मनमोहन-चिदंबरम की बीस बरस की जोड़ी की इकनॉमिक्स तले देश का बंटाधार

चिदंबरम का मतलब इस वक्त महज 2जी घोटाले में फंसे नेता का कुर्सी बचाना भर नहीं है। बल्कि मनमोहन सिंह के उस खेल का बचना भी है जो आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक के आसरे देश में बीते 20 बरस से मनमोहन-चिदंबरम की जोड़ी खेलती आ रही है। आर्थिक सुधार की जो लकीर मनमोहन सिंह ने 1991 में बतौर वित्त मंत्री बनकर शुरु की, अगर अब के दौर में उसे बारिकी से देखें तो 2004 में चिदंबरम ने उन्हीं नीतियों के कैनवास को मनमोहन सिंह की अगुवाई में और व्यापक किया। देश में खनन और टेलीकॉम को निजी कंपनियो के जरीये खुले बाजार में ले जाने का पहला खेल बीस बरस पहले नरसिंह राव की सरकार के दौर में ही शुरु हुआ। उस वक्त मनमोहन सिंह अगर वित्त मंत्री थे तो चिदंबरम वाणिज्य राज्य मंत्री के तौर पर स्वतंत्र प्रभार देख रहे थे। उस दौर में आईएमएफ और विश्व बैंक की नीतियों तले भारतीय आर्थिक नीतियां जिस तेजी से करवट ले रही थी और सबकुछ खुले बाजार के हवाले प्रतिस्पर्धा के नाम पर किया जा रहा था, उसमें पहली बार सवाल सिक्यूरटी स्कैम के दौरान खड़ा हुआ और पहली कुर्सी चिदंबरम की ही गई थी। उन पर फैयरग्रोथ कंपनी के पीछे खड़े होकर शेयर बाजार को प्रभावित करने का आरोप लगा था।

 

लेकिन खास बात यह भी है कि उस वक्त मनमोहन सिंह ने बतौर वित्त मंत्री चिदंबरम की वकालत की थी। और जुलाई 1992 में गई कुर्सी पर दोबारा फरवरी 1993 में चिदंबरम को बैठा भी दिया था। अगर अब के दौर में चिदंबरम पर लगते आरोपों तले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पहल देखें तो अठारह बरस पुराने दौर की झलक दिखायी दे सकती है। क्योंकि वित्त मंत्री रहते हुये चिदंबरम ने जिन जिन क्षेत्रों को निजी कंपनियों के लिये और मनमोहन सिंह ने खुली वकालत की, उसकी झलक शेयर बाजार से लेकर खनन के क्षेत्र में निजी कंपनियों की आई बाढ़ समेत टेलिकॉम और बैकिंग प्रणाली को कारपोरेट घरानों के अनुकूल करने की परिस्थितियों से भी समझा जा सकता है। चिदबरंम ने आर्थिक विकास की लकीर खिंचते वक्त हमेशा सरकार को बिचौलिये की भूमिका में रखा। मुनाफे का मंत्र विकसित अर्थव्यवस्था का पैमाना माना। कॉरपोरेट और निजी कंपनियो के हाथों में देश के इन्फ्रास्ट्रक्चर तक को बंधक बनवाया। यानी नब्बे के दशक तक जो सोच राष्ट्रीय हित तले कल्याणकारी राज्य की बात कहती थी, उसे बीते बीस बरस में मनमोहन-चिदंबरम की जोड़ी ने निजी कंपनियो के मुनाफे तले राष्ट्रीय हित का सवाल जोड़ दिया।

 

चिदबरंम ने इन बीस बरस में साढ़े तेरह बरस सत्ता में गुजारे। जिसमें से साढ़े बारह बरस मनमोहन के साथ रहे। लेकिन जब सत्ता में नहीं थे तब भी विकास को लेकर जिन निजी कंपनियों के साथ चिदंबरम खड़े हुये उसके अक्स में भी चिदबरंम की इकनॉमी को समझा जा सकता है। दिवालिया हुई अमेरिकी कंपनी एनरॉन की खुली वकालत चिदंबरम ने की। और समूचे देश में जब एनरॉन का विरोध हुआ तब भी दोबारा दाभोल प्रोजेक्ट के नाम से एनरान को दोबारा देश में लाने की वकालत भी चिदंबरम ने ही की। ब्रिटेन की विवादास्पद कंपनी वेंदाता को उड़ीसा में खनन के अधिकार दिये जाने की खुली वकालत भी चिदंबरम ने की। निजी हाथो में खनन के लाइसेंस को लेकर सवाल उठने पर चिदबरंम यह कहने से नहीं चुके कि देश की खनिज संपदा का यह कतई मतलब नहीं है कि उसे खुले बाजार में बेचा न जाये। या फिर सरकार खनन के जरिये कमाई ना करें।

