान के भीतर किस हद तक है यह अब आने वाले वक्त में सत्ता को लेकर होने वाले टकराव से ही खुलेगा। क्योकि दुबई में बैठे मुशर्रफ ने यह मजाक में नहीं कहा कि अगर वह होते तो अमेरिका को पाकिस्तान की जमीन पर ऐसे घुसने नहीं देते। और जरदारी या गिलानी ने यूं ही यूएन के उस फैसले की आड़ नहीं ली, जिसमें अमेरिका को यह अधिकार दिये गये कि वह दुनिया के किसी भी हिस्से में लादेन को मारने की कार्रवाई कर सकता है। असल में पाकिस्तान के भीतर नया सवाल यही है कि क्या अमेरिका अब पाकिस्तनी सत्ता को भी लीबिया की तरह उमेठेगा । और आतंकवाद की मुहर सत्ता पर लगाकर लोकतंत्र की गुहार उन पाकिस्तानियो को मोहरा बनाकर करेगा जो सत्ता चाहते हैं। या फिर जरदारी-गिलानी को खारिज करने के लिये आंतकवादी संगठनो से हाथ मिलाये मुशर्रफ सरीखे नेताओ की दस्तक शुरु होगी । और भारत को एक बार फिर सोचना पडेगा कि वह अपनी कूटनीति किस रास्ते ले जाये। क्योंकि दोनो तरफ या तो अमेरिका होगा या फिर आतंकवाद। भारत की तीसरी बड़ी मुश्किल आंतकवादी संगठनों की उस पहल की है जो पाकिस्तान में अपनी सौदेबाजी का दायरा भारत पर हमला कर बनाये हुये हैं। लशकर-ए-तोएबा , जैश-ए-मोहम्मद और हिजबुल मुजाहिदीन की पहचान पाकिस्तान के भीतर आंतकी संगठन से ज्यादा इस्लाम के लिये सामाजिक कार्यो में लगे तंजीम की है। लेकिन आतंकवाद के पन्ने उलटने पर यह भी सामने आता है कि अल-कायद के साथ इनके संबंध खासे गाढ़े हैं और भारत के खिलाफ इनकी आंतकी कार्रवाई को पाकिस्तानी सत्ता अपनी डिप्लोमेसी का आधार बना कर सौदेबाजी करने से भी नहीं चूकती।

 

ऐसे में अगर अब अमेरिका और पाकिस्तान आंतकवाद को लेकर नजरिया बदलते हैं तो फिर आतंकवादी संगठनों का चेहरा भी बदलेगा क्योंकि अफगानिस्तान में सक्रिय तालिबान हो या उत्तरपूर्वी एशिया [इंडोनेशिया,मलेशिया, सिंगापुर, पिलीपिन्स] में सक्रिय जेआई यानी जिमा-ह-इसलामिया दोनो इसलामिक राष्ट्र बनाने के नाम पर आतंकवाद को अंजाम देते हैं। और इसका असर अरब वर्ल्डमें अमेरिकी नीतियो की वजह से ना चाहते हुये भी है और आर्थिक मदद की पाइप लाईन भी यही से बिछी हुई है जिसे आजतक कोई रोक नहीं पाया है। वहीं इसका बदला हुआ चेहरा मलोशिया के जरीये भारत में हवाला और मनीलाडरिंग के जरीये लगातार घपले-घोटालो से लेकर कालाधन तक में असर दिखा रहे हैं। और इसी दौर में भारत आर्थिक उडान लिये ऐसी कुलांचे भी मार रहा है जहां कारपोरेट पूंजी के तार मलेशिया से भी जुड़ रहे हैं और भारतीय अर्थव्यवस्था को पांच सितारा भी बना रहे हैं। ऐसे नजाकत दौर में आतंकवाद की कोई भी नयी हरकत सबसे ज्यादा भारत को ही आहत करेगी क्योंकि अमेरिका और पाकिस्तान के लिये आतंकवाद अब पॉलसी है जबकि भारत के लिये ऐसा घाव, जिसका इलाज वह कर नहीं सकता और बीमारी का पता जानकर भी उसका इलाज दुनिया को बता नही सकता। क्योंकि दाउद या हाफिज सईद का पता जानकर भी भारत डिप्लामेसी करता है।