मजहबी राजनीति पर लगाम

लोकसभा चुनाव हो या विधानसभाओं के, पंचायत के चुनाव हों या स्थानीय निकायों के, चाहे बार काउंसिल का चुनाव हो या अन्य संस्थाओं के चुनाव हों, जाति, धर्म, नस्ल, प्रदेश, समुदाय और भाषा की बड़ी भूमिका रही है। जाति को आधार बनाकर तो कई दल खूब फले-फूले भी। इसी तरह मजहब को लेकर कई राजनीतिक दलों ने अपनी जमकर रोटियां सेंकी और सत्ता भी हथियाई। कांग्रेस तो आजादी से पहले और बाद में भी मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति अपनाती रही है। मुसलमानों को खुश करने के लिए शाहबानों मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला संसद में बदल दिया गया। राजनीतिक फायदे के लिए तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने 1986 में मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित किया। इस अधिनियम के तहत शाहबानो को तलाक देने वाला पति मोहम्मद गुजारा भत्ता के दायित्व से मुक्त हो गया था। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोआ और मणिपुर विधानसभा के चुनावों के ऐलान से कुछ दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 (3) में “उसके धर्म’ की व्याख्या करते हुए सात सदस्यीय संविधान पीठ ने चार-तीन के बहुमत से फैसला दिया है कि देशभर में धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर अब वोट नहीं मांगा जा सकेगा। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव में धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय और भाषा के इस्तेमाल को गैर कानूनी और भ्रष्ट तरीका करार दिया है। उम्मीदवार के साथ-साथ दूसरे राजनेता, चुनाव एजेंट या धर्मगुरु भी जनप्रतिनिधित्व कानून के धारा के तहत आएंगे। अब धारा 123 (3) में किसी उम्मीदवार का दोष साबित होने पर निर्वाचन आयोग चुनाव तक रद्द कर सकता है। निश्चित तौर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सीधा असर पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों पर भी पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला देश में चल रहे चुनाव सुधार की मांग के मद्देनजर बहुत महत्वपूर्ण है। अब चुनाव सुधार की मांग और तेज होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव सुधार को लेकर कई सुझाव जनता के सामने रखे हैं। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी प्रधानमंत्री के सुझावों का स्वागत किया है। प्रधानमंत्री ने चुनाव सुधारों पर सभी राजनीतिक दलों को विचार विमर्श करने का अनुरोध किया है। 

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उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में विभिन्न राजनीतिक दल धर्म, भाषा और जाति के दम पर वोट जुटाते रहे हैं। उत्तर प्रदेश में खुलेआम जाति और मजहब के आधार ही वोट मांगे जा रहे हैं। बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने विधानसभा चुनाव में इस बार मुसलमान वोटरों को अपनी तरफ करने के लिए बड़ी संख्या में उम्मीदवार बनाए हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद चुनाव आयोग के सामने पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव बड़ी चुनौती साबित होंगे। चुनौती इसलिए भी बड़ी होगी कि आल इंडिया मजलिसे इत्तेहादुल मुसलमीन के आला नेता ओवैसी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद मामला दर्ज कराया गया है। मुंबई में भाजपा के महामंत्री सुमंत घैसास ने ओवैसी के खिलाफ चुनाव आयोग से कार्रवाई करने के लिए शिकायत की है। शिकायत में बताया गया है कि ओवैसी ने मुंबई की एक सभा में कहा था कि अगर एआईएमआईएम को वोट दिया, तो मुस्लिम वार्डों में 7770 करोड़ रुपये खर्च करेंगे। ओवैसी ने नागपाड़ा की रैली में कहा था कि मुंबई में 21 फीसदी मुसलमान हैं। मुंबई महानगर पालिका का सालाना बजट 37 हजार करोड़ रुपए है। अगर लोगों ने आईएमआईएम के20 से 25 पार्षद चुन कर भेजे, तो शिक्षा, अस्पताल, पानी और सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट पर 7770 करोड़ रुपए मुस्लिम बहुल वार्डों में खर्च किए जाएंगे। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में साफतौर पर कहा है कि उम्मीदवार वोट मांगने के लिए धर्म का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं। चुनाव एक धर्मनिरपेक्ष अभ्यास है और यह प्रक्रिया हमेशा जारी रहनी चाहिए। अदालत ने यह भी कहा है कि किसी व्यक्ति और भगवान के बीच रिश्ता व्यक्तिगत मामला है। इस रिश्ते में राज्यों को हस्तक्षेप की इजाजत नहीं है। जिस तरह ओवैसी या इसी तरह के दूसरे दल मजहब के नाम पर वोट मांग रहे हैं, उस पर रोक लगेगी। इस मामले में भी चुनाव आयोग को तेजी से कार्रवाई करते हुए फैसला देना चाहिए ताकि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में उम्मीदवारों पर असर पड़े।

