मुस्लिमों की धड़कन तय करने वाले देवबंद का दर्द

जिस मुस्लिम आरक्षण को लेकर लखनऊ से लेकर दिल्ली तक में सियासत गर्म है। और आरक्षण पर मुस्लिम समुदाय से तमगा लगवाने की जिस होड़ में मायावती, मुलायम सिंह यादव और सलमान खुर्शीद सियासी तर्क गढ़ रहे हैं। साथ ही तर्कों के आसरे जिस तरह मुस्लिम वोट बैंक को को अपने साथ करने की जद्दोजेहद में हर राजनीतिक दल देवबंद में दस्तक दे रहा है। संयोग से वही देवबंद महज एक मुस्लिम उम्मीदवार का रोना रो रहा है। मायावती से लेकर राहुल गांधी और मुलायम से लेकर अजीत सिंह की सियासत की बिसात पर चाहे मुस्लिम समाज प्यादे से वजीर बन गया, लेकिन किसी भी राजनीतिक दल को यह मंजूर नहीं कि देवबंद में कोई मुस्लिम उनकी उम्मीदवारी करे। उलेमा भी अपनी परपंरा और इतिहास तले यह कहना नहीं चाहते कि देवबंद में तो कोई किसी मुसलमान को ‘टिकट दे दे। क्‍योंकि दारुल उलूम की पहचान ही यह रही है जब देश विभाजन को लेकर जिन्ना अड़े थे तब भी दारुल-उलूम ने विरोध किया।

 

और कांग्रेस की मांग से से तीन बरस पहले 1926 में कोलकत्ता में जमायत उलेमा हिंद के अधिवेशन समूचे भारत की आजादी की मांग ब्रिटिश सत्ता से मांगी। धर्म के आधार पर विभाजन का विरोध कर जम्हुरियत की खुली वकालत की। इस आईने में अब जब देवबंद में यह सवाल खड़ा हो रहा है कि कोई राजनीतिक दल किसी मुस्लिम को अपना उम्मीदवार क्‍यों नहीं बना रहा तो दारुल उलुम के प्रोफेसर मौलाना सैयद्हमद खिजर शाह बडे बेबाकी से कहते है, अब राजनीतिक दलो के हर दाने को को चुगने में ही मुस्लिम की जब उम्र बीत रही हो तो फिर दाना ही सियासत है और दाना ही जम्हुरियत है। प्रो खिजर शाह के मुताबिक देवबंद का मुसलमान उलेमाओ को ना देखे बल्कि खुद तय करें कि उनका रास्ता जाता किधर है। क्‍योंकि सियासतदान तो राजनीति करेंगे और उसमें मुस्लिम वजीर नहीं प्यादा ही रहेगा।

 

हालांकि मुस्लिमों के बीच मुस्लिमों को लेकर एक अदद मुस्लिम उम्मीदवार का दर्द पहली बार देवबंद में इसलिये उभर रहा है क्‍योंकि राशिद कुरैशी ने अपने उम्मीदवारो को टिकट ना दिये जाने पर मायावती का साथ छोड़ जिस तरह कांग्रेस का दामन थामा और कांग्रेस ने भी उन्हें झटके में सीडब्ल्युसी का सदस्य बना दिया उससे भी देवबंद में आस जगी कि शायद राशिद कुरैशी ही किसी मुस्लिम की वकालत देवबंद के लिए करें। लेकिन टिकट के खेल की सौदेबाजी में कांग्रेस का दामन थामने वाले कुरैशी ने मुस्लिम उम्मीदवारों से ऐसा पल्ला झाड़ा कि सहारनपुर की रैली में राहुल गांधी के साथ मंच पर से यह कह दिया कि मुस्लिमों का नाम लेकर जो मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में खड़ा हो, उसे ना जिताया जाये। यूं पिछले चुनाव में भी कुरैशी किसी मुस्लिम उम्मीदवार के पक्ष में नहीं थे। लेकिन तब मायावती के साथ थे तो मुस्लिम-दलित गठजोड में सहारनपुर की सात सीटों में से पांच सीट बीएसपी ने जीतीं। लेकिन कोई मुस्लिम इसमें नहीं था। देवबंद में भी नही था। मनोज चौधरी 2007 में भी बीएसपी टिकट पर जीते और 2012 में भी मायावती ने देवबंद से मनोज चौधरी को ही टिकट दिया है। मुलायम सिंह यादव ने भी देवबंद से किसी मुस्लिम को उम्मीदवार नहीं बनाया है। और कांग्रेस अभी कुरैशी के पत्तों में उलझी हुई है। इसलिये उम्मीदवारों के नाम का ऐलान नहीं हुआ है।

 

लेकिन देवबंद में पहली बार एक अदद मुस्लिम उम्मीदवार का सवाल इसलिये भी गहरा रहा है क्‍योंकि परिसीमन के बाद देवबंद में कुल दो लाख 94 हजार वोटरों में से एक लाख दस हजार मुस्लिम वोटर हो गया है। यानी चालीस फीसदी से ज्यादा। जबकि दलित की तादाद करीब साठ हजार और राजपूतों की तादाद 65 हजार से घटकर 40 हजार पर आ गयी है। परिसीमन से पहले देवबंद में साठ हजार मुस्लिम थे। ऐसे में उलेमाओं के बीच भी अब यह सवाल चल पडा है कि जिस प्रदेश ही नहीं देश की सियासत में अल्पसंख्यकों की धड़कन महसूस करने के लिये हर राजनीतिक दल देवबंद की तरफ देखता है तो फिर देवबंद खुद की धड़कन में मुस्लिमों को कहां पाता है। इसलिये देवबंद में सवाल यह भी है कि क्या दवबंद का मुस्लिम किसी एक मुस्लिम उम्मीदवार के पीछे एकजुट होकर चल नहीं सकता। क्या अपनी अल्पसंख्यक पहचान बनाये रखने में ही मुस्लिमों का भला है। या फिर चुनावी बिसात पर एकमुश्त वोटों के जरिये अपनी धाक को महसूस कराकर खुद को सौदेबाजी के दायरे में खड़ा करना ही मुस्लिमों की ताकत है।

 

और उसी का परिणाम है कि हर कोई आरक्षण को मुस्लिम समाज से जोड़कर मुख्यधारा में लाने की बात कह रहा है। और मुख्यधारा से इतर अल्पसंख्यक बने रहने के लिये मुस्लिम समाज भी आरक्षण के सौदे को हाथों-हाथ ले रहा है। यह सारे सवाल कहीं-ना-कहीं किसी-ना-किसी रूप में देवबंद के उन सोलह गांव में उठ रहे हैं जहां मुस्लिम आबादी पचास फीसदी से ज्यादा है। और मुस्लिम वोटरों के इन सवालों के बीच दारुल-उलूम का अपना सवाल यही है कि जिस देवबंद को पहचान इस्‍लाम की शिक्षा के जरिये मिली। और आजादी की लड़ाई को शिक्षित होकर कैसे लड़ा जाये जब देवबंद आजादी से पहले इसी दिशा में लगा रहा तो फिर अब उससे इतर सियासी बिसात पर खुद को देवबंद क्‍यों खड़ा करें। यह अलग सवाल है आजादी के बाद से अबतक सिर्फ 1977 में पहली और आखिरी बार कोई मुसलमान देवबंद से जीता। तब जनता पार्टी के मौलाना उस्मान इमरजेन्सी के विरोध की हवा में जीते थे। और संयोग से इस बार कांग्रेस से ही देवबंद आस लगाये बैठा है कि कोई मुस्लिम मैदान में जरुर उतारा जायेगा।