मरते किसानों पर शोक या चकाचौंध अर्थवयवस्था पर जश्न

दिल्ली से आगरा जाने के लिये राष्ट्रीय राजमार्ग नंबर 24 आजादी से पहले से बना हुआ है। इस रास्ते आगरा जाने का मतलब है पांच घंटे का सफर। वहीं दिल्ली से फरीदाबाद होते हुये आगरा जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग नंबर 2 को दस बरस पहले इतना चौड़ा कर दिया गया कि ढाई घंटे में आगरा पहुंचा जा सकता है । और मायावती एक तीसरा रास्ता यमुना एक्सप्रेस-वे ग्रेटर नोयडा से सीधे आगरा के लिये बनाने में जी जान से लगी है। अगर यह बन जायेगा तो सिर्फ पौने दो घंटे में दिल्ली से आगरा पहुंचा जा सकेगा। तो क्या यूपी सरकार की समूची आग सिर्फ 45 मिनट पहले आगरा पहुंचने की कवायद भर है। जाहिर है कोई बच्चा भी कह सकता है कि यह खेल गाडियों के रफ्तार का नहीं है । बल्कि जमीन पर कब्जा कर विकास की एक ऐसी लकीर खिंचने का है जिसमें बिना लिखा-पढी अरबों का खेल भी हो जाये और चंद हथेलियों पर पूंजी की सत्ता भी रेंगने लगे। जो चुनावी मुश्किल में बेडा पार लगाने के लिये हमेशा गठरी में नोट बांधकर तैयार रहे। यानी सवाल यह नहीं है किसान को 850 से 950 रुपये प्रति वर्ग मीटर मुआवजा दिया जा रहा है और बाजार में 10 हजार से 16 हजार प्रति वर्ग मीटर जमीन बिक रही है। और किसान रुठा हुआ है। जबकि सरकार कह रही है कि किसान को लालच आ गया है। पहले सहमति दे दी । अब ज्यादा मांग रहा है।

 

सवाल यह है कि इसी ग्रेटर नोयडा का नक्शा बीते साढे तीन बरस में छह सौ फीसदी तक बढ गया । इसी ग्रेटर नोयडा व्यवसायिक उपयोग की जमीन की किमत एक लाख रुपये वर्ग मीटर तक जा पहुंचा। इसी ग्रेटर नोयडा में आठ बरस पहले जो जमीन उघोग लगाने के नाम पर दी गयी उसे डेढ बरस पहले एक रात में बदलकर बिल्डरों को बेच दी गयी। और नोयडा एक्सटेंशन का नाम देकर 300 करोड के मुआवजे की एवज में 20 हजार करोड के वारे-न्यारे कर लिये गये । सवाल है यह सबकुछ पीढियो से रहते ग्रेटर नोयडा के किसानों ने ना सिर्फ अपने गांव के चारो तरफ फलते फुलते देखा। बल्कि धारा-4 के तहत सरकार के नोटिफिकेशन से लेकर धारा-6 यानी आपत्ति और धारा-9 यानी सरकार की अधिग्रहित जमीन में अपने पुशतैनी घरों को समाते हुये भी देखा। यानी हर नियम दस्तावेज में रहा और एक रात पता चला कि जिस घर में ग्रामीण किसान रह रहा है उसकी कीमत बिना उसकी जानकारी तय कर दी गयी है। और कीमत लगाने वाला बिल्डर उसकी खेती की जमीन से लेकर घरो को रौंदने के लिये तैयार रोड-रोलर के पीछे खडे होकर ठहाका लगा रहा है। किसानों को तब लगा बेईमान बिल्डर है। सरकार तो ईमानदार है । इसलिये मायावती की विकास लकीर तले किसानों ने भागेदारी का सवाल उठाया । जिसमें 25 फीसदी जमीन सरकार विकसित करके किसान को लौटा दें और बाकि 75 फिसदी मुआवजे पर लेलें । चाहे तो 25 फीसदी को विकसित करने पर आये खर्चे को भी काट लें । लेकिन बीते डेढ बरस में जिस तेजी से सरकार ही बिल्डर में बदलती चली गयी उसमें भागेदारी का सवाल तो दूर उल्टे जो न्यूनतम जरुरत राज्य को पूरी करनी होती है उससे भी मुनाफा कमाने के चक्कर में सरकार ने हाथ खींच लिये। क्योकि सरकार ने इसी दौर में बिल्डरों के लिये नियम भी ढीले कर दिये। जिस जमीन पर कब्जे के लिये पहले तीस फीसदी कर देना होता था उसे दस फीसदी कर दिया गया और यह छूट भी दे दी कि जमीन पर अपने मुनाफे के मुताबिक बिल्डर योजना बनाये। उपभोक्ताओ से वसूली करें और फिर रकम लौटाये। और सिर्फ ग्रेटर नोयडा एथरिटी ही नहीं बल्कि आगरा तक के बीच में जो भी अथॉराटी है वह बिल्डर या कारपोरेट योजनाओ के लिये इन्फ्रास्ट्रचर बनाने में जुटे। यानी आम आदमी जो विकास की नयी लकीर तले बनने वाली योजनाओ से नहीं जुड़ेगा उसकी सुविधा की जिम्मेदारी राज्य की नहीं है । इसका असर यही हुआ है कि राष्ट्रीय राजमार्ग 24 के किनारे जो 6 बडे शहर और 39 गांव आते है वहा कोई इन्फ्रास्ट्रचर नही है। जबकि दिल्ली-आगरा एक्सप्रेस वे के दोनो तरफ माल,सिनेमाधर, एसआईजेड ,नालेज पार्क से लेकर इजाजत की दरकार में फंसे एयरपोर्ट तक के लिये इन्फ्रास्ट्कचर खड़ा करने में अधिकारी जुटे हैं । यहा तक की बिजली -पानी भी रिहायशी इलाको के बदले चकाचौंघ में तब्दिल करने की योजना में डूबे इलाको में शिफ्ट कर दिया गया है ।