ऐसा भी नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह का फैसला पहली बार दिया है। जनप्रतिनिधित्व कानून की 123(3) पहले से यह प्रावधान है कि धर्म, जाति, वर्ग, समुदाय, भाषा का चुनावों में इस्तेमाल करने वोटरों पर असर डालना गैर कानूनी है। पिछले कई साल से यह मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। 1991-92 में बंबई हाईकोर्ट ने चुनावी भाषणों में हिंदुत्व शब्द के इस्तेमाल और हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगने को चुनाव में भ्रष्ट तरीके माना था। बंबई हाईकोर्ट ने शिव सेना व भाजपा नेताओं सहित 10 लोगों का चुनाव रद्द कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने 1995 में वह फैसला पलट दिया था। उस फैसले में कोर्ट ने कहा था कि हिन्दुत्व शब्द सिर्फ धर्म तक सीमित नहीं है। यह सही है कि हिन्दुत्व केवल धर्म तक सीमित नहीं है। हिन्दुत्व एक जीवनशैली है। हिन्दुत्व के मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने अभी कोई फैसला नहीं दिया है। कोर्ट ने शुरू में ही साफ कर दिया था कि हिन्दुत्व के फैसले पर पुनर्विचार नही करेगा। कोर्ट ने साफ कर दिया था कि हिन्दुत्व या धर्म का मसला उनके समक्ष विचाराधीन नहीं है। इसके बावजूद कुछ लोग 1995 के फैसले पर भी विचार करने का सुझाव दे रहे हैं। 1995 के फैसले में हिंदुत्व शब्द के इस्तेमाल मात्र को जनप्रतिनिधित्व कानून का उल्लंघन नहीं माना गया था। साफ है कि धर्म का उल्लेख तो ठीक है पर वोट जुटाने के लिए धर्म का इस्तेमाल गलत माना है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद मुस्लिम समाज को मजहब के नाम पर नफरत फैलाकर वोट मांगने वालों से निजात मिलेगी। ऐसे में मुसलमानों के सामने विकास का नया रास्ता मिलने की उम्मीद बढ़ी है। साथ ही तुष्टीकरण की नीति पर चलने वाले दलों को मुश्किल होगी। यह बात तो जगजाहिर है कि अल्पसंख्यकों को खुश करने की नीति के कारण कई दल आवाज उठाते रहे हैं। जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस की तुष्टीकरण नीति के खिलाफ हमेशा आवाज उठाई। तुष्टीकरण नीति के खिलाफ आवाज उठाने पर भाजपा को मुस्लमानों के खिलाफ बताया जाता रहा है। आज भी भाजपा को मुसलमान विरोधी करार दिया जाता है। भाजपा ने हमेशा देश के हित में आवाज उठाई है। इसी कारण सुप्रीम कोर्ट के फैसले का मैं समर्थन कर रहा हूं। मेरा मानना है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया और मजबूत होगी। अब धर्म, भाषा, जाति और समुदाय को मुद्दा बनाने वाले दल विकास, सुशासन, कानून-व्यवस्था आदि के मुद्दे चुनाव में उठाने को मजबूर होंगे। देश के कई इलाकों के पिछड़े रह जाने की वजह मजहबी और जातिगत राजनीति भी रही है। जातिगत आधार कई नेता लंबे समय तक संसद और विधानसभाओं में तो रहे पर अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों में विकास के लिए कुछ नहीं किया। अब ऐसे नेताओं का आधार वैसे भी धीरे-धीरे खत्म हो रहा है। जो भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले से देश तेजी से विकास के रास्ते पर बढ़ेगा।