प्रसिद्धि के भूखे यह स्वयंभू नेता

                प्रसिद्धि की चाहत आखिर किसे नहीं होती? खासतौर पर वह लोग जिनके शरीर में नेतागीरी के कीटाणु प्रवाहित हो रहे हों। ऐसे लोग तो शोहरत हासिल करने के लिए हर समय सभी तिकड़मबाजि़यां लगाने के लिए तैयार रहते हैं। इस श्रेणी में एक विशेष मानसिकता रखने वाले लोग विशेषकर उत्तर भारत में पर्याप्त सं या में पाए जाते हैं। अपनी राजनीति को चमकाने के लिए ऐसे तत्व समाजसेवा या सामाजिक सरोकारों से जुड़े कार्यों में अपनी सक्रियता दिखाकर लोकप्रियता अर्जित करने का रास्ता अपनाने के बजाए तरह-तरह के छिछोरे हथकंडे अपनाते हैं। कोई राष्ट्रीय अथवा स्थानीय स्तर के नाम का कोई संगठन बना बैठता है तो कोई आए दिन बयानबाजि़यों से परिपूर्ण कोई प्रेस नोट लेकर अखबार के दफ्तरों के चक्कर लगाता रहता है। यदि कुछ न मिले तो अखबार में फोटो छपने की लालच में दो-चार लोगों को  इकट्ठे कर अपने संगठन की बैठक संबंधी प्रेस नोट जारी करने लगते हैं। यदि ऐसी बैठक में प्रेस नोट जारी करने का कोई उपयुक्त कारण समझ न आए तो धर्म,जाति अथवा संप्रदाय संबंधी कोई प्रवचन लिखकर प्रेस कार्यालय जा धमकते हैं। इस प्रकार के शातिर लोग मीडिया कर्मियों विशेषकर स्थानीय पत्रकारों से बड़ी ही विनम्रता से मिलते हैं तथा होली-दीवाली जैसे त्यौहारों पर उनका ‘विशेष ध्यान’ रखते हैं। क्योंकि इन्हें यह बात अच्छी तरह से मालूम है कि इनकी अ$खबारबाज़ी को परवान चढ़ाने वाले यही स्थानीय पत्रकार हैं जो इनके द्वारा आए दिन जारी किए जाने वाले प्रेस नोट को प्रकाशित कराने में इनकी सहायता करते हैं।

                वैसे भी जब से क्षेत्रीय अखबारों विशेषकर इनके बीच डाले जाने वाले चार पृष्ठ के स्थानीय समाचारों के नगर परिशिष्ट प्रकाशित करने का दौर शुरु हुआ है तबसे प्रेस नोट लेकर अखबार के दफ्तरों में जा धमकने वाले नेता कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं। ऐसे लोगों का न तो लक्ष्य स्पष्ट होता है न ही यह लोग कोई कल्याणकारी अथवा लोकहितकारी दृष्टिकोण रखते हैं। यहां तक कि इनके अपने पड़ोसी तक इनकी तजऱ्-ए-सियासत से दु:खी रहते हैं। इन्हीं में कई ऐसे भी हैं जो अपने स्वयंभू नेतृत्व में गठित संगठन के प्रमुख बन बैठते हैं। और इसी संगठन के नाम पर चंदा वसूली करना अथवा किसी कार्यक्रम के नाम पर लोगों को ठगना इनकी दिनचर्या बन जाता है। प्राय: ऐसे लोग स्वयं को अलग नज़र आने के लिए विशेष वेशभूषा का भी सहारा लेते हैं। और यदि दुर्भाग्यवश इनमें से कोई व्यक्ति किसी सरकारी अथवा अर्धसरकारी सेवा में कार्यरत है फिर तो वह अपनी इसी पाखंडपूर्ण राजनीति का रौब अपने सहकर्मियों पर भी झाड़ता है। दुनिया को उपदेश झाडऩे वाले ऐसे लोग अपने कार्यालय में भी कार्यालय के समय के मुताबि$क नहीं बल्कि अपनी सुविधा के अनुसार आते व जाते हैं। ज़रा सोचिए कि जो व्यक्ति अपनी उस डयूटी को ईमानदारी से नहीं निभा रहा जिसके बदले में उसे तन$ वाह मिलती है और उसी तन$ वाह के बल पर उसके पूरे परिवार का जीवन-बसर होता है? ऐसे व्यक्ति को क्या समाज को किसी प्रकार के उपदेश देने का अधिकार है? परंतु ऐसी प्रवृति व मानसिकता रखने वाले लोग हमारे देश में बहुतायत में देखे जा सकते हैं।

