फौजी कार्रवाई पर लगाम

सर्वोच्च न्यायालय ने नागरिक स्वतंत्रता के पक्ष में एक साहसी फैसला किया है। मणिपुर और जम्मू-कश्मीर जैसे प्रांतों में हमारी फौज को विशेष अधिकार दिए गए हैं। फौजी विशेष शक्ति कानून के मुताबिक फौजियों और पुलिस वालों को अधिकार है कि यदि उन्हें किसी पर भी आतंकवादी होने का शक हो तो भी वे उसकी हत्या कर सकते हैं। हत्या करने वाले फौजियों और पुलिसवालों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती है।

1980 से मणिपुर में लगे इस कानून के तहत 2000 से 2012 तक 1500 से भी ज्यादा लोगों की हत्या हो गई लेकिन उनकी जांच अभी तक नहीं हुई। इरोम शर्मिला पिछले 16 साल से अनशन पर हैं, इस कानून (अफसा) के खिलाफ लेकिन हमारी सरकारों ने इसे अभी तक रद्द नहीं किया है। हालांकि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने भी इस कानून को अतिरंजित बताया था लेकिन इस संबंध में न तो उनकी सरकार ने कुछ किया और न ही मोदी सरकार ने।

सरकारों की यह मजबूरी है कि इन क्षेत्रों में सक्रिय फौज इस तरह के कानून को और भी कठोर बनाने की मांग करती रही हैं, क्योंकि उस पर अकस्मात हमले होते हैं, पग-पग पर उसके खिलाफ षडयंत्र रचे जाते हैं और लगभग रोज़ ही उसे युद्ध-जैसी विभीषिका से गुजरना पड़ता है। ये तथ्य ठीक हैं लेकिन इन क्षेत्रों में ऐसी कई घटनाएं हो चुकी हैं, जिनसे साफ-साफ पता चलता है कि निर्दोष लोगों की भी हत्याएं की गई है। कई नकली मुठभेड़ों के भी प्रमाण मिले हैं। इसका उद्देश्य अपनी बहादुरी सिद्ध करना है, अपने बड़े अफसरों को खुश करना है या अपनी मानसिक परेशानियों की भंड़ास निकालना है।

अब अदालत का आदेश है कि इन सभी क्षेत्रों में होने वाली हत्याओं की जांच होनी चाहिए और दोषियों को दंडित किया जाना चाहिए। यह मानव अधिकारों का सरासर उल्लंघन है। अदालत ने मानव अधिकार आयोग को नख-दंतहीन बनाए रखने पर भी खेद प्रकट किया है। उसने सरकारी पक्ष के तर्कों को खारिज करते हुए कहा है कि कानून सबके लिए समान होना चाहिए। याने अपने देश के ही कुछ लोगों और इलाकों को विदेशियों और शत्रु-क्षेत्र की तरह मान कर हम कैसे चल सकते हैं? सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के मुताबिक सरकारें अब इस दमनकारी कानून को हटा ले लेकिन अब भी उन्हें कठोर और मुस्तैद तो रहना पड़ेगा।