भ्रष्टाचार का दैत्य : दलन कैसे ?

हलका’ मचे तीन सप्ताह बीत गए लेकिन भारत के राजनेताओं के सिर पर जूँ तक नहीं रेंगी| भ्रष्टाचार पर प्रहार के लिए एक भी आवाज़ नहीं उठी| बल्कि जो आवाजे़ं उठ रही हैं, वे भ्रष्टाचार की ही हैं| विसेंट जॉर्ज, केतन मेहता, बी0पी0वर्मा ! क्या अर्थ है, इन आवाज़ों का ? क्या यह नहीं कि ‘तहलका’ को भूल जाओ ! ‘तहलका’ तो नकली था, नाटक था, साजिश था| अब हम जो दिखा रहे हैं, वह असली है, सच्चाई है| यही भारत है| यह ऐसे ही चलेगा| नेहरू के ज़माने से चल रहा है| इसे कोई ठीक नहीं कर सकता|

भारत के राजनेताओं की हठधर्मिता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है ? वे एक-दूसरे को मारने पर उतारु हैं लेकिन भ्रष्टाचार पर कोई उँगली भी नहीं उठा रहा है| वे पापी को मारना चाहते हैं, पाप को नहीं| वे मरे हुए को मार रहे हैं, जिन्दा दैत्य उन्हें दिखाई नहीं पड़ रहा है| इस दैत्य ने, बोफर्स और हवाला ने काँग्रेस को मार दिया और यह तहलका के रूप में भाजपा को निगल रहा है लेकिन क्या वजह है कि भ्रष्टाचार के दैत्य के विरुद्घ कोई भी आवाज नहीं उठा रहा है ? भारत के राजनेताओं ने रेत में सिर क्यों छिपा लिया है ? वे शर्तुमुर्ग क्यों बन गए हैं ?

वे जानते हैं कि अगर भ्रष्टाचार खत्म होगा तो वे स्वयं खत्म हो जाएँगे लेकिन क्या वे नहीं जानते कि अगर भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा तो भारत खत्म हो जाएगा ? भारत खत्म हो गया तो वे जिन्दा कैसे बचेंगे | क्या उन्हें पता नहीं कि सारी दुनिया में दनदनानेवाला रोमन साम्राज्य भ्रष्टाचार के कारण ही पाताल में धँस गया था, दुनिया की दूसरी महाशक्ति सोवियत संघ के अध:पतन का कारण भ्रष्टाचार ही था और मुगल और बि्रटिश साम्राज्य की नींव को भ्रष्टाचार ने ही पोला कर दिया था| यदि भ्रष्टाचार के जंगली घोड़ों पर अब लगाम नहीं लगाई गई तो वे भारत को तहस-नहस कर देंगे| भ्रष्टाचार के सबसे पहले शिकार होंगे, राजनेतागण| राजनेताओं की साख इतनी गिर सकती है कि यदि कोई तानाशाह या फौजी उन पर हाथ डाल देगा तो उनके लिए कोई आँसू बहानेवाला भी नहीं मिलेगा| पाकिस्तान का उदाहरण हमारे सामने है| 1997 में नवाज़ शरीफ को इतना प्रचण्ड बहुमत मिला था कि किसी भी अन्य नेता को दक्षिण एशिया में पहले कभी नहीं मिला लेकिन दो साल में ही उन्हें विमान-यात्र करते हुए एक जनरल ने चित कर दिया| पाकिस्तान ने आह भी नहीं भरी| वह नवाज़ शरीफ की नहीं, पाकिस्तानी राजनीति की आत्महत्या थी| क्या भारत के राजनेता इसी आत्महत्या के मार्ग पर नहीं चल पड़े हैं ? जैसे बेनज़ीर और नवाज़ ने मिलकर सम्पूर्ण पाकिस्तानी राजनीति का दीवाला पीट दिया, क्या इसी तरह भारत के राजनीतिक दल केवल अपनी ही नहीं, सम्पूर्ण राजनीति की ही साख डुबोने पर नहीं तुले हुए हैं ?

