गोमांस और सावरकर

‘गाय हमारी माता है अटलबिहारी खाता है’ मध्यप्रदेश में इस पोस्टर की बड़ी चर्चा है। प्रधानमंत्राी कुपित हैं। कुपित होना स्वाभाविक है, क्योंकि अटलजी गोमांस नहीं खाते। जरा याद करें, नेहरू के खिलाफ भी कभी इसी तरह का प्रचार किया गया था। इससे बढ़कर शर्मनाक हरकत क्या हो सकती है, चाहे इसे कांग्रेसी करें या हिन्दुत्ववादी करें। यह गाय की राजनीति है। हिन्दुत्व के सर्वोच्च पुरोधा वीर सावरकर ने गाय को भी माता,पूज्य या अवध्य नहीं माना। 1935 में छपे एक लेख में उन्होंने कहा-कभी-कभी ‘गोवध मनुष्य हित साधक कृत्य’ बन जाता है, लेकिन गोवध का ‘पातक करने की अपेक्षा, लोग राष्ट््र की लड़ाईयाॅं हारकर, राष्ट्र को भी मरने देते हैं। ’ सावरकरजी ने युद्ध के दौरान दुश्मन की गायों को मारने और भूखे सिपाहियों के लिए गोमांस भक्षण को उचित बताया है। सावरकरजी की नजर में गाय केवल एक ‘अत्यंत उपयोगी पशु है।’ लेकिन गाय को सिर्फ पशु माना जाए तो गाय के मांस और सूअर के मांस में क्या अंतर है? मांस तो मांस है, चाहेेेे वह किसी का भी हो। दोनों ही अखाद्य हैं। यदि मांस खाने योग्य चीज है तो फिर दोनों ही खाद्य क्यों नहीं हैं?

 

इंदौर जाते समय में सुश्री निर्मला देशपांडे मिल गईं। उनसे परिचय पूरे 43 साल पहले इंदौर में हुआ, जब वे हमें मनाने आती थीं कि हम अपना अनशन वापस ले लें, अन्यथा छात्रा आंदोेलन हिंसक बन सकता है। उन्होंने अपना सारा जीवन सर्वोदय में खपा दिया है। वे राज्यसभा की सदस्य रही हैं। आजकल भारत-पाक संबंध सुधार में जुटी हुई हैं। पूछने लगीं कि भारत-पाक गतिरोध तोड़ने के लिए आप क्या कर रहे हैं?मैंने बताया कि बेनजीर भुट््टो, नवाज शरीफ, मुशर्रफ के भाई डाॅ़. नावीद तथा डाॅ. मुगशर हसन जैसे दिग्गजों से फोन और ई-मेल पर निरंतर संपर्क बना हुआ हैॅ, लेकिन हमारी कैकयी कोप-भवन में ऐसी जा बैठी है कि निकलने का नाम तक नहीं लेती। पाकिस्तान का हर तबका चाहता है कि हम बात शुरु करें। लेकिन बात तभी शुरु होगी जब बुश का डंडा पड़ेगा, जैसे कि मुशर्रफ की आगरा-यात्रा के लिए पड़ा था। बुश के गर्म दूध ने छाले उपाड़ दिए हैं। इसलिए हमारी ठंडी छाछ में भी सरकार अभी सिर्फ फूॅंक मार रही है, उसे पीना तो दूर की बात है। निर्मला बहन के साथ आखिर यह तय हुआ कि हम लोग अपनी सरकार को ज्यादा तकलीफ न दें और साल में एक बार भारत के पड़ोसी राष्ट््रों के लोगों का एक जन-दक्षेस सम्मेलन बुलाएॅं, जिसमें अफगानिस्तान और बर्मा को भी शामिल करें, जिसे विनोबाजी ए. बी. सी. अफगानिस्तान,बर्मा,सीलोन , त्रिभुज कहा करते थे।

 

गुजरात और महाराष्ट््र के गाॅंव-गाॅंव में फैले स्वाध्याय आंदोलन से अक्षरधाम के प्रमुख स्वामी और मुरारी बापू जैसे लोग पहले से ही जुड़े हुए हैं। अब आसाराम बापू जैसे लोग भी जुड़ना चाहते हैं। आसाराम बापू के बेटे नारायण ने श्री पांडुरंग शास्त्राी की बेटी जयश्री तलवलकर से हाल ही में संपर्क स्थापित किया है। पांडुरंगजी आजकल घोर अस्वस्थ हैं और स्वाध्याय आंदोलन में थोड़ा विभ्रम भी पैदा हुआ है, लेकिन जयश्री बहुत ही आश्वस्त हैं। वे निरंतर दौरे कर रही हैं और स्वाध्याय की गतिविधियों को लाखों नए लोगों तक पहुॅंचाने का प्रयत्न कर रही हैं।