                उनक ऐसी प्रवृति को हम उनका शौक़ अथवा आदत कहकर भी नज़रअंदाज़ कर सकते हैं। परंतु उनकी शोहरत हासिल करने की यही आदत यदि समाज में विघटन फैलाने अथवा सामाजिक शांति व्यवस्था भंग करने का कारण बन जाए तो ऐसे लोगों पर अंकुश लगना भी बहुत ज़रूरी है। खासतौर पर ऐसे लोगों के साथ जुड़े चंद लोगों को भी यह सोचने की ज़रूरत है कि जिस पाखंडी व अ$खबारबाज़ी पर आश्रित रहने वाले नेता पर वे विश्वास कर रहे हैं वह दरअसल अपनी प्रसिद्धि का खेल खेल रहा है न कि किसी मुद्दे के मूल में उसकी कोई दिलचस्पी है। यहां तक कि उसके द्वारा उठाए जाने वाले मुद्दे भी ऐसे होते हैं जिन्हें समाज का समर्थन भी हासिल नहीं होता। उदाहरण के तौर पर गत् कई वर्षों से चंद लोग विजयदशमी के समय अपने प्रेस नोट के माध्यम से अखबारों में प्रकट हो जाते हैं और रावण दहन की प्रथा का विरोध करने लगते हैं। ऐसे लोग रावण को एक जाति विशेष से जोडक़र देखते हैं तथा रावण दहन को उसी जाति विशेष का प्रतिनिधि मानते हुए इस प्रथा को जाति विशेष का अपमान बताते हैं। जबकि वास्तव में विजयदशमी के त्यौहार का मु य वाक्य ही बुराई पर अच्छाई की जीत है। रावण के पुतले को सामाजिक बुराईयों का प्रतीक मानकर उसका दहन किया जाता है। हिंदू धर्म के अंतर्गत् आने वाली सभी जातियों के लोग पूरे जोश व उत्साह के साथ दशहरा पर्व मनाते हैं। खासतौर पर जो लोग रावण को अपनी जाति से जोडक़र देखते हैं उसी जाति के लोग विशेषकर इन आयोजनों में हिस्सा लेते हैं। परंतु स्वयं को अलग दिखाने व अखबार में रावण दहन का विरोध करने का समाचार प्रकाशित करवाने की $गरज़ से ऐसे अ$खबारी नेता इस परंपरा का विरोध करते दिखाई देते हैं। कितने आश्चर्य की बात है कि कोई व्यक्ति रामलीला में स्वयं भगवान राम की भूमिका अदा करते हुए अपने हाथों से रावण दहन भी कर रहा हो और वही व्यक्ति केवल अपनी शोहरत की खातिर रावण के पुतले को जलाने का भी विरोध करे?