यह कितना हास्यास्पद है कि विपक्ष ने संसद नहीं चलने दी| संसद किसलिए बनी है ? बहस के लिए | बहस तो जारी है, टीवी चैनलों पर, अखबारों में, सभाओं में ! याने संसद बहस के योग्य नहीं है| तो क्या संसद सिर्फ भत्तों के लिए बनी हुई है? संसद की साख गिराने या उसे अप्रासंगिक बनाने का नतीजा क्या हो सकता है, यह कोई बेनितो मुसोलिनी के इटली से सीखे| सत्ता पक्ष सरकार की साख गिरा दे और प्रतिपक्ष संसद की साख गिरा दे तो फिर बचा ही क्या ? राजनीति में फिर रह क्या गया ? राजनीति का असली तकाज़ा तो यह था कि सारे दल मिलकर ‘तहलका’ का फायदा उठाते, लोहा गर्म था, हथौड़ा चलाते और भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए संसद में सर्वसम्मति से कोई जबर्दस्त कानून बना देते|

अब भी कोई देर नहीं हुई है| अगले सत्र् के लिए एक भ्रष्टाचार-विरोधी कठोर और विस्तृत कानून की तैयारी अभी से की जानी चाहिए| लोकसभा अध्यक्ष की पहल पर सभी दलों के नेता मिलें और भ्रष्टाचार-निवारण के उपायों पर विचार करें| उपायों का उनसे बड़ा पंडित तो कोई और हो नहीं सकता, क्योंकि भ्रष्टाचार के तरीकों से वे जितने परिचित हैं, कोई और नहीं है| यदि लोकसभा अध्यक्ष किसी कारण यह पहल न कर सकें तो स्वयं राष्ट्रपति को यह पहल करनी चाहिए| ‘तहलका’ खुद फर्जी मामला था लेकिन उसके कारण जो वास्तविकता उजागर हुई है, उसका धक्का किसी भूकम्प से कम नहीं है| वह चीनी हमले या करगिल की तरह राष्ट्रीय विपत्ति बनकर ही आया| भारत का मनोबल जितना तहलका के दौरान गिरा, विदेशी हमलों के दौरान भी नहीं गिरा| यदि राजनेतागण इससे कोई सबक नहीं सीखते तो न सीखें लेकिन इस नाज़ुक समय में क्या राष्ट्रपति का कोई कर्त्तव्य नहीं है ? यह निश्चय ही राष्ट्रपति का कर्त्तव्य है, क्योंकि यह राष्ट्रीय विपत्ति है| यह सिर्फ राजनीति का ही रोग नहीं रह गया है| राष्ट्रीय जीवन के पोर-पोर में, रग-रग में, रेशे-रेशे में यह रोग समा गया है, हालाँकि इसका आदि और अंत राजनीति में ही है|

यदि राजनीतिक भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा दिया जाए तो अन्य क्षेत्रें को भ्रष्टाचार-मुक्त करना कठिन नहीं होगा| भारत के समस्त भ्रष्टाचारों का पिता राजनीतिक भ्रष्टाचार है| यदि गाँधी की तरह जवाहरलाल नेहरू भी सतर्क और निर्मम होते तो उनकी बेटी भ्रष्टाचार को ‘शिष्टाचार’ नहीं बना पातीं और उनका नाती प्रधानमंत्री पद को दलाली के संदेह में नहीं पड़ने देता| न बोफर्स होता न हवाला ! न झारखण्ड होता और न तहलका ! जैसा कि नेहरू कहते थे, अगर किसी एक भी भ्रष्टाचारी को चांदनी चौक में फाँसी पर लटका दिया जाता तो आज भारत की शक्ल ही कुछ दूसरी होती| 1948 में कृष्णमेनन ने जीपों की खरीदी में जो घोटाला किया, नेहरू सरकार ने उसकी जाँच में सात साल लगा दिए| कृष्णमेनन को सज़ा यह मिली कि उन्हें लंदन के उच्चायुक्त के पद से हटाकर रक्षा मंत्र्ी बना दिया गया| जाँच पर पर्दा डाल दिया गया जबकि उसी समय लंदन उच्चायोग के एक कर्मचारी को इसलिए जेल भेज दिया गया कि उससे कुछ दफ्तर के डाक टिकिट खो गए थे| उन्हीं दिनों हरिदास मूंदड़ा, सिराजुद्दीन-मालवीय तथा प्रतापसिंह कैरो आदि के मामले भी उछले थे| नेहरूजी बिजली की तरह नहीं कड़के, रूई की तरह नरम बने रहे| भ्रष्टाचारियों के विरुद्घ कार्रवाई हुई लेकिन बेमन से हुई कार्रवाई का कोई असर नहीं हुआ| कोई दहशत नहीं फैली बल्कि यह भाव फैल गया कि यदि आप ताकतवर हैं तो पकड़े जाने के बावजूद आप बच जाएँगे| आपका बाल भी बाँका नहीं होगा| सन्तानम कमेटी की बढि़या रपट आई लेकिन वह कूड़ेदान के हवाले हो गई| मैसूर के मुख्यमंत्री के0 हनुमंथैया खुले-आम कहा करते थे कि कुछ लाख के जोर पर वे मुख्यमंत्री बन गए| अगर उन पर कुछ करोड़ होते तो वे प्रधानमंत्री पद भी हथिया लेते| गाँधी की छत्र्-छाया में पले-बढ़े नेहरू यह कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि उनके सम्मानीय साथी पैसों के लिए अपनी इज्ज़त दाँव पर लगा देंगे| नेहरू को क्या पता था कि भ्रष्टाचार का वट-वृक्ष उन्हीं के अहाते में फल-फूल रहा है| केन्द्रीय मंत्री केशवदेव मालवीय ने जब स्वीकार किया कि बस्ती के काँगे्रसी विधानसभा उम्मीदवार को कलकत्ते की कम्पनी से उन्होंने 10 हजार रूपए दिलवाए तो क्या खतरे की घंटी बज नहीं गई थी ? क्या यह संकेत नहीं मिल गया था कि चुनाव-खर्च के नाम पर भ्रष्टाचार का दैत्य दहाड़ना शुरू कर रहा है| क्या के0डी0 मालवीय और कल्पनाथ राय के बीच एक सीधा तार जुड़ा हुआ दिखाई नहीं दे रहा है ? अपनी बेटी को पहले घर की मालकिन और फिर काँग्रेस अध्यक्ष बनवाने के बीज क्या तीन मूर्ति हाउस में ही नहीं पड़ गए थे ? साधू यादव, जयललिता, रंजन भट्टाचार्य, जया जेटली और बेटी इंदिरा के बीच जो सीधा रिश्ता है, क्या वह लोगों को दिखाई नहीं पड़ रहा है ? राष्ट्रपति और प्रधानमंत्र्ी के घर अगर वंशवाद और भ्रष्टाचार के केन्द्र बनेंगे तो मंत्रियों, अफसरों और पार्टी अधिकारियों से आप क्या आशा करेंगे ? नेहरू और शास्त्री स्वयं स्वच्छ थे लेकिन उनके बाद आए प्रधानमंत्रियों का क्या हाल हुआ ? प्रधानमंत्रियों की बात जाने दें, राष्ट्रपति भवन पर भी अनेक बार संदेह के बादल मंडराए हैं| एकाध प्रधानमंत्री के सिवाय सभी प्रधानमंत्रियों को उनके रिश्तेदारों के कारण बदनामियाँ झेलनी पड़ीं है|

