ये कैसी मजबूरी-विश्लेषण

कभी जाति तो कभी धर्म, कभी भाषा तो कभी बाहरी की राजनीति के सियासत पर आई पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण की मजबूरी ने महाराष्ट्र की राजनीति में न केवल भूचाल लाकर खड़ा कर दिया हैं, बल्कि बढ़े राजनीतिक ताप से तब कांग्रेस पार्टी पर स्याह धब्बा भी लगा दिया है। चव्हाण द्वारा दिया गया वक्तव्य ऐसे समय पर आया है जब राज्य के चुनाव के समर में कांग्रेस हांफती, थकी-मांदी सी पडी हेै। राज्य में सिंचाई घोटालों को लेकर पृथ्वीराज चाव्हाण ने अखबार एवं मीडिया को दिया गया बयान कि गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री होने के नाते उनके हाथ बंधे थे जिस कारण आरोपों से घिरे राकांपा के नेता अजित पवार के खिलाफ में कोई कार्यवाही नहीं पाया, ऐसा उनकी पार्टी एवं गठबंधन धर्म के चलते कोई कार्यवाही नहीं हो पाई, इतना ही नहीं मुम्बई की सहकारी गृह निर्माण संस्था आदर्श हाउसिंग सोसायटी में 2002 मेें शुरू हुई घोटालों के चक्कर में मुख्यमंत्री सुशील कुमार शिन्दे को इस्तीफा भी देना पड़ा। इसके अलावा विलासराव देशमुख भी इस घोटाले की चपेट में आ गये थे। पृथ्वीराज चव्हाण कहते है कि अगर मैं इन लोगों पर कार्यवाही करता तो पार्टी को नुकसान होता और यदि उन्हें जेल भेज देता तो महाराष्ट्र में पार्टी बिखर जाती बर्बाद हो जाती।

पृथ्वीराज चव्हाण के वक्तव्य से कई यक्ष प्रश्न उठ खड़े होते हैं मसलन आरोपियों को बचाना या षडयंत्र में खुद शामिल हो मजबूरियां कैसे? अपने को अपराध से मुक्त करने वाले ये स्वयं कौन होते हैं? इसके लिए भारत के संविधान में निर्णय देने का अधिकार न्यायालयों को दिया गया है। दूसरा इनका ऐसा कृत्य क्या जनता के साथ धोखा नहीं है।? क्या रजानीति अब केवल गिरोह बनकर रह गई हैं? समय रहते जानकारी न दे आज पद से मुक्त होने पर ये साजिश का पर्दाफाश क्यों? इसका सबब क्या हैं? क्या यह माननीय होने का नाजायज फायदा नहीं हैं। अपराध को छिपाना, अपराध करने से भी गंभीर कृत्य नहीं हैं क्या? अपराध पर पर्दा डालना कहां तक उचित हैं।

कहने को तो चव्हाण ने बड़ी आसानी से गिना दी अपनी मजबूरी, लेकिन इसके दूरगामी प्रभाव अवश्य पडेंगे। प्रधानमंत्री मोदी भी बार-बार कह रहे हैं जनता के धन के लुटेरों के दिन अब लद गए जनता इन्हें कभी माफ नहीं करेगी।