बुद्धिष्ट नहीं तो क्या सनातनी हो ?

बिना किसी लागलपेट के मुझे यह मानने और स्वीकारने में कोई हिचक नहीं है कि ओबीसी के महामानव ज्योतिबा फूले के सामाजिक न्याय के आन्दोलन को भारत में केवल और केवल अजा/एससी के अनेक महापुरुषों/महान लोगों ने आगे बढाया और आज भी बढा रहे हैं। अनेक विसंगतियों के बावजूद संविधान निर्माता बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेड़कर का इस क्षेत्र में बहुत बड़ा योगदान है। जिसे कांशीराम जी ने नये आयाम प्रदान किये।

आजादी के बाद सामाजिक न्याय को कांशीराम जी ने वंचित मोस्ट बहुजन वर्ग के साथ जोड़कर कभी न भुलाया जा सकने वाला काम किया। इसके साथ इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि बाबा साहब को मुस्लिमों का अविस्मर्णीय सहयोग मिला, जबकि आदिवासी और ओबीसी का सामाजिक न्याय की शुरूआती लड़ाई में नगण्य योगदान रहा। जिसके अनेक ऐतिहासिक कारण रहे हैं, जिन पर फिर कभी विस्तार से चर्चा की जायेगी।

प्रस्तुत आलेख का मकसद यह है कि अजा के महामानवों ने सामाजिक न्याय के क्षेत्र में जो योगदान किया, उसके कारण अजा की वर्तमान दंभी और डिग्रीदारी अशिक्षित पीढी उसी प्रकार के अहंकार में डूबी हुई नजर आ रही है, जिस प्रकार का अहंकार बामणों में दिखाई देता है। यही कारण है कि खुद को बुद्ध कहने वाले अजा के अधिसंख्य लोग इस बात को तक नहीं समझना चाहते कि महामानव बुद्ध ने मानव जीवन को सुगम बनाने के लिये आवश्यक धर्म को तर्क, सन्देह और सत्य की कसौटी पर कसकर विज्ञान के समक्ष खड़ा कर दिया और उन्होंने अपने उपदेशों से मानवता का बहुत बड़ा उपकार किया। मगर अत्यंत दुःख का विषय है कि ऐसे लोगों को बुद्ध तो याद रहा, लेकिन बुद्ध का——”मानो नहीं, जानों”—–का वैज्ञानिक उपदेश/सिद्धान्त याद नहीं रहा। बाबा साहब और कांशीराम के संघर्ष और योगदान के बदले में वर्तमान में अजा वर्ग की एक जाति विशेष के अनेक अन्धभक्त दंभी लोग सामाजिक न्याय और बुद्ध के नाम पर राजनैतिक मकसद से वंचित वर्ग पर अपने अतार्किक, अनैतिहासिक, अवैज्ञानिक, निराधार, असंगत, असंवैधानिक और कट्टरपंथी विचारों को थोपने पर आमादा हैं। यद्यपि वर्तमान में भी अजा वर्ग में वास्तविक विद्वानों और सच्चे बुद्धिष्ठों की कमी नहीं है। यह अलग बात है कि उनको उसी प्रकार से अनदेखा और अनसुना किया जाकर किनारे लगाया जा रहा है, जैसे कांशीराम जी के सभी साथियों को बसपा से बाहर करके बसपा को सत्ता और धन के लिये ‘बामण समाज पार्टी’ बनाया जा चुका है।

मैंने एक लेख में विस्तार से लिखा था कि

——”मैं बुद्धानुयायी हूँ, बुद्ध धर्मानुयायी नहीं।”——

जिसे कितने पाठकों ने पढ़कर समझा होगा, ज्ञात नहीं। लेकिन सन्दर्भ के लिये यहां फिर से दोहरा देना जरूरी समझता हूं कि वर्तमान भारत में क़ानून का शासन है। वर्तमान भारत में कानूनी तौर पर बुद्ध धर्म, हिन्दू धर्म की एक शाखा मात्र है। अत: सभी बुद्ध धर्मानुयायियों और सभी अजा के बुद्धिष्ट लोगों को हिन्दू विवाह अधिनियम 1956 की धारा 2 (1) के अनुसार भारत की संसद द्वारा हिन्दू माना गया है। माना जाता है। इसके विपरीत हिन्दू विवाह अधिनियम 1956 की धारा 2 (2) के अनुसार आदिवासी हिन्दू नहीं है। आदिवासी हिन्दू विवाह अधिनियम, 1956 से शासित भी नहीं होता है, क्योंकि आदिवासी भारत के मूलवासियों के वंशज हैं। ज्ञातव्य है कि आदिवासी भारत के मूल मालिक हैं। भारत के मूलवासी हैं। अत: आदिवासियों की आदिम प्रथा और परम्पराएं संसद से भी सर्वोपरि हैं। इस प्रकार भारत के मूलमालिक मूलवासी आदिवासियों की सामाजिक परम्पराओं को भारतीय क़ानून से भी उच्च दर्जा प्रदान किया गया है। ”आखिर मालिक तो मालिक ही होता है।”