16 मार्च को दिल्ली में एक अंतरराष्ट््रीय संगोष्ठी आयोजित हो रही है। विषय है-बेदिल। बेदिल अफगान थे और फारसी के महान कवि थे। वे दिल्ली में रहे और यहीं उनकी समाधि भी है। अफगानिस्तान से जाने वाले धर्मप्रेमी मित्रा तो अजमेर जाते हैं और ख्वाजा निजामुद्दीन की दरगाह पर जियारत करते हैं, लेकिन साहित्यप्रेमी मित्रा बेदिल के मजार पर फूल चढ़ाते हैं। बेदिल को अफगानिस्तान और मध्य एशिया में उसी तरह जाना-माना जाता है, जैसे गालिब को भारत और पाकिस्तान में। इस संगोष्ठी में अनेक देशों के बेदिल विशेेेेेषज्ञ आ रहे हैं। उनमें डाॅ. अब्दुल गफूर रवान फरहादी भी हैं। डाॅ. फरहादी की खूबी यह है कि वे फारसी और फ्र्रैंच साहित्य के मर्मज्ञ तो हैं ही , लगभग 20 साल तक वे अफगानिस्तान की विदेश नीति के कर्णधार रहे हैं। अफगान विदेश मंत्रालय के सर्वोच्च पद पर पहुॅंचने के साथ -साथ वे अनेक देशों के राजदूत रहे हैं और कुछ वर्षों तक उप विदेशमंत्राी भी । अनेक अफगान विदेशमंत्राी और प्रधानमंत्राी उनके छात्रा रहे हैं। वे शांति निकेतन में भी रहे हैं। नरसिंहरावजी की तरह वे बहुभाषाविद् हैं। श्रीमती इंदिरा गाॅंधी उन्हें बहुत पसंद करती थीं। काबुल की कम्युनिस्ट सरकार ने उन्हें जेेल में डाल दिया था। उन्हें छुड़ाने और भारत लाने का काम 20 साल पहले इंदिराजी ने मुझे सौंपा था। वे छुटे, लेकिन हज के बहाने सऊदी अरब चले गए और वहाॅं से फ्राॅंस। आजकल वे संयुक्त राष्ट््र में अफगानिस्तान के राजदूत हैै।

आजकल आर्य समाज में सुगबुगाहट है। कांग्रेस से बहुत पहले ही आर्य समाज ने स्वाधीनता संग्राम छेड़ दिया था। भारत में राष्०वाद और पाखंडरहित समाज के निर्माण में जैसा योगदान आर्य समाज का है, किसी अन्य संस्था का नहीं लेकिन पिछले कुछ वर्षों से वह बिना मस्तूल के जहाज की तरह हो गया है। सारी दुनिया में फेली लगभग 10 हजार आर्य समाजों के संगठन ‘सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा’ का अब तक जलवा नहीं है, जैसा कि कभी स्वामी श्रद्धानंद, स्वतंत्रातानंद, धु्रवानंद और श्री रामगोपाल शालवाले के जमाने में था। महात्मा गाॅंधी, जवाहरलाल नेहरु और इंदिरा गाॅंधी को भी आर्य समाज की गुहर कान लगाकर सुननी पड़ती थी। लेकिन अब वर्तमान प्रधानमंत्राी भी, जो कि पूर्व आर्य समाजी हैं, आर्य समाज की खास परवाह नहीं करते। आर्य समाज के स्वामी अग्निवेश और इंद्रवेश नई जान फूॅंक सकते थे लेकिन ‘सार्वदेशिक सभा’ के पिछले चुनाव में मुंबई के कैप्टन देवरत्न आर्य बाजी मार ले गए। स्वामी लोग दीवान हाॅल के अंदर ही नहीं घुस पाए। वे बाहर खड़े रहे और अंदर चुनाव हो गए। स्वाामियों के बारे में यह धारणा फैला दी गई हैं कि वे कम्युनिस्ट हैं। कुछ दिन पहले स्वाामियों के एक आश्रम में दो दिन तक बैठकर आर्य समाज के भविष्य पर विचार किया। वे समानांतर ‘सार्वदेशिक सभा’ भी चला रहे हैं। उधर सार्वदेशिक सभा के प्रधान देवरत्नजी को दिल्ली के एक समारोह के बीच ही पिछले माह पक्षापात हो गया । उनका स्वास्थ्य तेजी से सुधर रहा है जेकिन आर्य समाज का स्वास्थ्य ज्यों का त्यों हैं। उसे बेहतर बनाने के लिए अब लगभग 300 आर्य समाजी बौद्धिकों की बैठक दिल्ली में आयोजित हो रही है।

श्री गंगाधर जावानी आजकल इंदौर आए हुए हैं। वे पिछले 30 साल से दुबई में हैं। ‘डाॅलरेक्स’ नामक उनकी कपड़े की विशाल दुकानें खाड़ी के कई देशों में हैं। वे मूलतः उज्जैन के निवासी हैं। उनके पूर्वज सिंध के उस गाॅंव के हैं, जहाॅं कि बेनजीर भुट्टो हैं। एक बार बेनजीर भुट्टों दुबई में मुझसे मिलने आई तो गंगाधरजी और वे एक ही बोली बोलने लगे। तब उक्त रहस्य खुला। गंगाधरजी व्यापारी तो हैं ही, मॅंजे हुए कवि भी हैं। उनके दो संग्रह शीघ्र ही राजकमल से आ रहे हैं।