भाषायी गुलामी से मुक्त होने की कोशिश करें

राष्ट्रपति और भाषायी गुलामी!

हरियाणा के पांच गांवों को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने गोद लिया है ताकि उन्हें ‘आदर्श ग्राम’ बनाया जा सके। इन गांवों से एक-एक सरपंच और दो-दो प्रतिनिधियों को राष्ट्रपति भवन बुलाया गया। याने ये 15 ग्रामवासी जब राष्ट्रपति भवन पहुंचे तो उसका ठाठ-बाट देख कर हक्के-बक्के रह गए। शायद उनमें से कोई भी वहां पहले नहीं गया होगा। वहां जितने भी कार्यक्रम हुए, वे उन्हीं की भाषा में हुए, जिन्होंने यह राष्ट्रपति-भवन बनाया था याने अंग्रेज की भाषा में। अंग्रेजी में।

बेचारे ग्रामीणों के कुछ पल्ले नहीं पड़ा। राष्ट्रपतिजी क्या बोले, राष्ट्रपति भवन दिखाते हुए ‘गाइड’ क्या बड़बड़ाता रहा और अफसर लोग क्या गिटपिट करते रहे, कुछ समझ में नहीं आया। जब सवाल ही समझ में नहीं आए तो वे जवाब क्या देते? बेचारे चुपचाप सुनते रहे। उबते रहे लेकिन हरियाणा तो चौधरियों का प्रदेश है। वे किसी को भी जरुरत से ज्यादा नहीं बख्शते। वे बोल पड़े और अफसरों को अफसोस हुआ। उन्होंने कसम खाई कि इन ग्रामीणों के साथ सारी बातचीत अब हिंदी में होगी।

आखिर राष्ट्रपति भवन ऐसी भूल कैसे करता है? राष्ट्रपति भवन में मैंने सैकड़ों राज-भोज जीमे हैं लेकिन पिछले 50 साल में मुझे एक भी ऐसा अवसर याद नहीं पड़ता जबकि हमारे राष्ट्रपति ने अपना भाषण हिंदी में दिया हो जबकि विदेशी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री हमेशा अपना भाषण अपने देश की भाषा में देते हैं। जिन राष्ट्रपतियों की मातृभाषा हिंदी रही है, वे भी अपने आप को अंग्रेजी की गुलामी से मुक्त नहीं कर सके।

प्रणब मुखर्जी का तो कहना ही क्या! उन्हें दिल्ली आए 40 साल से ज्यादा हो गए लेकिन उन्हें हिंदी के चार वाक्य बोलने में भी जोर पड़ता है। उन्होंने सारा जीवन दरबारदारी में बिताया। उनका जन-संपर्क शून्य रहा। उनके अलावा भी चार-पांच राष्ट्रपति ऐसे हुए हैं, जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं थी लेकिन मुझसे लगभग सभी राष्ट्रपतियों ने हमेशा हिंदी में बात करने की कोशिश की!

के आर नारायणन मलयाली थे और पहले विदेश मंत्रालय में रहे थे लेकिन वे भी हमेशा मुझसे पहले हिंदी में बात करते थे। प्रणब मुकर्जी से कई बार मिलना हुआ, उनके मुंह से कभी हिंदी का एक वाक्य भी नहीं सुना। जब बाबा रामदेव और मुझसे मिलने के लिए 2010 में वे दिल्ली हवाई अड्डे पर आए तो रामदेव पर भी उन्होंने अंग्रेजी झाड़ी। मुझे अनुवाद करना पड़ा। अब सेवा-निवृत्त होते-होते भी हमारे आदरणीय राष्ट्रपति जी थोड़ी-थोड़ी राष्ट्रभाषा बोलने लगें तो वे अपने पद की गरिमा बढ़ाएंगे।

तब उनकी देखा-देखी अन्य मंत्री और अफसर लोग भी भाषायी गुलामी से शायद मुक्त होने की कोशिश करें।