 

असल में सूचना तकनीक के विस्तार के दौर में टेलिकॉम को लेकर भी चिदबरंम उसी रास्ते को पकड़ना चाहते थे जिस रास्ते कारपोरेट सेक्टर मुनाफा बनाते हुये देश में टेलिकॉम का इन्फ्रास्ट्रक्चर खुद ही प्रतिस्पर्धा के आधार पर विकसित करे। इसलिये मारन से लेकर ए राजा तक के दौर में कच्ची पटरी पर चलती टेलिकॉम नीति में जब जब सवाल सरकार की भागेदारी का आया तब तब वित्त मंत्री के तौर पर चिदंबरम ने टेलिकॉम के लाइसेंस को खुले बाजार के हवाले करने पर ही जोर दिया।

 

दरअसल 2 जी लाईसेंस की कीमत को कौड़ियों के मोल निजी या कहे अपने चेहते कारपोरेट को देने से पहले उन परिस्थितियों को भी समझना होगा, जहां सरकारी बीएसएनएल को आगे बढ़ने से रोका गया। ऐसा क्या रहा कि नब्बे के दशक तक जब देश में जब सिर्फ बीएसएनएल का ही फोन चलता था और गांव से लेकर किसी भी सुदुर इलाके में सिर्फ सरकारी फोन लाइन ही काम करती थी, झटके में वह हाशिये पर ढकेल दी गयी। इसमें दो मत नहीं नहीं बीएसएनएल को चूना लगा कर निजी टेलिकॉम कंपनियों को आगे बढ़ाने का काम एनडीए के दौर में भी हुआ। और सुनील मित्तल से लेकर अंबानी बंधु और और यूनिटेक सरीखे रियल इस्टेट की कंपनियां भी टेलिकाम के क्षेत्र में कूद कर आगे बढ़ गयी, जबकि सरकारी टेलिकॉम विभाग को लगातार डंप किया जाता रहा।

 

असल में कॉरपोरेट घरानों या निजी कंपनियों के आसरे आर्थिक विकास का जो खेल इन बीस बरस में लगातार चला अगर उसकी नींव को देखे तो सबसे बड़ा सवाल उस पूंजी की आवाजाही का है जो बेरोक-टोक हवाला और मनी-लैडरिंग के जरीये देश में आती रही। इसेलेकर कभी सवाल इसलिये नहीं खड़े हुये क्योंकि बदलते भारत में मध्यम वर्ग को पहली बार चकाचौंध का जायका भी मिल रहा था और समूची आर्थिक प्रणाली भी नयी पीढी को अपने हिसाब से ढाल रही थी। लेकिन तीन बरस पहले आर्थिक मंदी ने जब पूंजी पर सीधा हमला किया और उपभोक्ता बनाने की थ्योरी झटके में पारंपरिक बचत करने की तरफ बढ़ी, तब बैंकिंग प्रणाली से लेकर कालेधन और भ्रटाचार को लेकर वह सवाल उठे जिसे 1991 में ही आर्थिक सुधार तले मनमोहन सिंह दबा चुके थे। और परतों को जब खोला गया तब देश के सामने शेयर बाजार के सेंसेक्स के पीछे विदेशी निवेश। कंपनियों के बढ़ते शेयरों की कीमत के पीछे हवाला और मनी-लॉडरिंग का मॉरिशस रास्ते और 2 जी लाईसेंस पाने वालो में यूएई की कंपनी एतिसलात और नार्वे का कंपनी टर्नर के साथ यूनिटेक से लेकर स्वान का खेल सामने आया। ऐसे मौके पर अगर 10 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट या निचली अदालत का फैसला कटघरे में चिदंबरम को खड़ा करती है तो आगे का सवाल मनमोहन सिंह का हो या ना हो लेकिन बड़ा सवाल यही होगा कि क्या आर्थिक सुधार की उसी नीति पर आगे भी देश चलेगा जिस रास्ते को बीस बरस पहले मनमोहन-चिदबरंम की जोड़ी ने पकड़ा था।