 

योजनाओं का लाभ चंद हाथो में रहे और यही चंद हाथ बतौर सरकार जमीन का खेल कुछ इस तरह करें जिससे सरकार कुछ गलत करती नजर ना आये। इसे भी पैनी दृष्टी सत्ता ने ही दी। ग्रेटर नोयडा से आगरा तक कुल 11 बिल्डरों को जनमीन बांटी गयी। जिसमें साढे चार हजार एकड से लेकर सवा आठ हजार एकड तक की अधिग्रहित जमीन एक एक व्यक्ति के हवाले कर दी गयी और जिन्हें जमीन दी गयी उन्हे यह अधिकार भी दे दिया गया कि वह पेटी बिल्डरों को जमीन बेच दें । और पेटी बिल्डर अपने से छोटे बिल्डरो को जमीन बेचकर मुनाफा बनाने के खेल में शरीक करें। इसका असर यही हुआ कि शहर से लेकर गांव तक के बीच छोटे-बडे बिल्डरों की एक सत्ता बन चुकी है । जो जमीन अधिग्रहित करने में भी मदद करती है और अधिग्रहित जमीन के खिलाफ आक्रोष उबल पडे तो उसे दबाने में भी लग जाती है । यानी सियायत की एक ऐसी लकीर मायावती के दौर में खडी हुई है जिसमें विकास व्यवस्था की नीति बनी और व्यवस्था जमीन कब्जा की योजना । लेकिन सवाल है मायावती अकेले कहा है, और गलत कहा है। बीते एक बरस में मनमोहन सरकार ने 49 पावर प्रोजेक्ट और 8 रीवर वैली हाईड्रो प्रोजेक्ट को हरी झंडी दी। जिसके दायरे में देश की पौने तीन लाख एकड़ खेती की जमीन आ रही है । इसी दौर में 63 से ज्यादा स्टील और सिमेंट प्लाट को हरी झंडी मिली जिसके दायरे में 90 हजार एकड जमीन आ रही है । और इन सारी योजनाओ के जो कोयला और लोहा चाहिये उसके लिये खनन की जो इजाजत मनमोहन सरकार दे रही है उसके दायरे में तो किसान, आदिवासी से लेकर टाइगर प्रोजेक्ट और बापू कुटिया तक आ रही है । लेकिन विकास के नाम पर या कहे मुनाफा बनाने कमाने के नाम पर हर राजनीतिक दर खामोश है । क्योकि इस वक्त कोयला मंत्रालय के पास 148 जगहो के खादान बेचने के लिये पडे हैं। और इस पर हर राजनीतिक दल के किसी ना किसी करीबी की नजर है । लेकिन इसके घेरे में क्या क्या आ रहा है यह भी गौर करना जरुरी है । इसमें मध्यप्रदेश के पेंच कन्हान का वह इलाका भी है जहा टाइगर रिजर्व है । पेंच कन्हान के मंडला ,रावणवारा,सियाल घोघोरी और ब्रह्मपुरी का करीब 42 वर्ग किलोमिटर में कोयला खादान निर्धारित किया गया है । इसपर कौन रोक लगायेगा यह दूर की गोटी है । गांधी को लेकर संवेदनशील राजनीति मुनाफा तले कैसे बापू कुटिया को भी धवस्त करने को तैयार है यह वर्धा में कोयला खादानो के बिक्री से पता चलेगा । वर्धा के 14 क्षेत्रो में कोयला खादान खोजी गयी है । यानी कुल छह हजार वर्ग किलोमिटर से ज्यादा का क्षेत्र कोयला खादान के घेरे में आ जायेगा । जिसमें आधे से ज्यादा जमीन पर फिलहाल खेती होती है । और खादान की परते विनोबा केन्द्र और बापू कुटिया तले भी है । फिर ग्रामिण किसान तो दूर सरकार तो आदिवासियो के नाम पर उडिसा में खादान की इजाजत सरकार नहीं देती है लेकिन कोयला खादानो की नयी सूची में झरखंड के संथालपरगना इलाके में 23 ब्लाक कोयला खादान के चुने गये है । जिसमें तीन खादान तो उस क्षेत्र में है जहा आदिवासियो की लुप्त होती प्रजाति पहाडिया रहती है । राजमहल क्षेत्र के पचवाडा,और करनपुरा के पाकरी व चीरु में नब्बे फिसदी आदिवासी है । लेकिन सरकार अब यहा भी कोयला खादान की इजाजत देने को तैयार है । वही बंगाल में कास्ता क्षेत्र में बोरेजोरो और गंगारामाचक दो ऐसे इलाके है जहा 75 फिसदी से ज्यादा आदिवासी है । जिन्हें जमीन छोडने का नोटिस थमाया जा चुका है ।