इसीलिए जरूरी है कि राष्ट्रीय सफाई अभियान ऊपर से ही शुरू किया जाए| राष्ट्रपति भवन और प्रधानमंत्र्ी निवास जैसे स्थानों में पति या पत्नी और अवयस्क बच्चों के अलावा किन्हीं भी रिश्तेदारों को रखने पर कड़ी पाबंदी लगाई जानी चाहिए और उन्हें किसी अधिकारिक पद पर भी नहीं रखा जाना चाहिए| रिश्तेदारों को निजी सहायक आदि बनाना भ्रष्टाचार को सादर निमंत्रित करना है| यह नियम राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों, समस्त मंत्रियों आदि पर भी लागू होना चाहिए| इसके अलावा संविधान की शपथ लेनेवाले समस्त राजनीतिक पदाधिकारियों, समस्त चुनावों के उम्मीदवारों, समस्त सरकारी अफसरों और समस्त पार्टी अधिकारियों की चल और अचल सम्पत्ति की घोषणा प्रति वर्ष होनी चाहिए| उनकी सम्पत्तियों का ब्यौरा सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होना चाहिए| अगर इस तरह का कोई कानून अगले सत्र् में पारित हो जाए तो भारत के दो-तिहाई नेतागण राजनीति से अपने आप ही संन्यास ले लेंगे| जो नहीं लेंगे, उनकी देख-रेख लोकपाल कानून करेगा| लोकपाल विधेयक के मार्ग में अब जो दल भी अड़ंगा डालेगा, उसकी लुटिया निश्चय ही डूबेगी|