                पिछले दिनों विश्व के सबसे ऊंचे रावण के पुतले का दहन करने के विरुद्ध भी इसी प्रकार का एक चरित्र सामने आया। इसे इस बात को लेकर तकलीफ थी कि रावण को आतंकवाद का पुतला क्यों बताया जा रहा है। हालांकि उसकी इस प्रकार की अखबारबाज़ी का कारण केवल यही था कि वह इसी विरोध के बहाने विश्व के सबसे ऊंचे रावण के पुतले के साथ अपना नाम जोड़ सके। परंतु उसकी बयानबाज़ी व प्रेस नोट बनाए जाने की उसकी शैली ऐसी थी जो समाज को बांटने का काम कर सकती थी। परंतु एक सप्ताह तक विश्व के सबसे ऊंचे रावण के पुतले का विरोध करने के बावजूद तथा आए दिन इससे जुड़ी खबरें अखबारों में प्रकाशित होने के बाद भी उसे न तो समाज का कोई समर्थन मिला न ही लोगों ने उसकी ओर कोई ध्यान दिया। क्योंकि ज़्यादातर लोगों को यह मालूम है कि मात्र अ$खबार में नाम छपवाने के लिए ऐसे लोग तरह-तरह के बहाने तलाश करते रहते हैं। रावण के इस स्वयंभू हमदर्द का नशा उस समय और भी का$फूर हो गया जब विजयदशमी के दिन पूरे देश में रावण के पुतले को आतंकवाद के पुतले के रूप में ही जलाया गया। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रावण को आतंकवाद का प्रतीक बताया है। देश में कई जगह रावण के पुतलों पर पाकिस्तानी आतंकवादियों के चित्र लगाए गए। कई जगह रावण के पुतले पर आतंकवाद प्रायोजित करने वाले देश पाकिस्तान के झंडे लगाए गए। दो वर्ष पूर्व विश्व के सबसे ऊंचे रावण के पुतले के दहन के अवसर पर पाकिस्तान से एक पत्रकार बराड़ा आए थे। उन्होंने वहां विशाल जनसमूह में बोलते हुए कहा था कि-‘हमारे देश में भी बहुत से रावण हैं। उन्होंने हािफज़ सईद मसूद अज़हर जैसे आतंकवादियों की तुलना रावण से की थी। अब इस तुलना को परिभाषित करने के अलग-अलग नज़रिए हो सकते हैं। चाहे इसे आतंक की आतंक से तुलना के रूप में देखिए या फिर इसे सांप्रदायिकता या फिरक़ापरस्ती की नज़रों से देखिए। ज़ाहिर है आम लोग तो आतंक को आतंक के ही रूप में देखते हैं तथा उसी प्रकार की उपमा भी देते हैं परंतु संकीर्ण दृष्टि तथा विचार रखने वाले व्यक्ति को ऐसी उपमाओं में भी धर्म व जाति जैसी संकीर्णताएं ही नज़र आएंगी।

                वर्तमान समय में जिस प्रकार के हालात भारत-पाक सीमा पर बने हुए हैं और पाकिस्तान द्वारा भेजे गए आतंकी भारत में आकर हमारे सैनिकों की हत्याएं कर रहे हैं और इसी बीच विजयदशमी जैसा त्यौहार भी मनाया जा रहा है। ऐसे में राक्षस रूपी रावण की तुलना यदि आतंकवाद से की जाए तो इसमें बुराई भी क्या है? रावण एक उच्च कोटि का ज्ञानी था तथा धार्मिक प्रवृति का भी था इस बात से आखिर कौन इंकार कर सकता है?  परंतु यदि उसकी प्रवृति राक्षसी न होती तो भगवान राम उसे क्योंकर मारते? उसका अपना भाई विभीषण उसे मरवाने हेतु भगवान राम से क्यों मिलता। और यदि यह परंपरा किसी जाति विशेष को आहत करती भी है तो इस परंपरा को समाप्त करने के लिए चारों स मानित शंकराचार्य संयुक्त रूप से कोई निर्णय क्यों नहीं लेते? जब भी हमारे देश में या अन्यत्र कहीं भी कोई आतंकवादी घटना होती है उसी समय बुद्धिजीवियों द्वारा यह जताया जाता है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। जब आतंक अथवा आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता फिर आखिर उसकी जाति कैसे निर्धारित की जा सकती है और उसकी हमदर्दी के नाम पर राजनीति करना या समाज में इसी की आड़ में विद्वेष फैलाने की  कोशिश करने का आखिर क्या औचित्य है? समाज को भी ऐसे पाखंडी लोगों से सचेत रहना चाहिए तथा सरकार को भी ऐसी खतरनाक सोच रखने वाले लोगों पर नज़र रखनी चाहिए।