इसके उपरान्त भी कुछ ढोंगी और अज्ञानी बुद्धिष्ट राजनीतिक दुराशय केि लिये सामाजिक न्याय की आड़ में बुद्ध धर्म के प्रचार में लिप्त हैं और भारत को बुद्धमय बनाने पर आमादा हैं। जिसके लिये छल—कपट का भी सहारा लिया जा रहा है। ऐसे लोग खुद नहीं जानते कि बुद्ध धर्म हिन्दू धर्म की एक शाखा मात्र है। ऐसे लोग खुद को भारत के मूल मालिक बतलाकर अहिंदू आदिवासी, ओबीसी और अल्पसंख्यकों पर भी बुद्ध धर्म थोपने के लिये नये—नये षड़यंत्र रचते रहते हैं। बुद्ध का सहारा लेकर बेसिरपैर की बात करने वाले ऐसे अंधभक्त और रुग्ण लोग बुद्ध के तर्क के सिद्धान्त को जानते तक नहीं और इनकी निराधार कट्टरपंथी बातों से असहमत होने पर ”अपरिपक्व और मूर्खतापूर्ण व्यक्तव्य जारी करते हैं। जैसे कि–

आदिवासी बुद्धिष्ट नहीं तो क्या सनातनी है?

इसी प्रकार के चालाक और शातिर लोगों के गिरोह ने ‘मूलवासी’ के स्थान पर कूटरचित ‘मूलनिवासी’ शब्द की गढ लिया है और ये लोग सत्ता हासिल करने के लिये येनकेन प्रकारेण सामाजिक न्याय की संवैधानिक अवधारणा को तहस-नहस करने में जुटे हुए हैं। इनका मकसद केवल बुद्ध धर्म का दिखावटी प्रचार और खुद के विदेशी पूर्वजों को भारतीय मूल के सिद्ध करके संघ और अपने सम्बन्धी सवर्ण मूलवंशी आर्य मनुवादियों के सहयोग से भारत की सत्ता पर काबिज होना है। लगता नहीं ऐसे लोगों ने हिन्दू विवाह अधिनियम के उक्त प्रावधानों के साथ-साथ भारत के संविधान की अनुसूची 5 और 6 को पढ़कर कभी बिना पूर्वाग्रह के समझा होगा? लगता नहीं कि इन्होंने कभी संविधान के अनुच्छेद 13 में वर्णित विधि की परिभाषा को पढा होगा?

जबकि इनको शायद ज्ञात नहीं कि बुद्ध जैसे प्यारे, निर्मल और महान व्यक्ति से कौन दूरी बनाना चाहेगा। बुद्ध जैसे लोग मानवता के सच्चे रक्षक हैं। बुद्ध हजारों सालों में जन्मने वाले हीरा हैं। बुद्ध की प्रासंगिकता केवल भारत में ही नहीं संसार में सदैव बनी रहेगी। मगर बुद्ध को वोट बैंक बनाने वाले, वर्तमान नवबौद्ध, बुद्ध के विचारों के असली विनाशक हैं। ऐसे लोग बुद्ध को बदनाम कर रहे हैं।

ऐसे लोग और ऐसे रुग्ण विचारों के लोगों को भ्रमित करने वाले शातिर लोग वर्तमान में बुद्ध और सामाजिक न्याय के असली दुश्मन हैं। मुझे संदेह होता है कि इनके असली आकाओं का रिमोट कहीं संघ तो नहीं? अन्यथा संविधान द्वारा संरक्षित आदिवासी—मूलवासी को कूट रचना करके ये लोग मूलनिवासी बनाने की हिमाकत नहीं करते और खुद हिन्दू होकर अपने आपके पूर्वजों को अहिंदू नहीं बतलाते? खुद आर्य होकर अपने आप को अनार्य नहीं बतलाते? खुद सवर्ण होकर अपने आप को असवर्ण नहीं बतलाते? भारत के ओबीसी, आदिवासी और मुसिलमों को दलित नहीं बतलाते? सामाजिक आयोजनों में आदिवासी को हिन्दू बनाने के लिए तथा ओबीसी एवं मुस्लिमों को बौद्ध बनाने के लिये बिना विचारे नमो बुद्धाय का जाप नहीं करते। इनको नहीं पता कि प्रकृति पुत्र आदिवासी जो ‘रियल ऑनर ऑफ़ इंडिया’ है को बुद्ध के नाम पर हिन्दू बनाने का इनका षड्यंत्रपूर्ण सपना कभी पूरा नहीं होगा। कूटरचित ‘मूलनिवासी’ षड़यंत्र के बहाने भारत का ‘मूलवासी’ बनना असंम्भव है। इनके षड़यंत्रों पर संविधान की अनुसूची 5 एवं 6 का ताला लगा हुआ है, जो इनके ‘मूलवासी’ में प्रवेश को हमेशा को प्रतिबन्धित करता है।