राजनीतिक भ्रष्टाचार का मूल-स्रोत चुनाव खर्च है| इलाहाबाद उच्च न्यायालय की मार से बचने के लिए इंदिरा गाँधी ने अपने लिए एक छोटी-सी चोर-गली निकाली थी| वह अब डाकू-पथ बन गया है| याने उम्मीदवार पर अगर उसकी पार्टी या अन्य संस्थाएँ या मित्र्गण खर्च करें तो उसे उसके चुनाव खर्च में नहीं जोड़ा जाएगा| इसी पार्टी-फंड के नाम पर नेतागण करोड़ों डकार जाते हैं| जरूरी है कि चुनाव-खर्च की सीमा यथार्थ पर आधारित हो और जो भी राशि तय हो, उसका अधिकांश राजकोष से आए और शेष पार्टी दे| सम्पूर्ण खर्च उम्मीदवार का खर्च माना जाए| इससे चुनाव खर्च घटेगा और चुनाव के नाम पर होनेवाली डकैती रूकेगी| चुनाव खर्च घटाने के लिए शायद अभियान की अवधि 21 दिन से घटाकर 15 दिन करना भी फायदेमंद हो सकता है| वर्तमान चुनाव-पद्घति को बदलकर अगर सानुपातिक प्रतिनिधित्व और सूची प्रणाली अपना ली जाए तो उम्मीदवार लोग व्यक्तिगत स्तर पर भ्रष्टाचार से बाज़ आएँगे| पार्टी-कोष के लिए सामान्यतया चंदा चेक से लिया जाए और सारे हिसाब की कठोर लेखा-परीक्षा हो, यह भी जरूरी है|

राजनेताओं और उनकी पार्टियों पर कड़ी निगरानी रखना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी यह भी है कि देश उनकी सुविधाओं पर ध्यान दे| भारत के औसत राजनीतिज्ञ को राजनीति में जिन्दा रहने के लिए दिन-रात मेहनत करनी पड़ती है लेकिन उसके पास वैध आमदनी का कोई स्रोत नहीं होता है| वह ज़माना गया, जब बड़े अमीर-उमराँ राजनीति किया करते थे या ऐसे लोग करते थे जिनका निजी खर्च नगण्य होता था| चमक-दमक के इस ज़माने में वे अपना परिवार कैसे चलाएँगे ? उन्हें पार्टी की ओर से निश्चित वेतन और उचित सुविधाएँ क्यों नहीं दी जातीं ? सभी पार्टियाँ अपने अधिकारियों और पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं के लिए कुछ निश्चित आमदनी का प्रावधान कर सकती हैं और इस खर्च का एक बड़ा हिस्सा राजकोष से भी लिया जा सकता है| इससे भी ज्यादा जरूरी विधायकों, सांसदों, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्रियों के वेतन और सुविधाओं को तय करना है| इनकी संख्या पाँच हजार से ज्यादा नहीं है लेकिन इन लोगों की वैध आमदनी इतनी कम है कि यदि वे अवैध ढंग से पैसा नहीं बटोरे तो क्या करें ? भारत के सांसद की औसत मासिक आमदनी मुश्किल से 16 हजार रू0 बनती है जबकि जापानी सांसद की आठ लाख रू0 मासिक है| यूरोपीय देशों के सांसदों को ढाई लाख से पाँच लाख रू0 मासिक तक मिलते हैं| अफ्रीका और एशिया के अनेक देशों में, जो अमीर नहीं हैं, सांसदों को डेढ़ से दो लाख तक मिलता है| भारत के मंत्रियों की तो और भी ज्यादा दुर्दशा है| भारतीय मंत्री को 17 हजार रू0 मासिक मिलते हैं जबकि सिंगापुर के मंत्री को 20 लाख रू0, स्विटजरलैंड के मंत्री को 10 लाख रू0 और अनेक यूरोपीय देशों के मंत्र्ियों को 4-5 लाख रू0 प्रति माह मिलते हैं| प्रधानमंत्र्ी की स्थिति और भी विकट है| भारतीय प्रधानमंत्री को मुश्किल से 20 हजार रू0 प्रति माह मिलते हैं जबकि सिंगापुर और जापान जैसे देशों के प्रधानमंत्रियों को क्रमश: 30 लाख और 13 लाख रू0 प्रति माह मिलते हैं| छोटे-मोटे एशियाई और अफ्रीकी देशों के शासनाध्याक्षों को भारतीय प्रधानमंत्री की तुलना में दस से बीस गुना वेतन मिलता है| क्या इन तथ्यों पर हमारे सांसद ध्यान देंगे ? यह उन्हें ही तय करना है कि वे अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा कैसे करेंगे ? उचित वेतन लेने से प्रतिष्ठा को आँच आती है या रिश्वत खाने से, इसका निर्णय कौन करेगा ? यह ठीक है कि वेतन की सीमा है और रिश्वत की कोई सीमा नहीं है लेकिन रिश्वत दैत्य है| पहले लोग रिश्वत खाते हैं और फिर रिश्वत उन्हें खा जाती है| इसके पहले कि भ्रष्टाचार का यह दैत्य भारतीय राजनीति को लील जाए, समस्त दलों के सांसदों को एक स्वर से भ्रष्टाचार-विरोधी क्रांतिकारी कानून पारित करना चाहिए|