 

असल में मुश्किल यह नहीं है कि सरकार जमीन हथियाकर विकास की लकीर अपनी जरुरत के मुताबिक खींचना चाहती है । मुश्किल यह है कि सरकार भी जमीन हथियाकर उन्ही किसान-गांववालो को धोखा देने में लग जाती है जिन्हे बहला-फुसला कर या फिर जिनसे जबरदस्ती जमीन ली गयी । नागपुर में मिहान-सेज परियोजना के घेरे में खेती की 6397 हेक्टेयर खेती की जमीन आयी । तीन साल पहले डेढ लाख रुपये एकड जमीन के हिसाब से मुआवजा दिया गया । लेकिन पिछले साल उसी जमीन का विज्ञापन महाराष्ट्र महाराष्ट्र एयरपोर्ट डवलमेंट कंपनी ने दिल्ली-मुबंई के अखबारो में निकाला । और रियल इस्टेट वालो के लिये प्रति एकड जमीन का न्यूनतम मूल्य एक करोड रखा । और फार्म भरने की रकम एक लाख रुपये रखी गयी । जो लौटायी नहीं जायेगी । यानी जमीन का मुआवजा जितना किसानो को दिया गया उससे ज्यादा की वसूली तो फार्म

 

[डाक्यूमेंट की कीमत ] बेचकर कर लिये गये । और अब वहा हरे लहलहाते खेत या किसानो की झौपडिया नहीं बल्कि शानदार फ्लैल्टस खडे होंगे । और जिस जमीन पर खेती कर पुश्तो से जो डेढ लाख लोग रह रहे थे । वही लोग अब इन इमारतो में नौकर का काम करेंगे । इसलिये सवाल सिर्फ मायावती या यूपी या ग्रेटर नोयडा में बहते खून का नहीं है । सवाल है कि अर्थव्यवस्था को बडा बनाने का जो हुनर देश में अपनाया जा रहा है उसमें किसान या आम आदमी फिट होता कहा है । और बिना खून बहे भी दस हजार किसान आत्महत्या कर चुके है और 35 लाख घर-बार छोड चुके है । जबकि किसानो की जमीन पर फिलहाल नब्बे लाख सत्तर हजार करोड का मुनाफा रियल इस्टेट और कारपोरेट के लिये खडा हो रहा है । जिसमें यमुना एक्सप्रेस -वे कि हिस्सेदारी महज 40 हजार करोड की है । तो मरते किसानो के नाम पर शोक मनाये या फलती-फुलती अर्थव्यवस्था पर जश्न यह तय हमें ही करना है ।