गुस्सा फूटेगा तो हाथ छूटेगा

बेतहाशा मंहगाई के इस दौर में जहां राजनीतिक अस्थिरता खुलकर सामने आ रही है वहीं आम-आदमी का गुस्सा भी अब फूटने लगा है। इसका ताज़ा उदाहरण है- केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार को पड़ा तमाचा। इस तमाचे की गूँज पूरे देश ने सुनी और यकीन मानिए; राजनीतिक दलों के अलावा आम आदमी ने इस तमाचे को हाथों हाथ लिया। वैसे भी आम जनता अब नेताओं की कारगुजारियों और थोथे घोषणा पत्रों से आजिज आ चुकी है। ऐसी स्थिति में यदि कोई व्यक्ति इन झूठे और मक्कार नेताओं को जगाने के लिए हिंसा का सहारा लेता है तो मीडिया और तमाम राजनीतिक दल उसे मानसिक दिवालियेपन का शिकार घोषित करने लग जाते हैं। क्या मीडिया और इन तथाकथित नेताओं ने आम-जनता के बीच जाकर यह जानने की ज़हमत उठाई है कि जनता आखिर उनसे क्या चाहती है? जब आम आदमी के पेट पर लात पड़ती है तो कोई कुछ नहीं कहता और जब किसी ख़ास के गाल पर तमाचा पड़ा तो हमाम के सभी नंगे एक हो गए।

शरद पवार को तमाचा क्या पड़ा पूरे देश में हो-हल्ला मच गया। क्यों भैया? क्योंकि वह राजनेता हैं, लोकतंत्र में उनका मान-सम्मान है और आम-जनता; उसका क्या? क्या वह लोकतंत्र का हिस्सा नहीं है? क्या उसका अपना कोई मान-सम्मान नहीं है? क्या वह नेताओं के हाथों खेलने वाली कठपुतली बन चुकी है? जब आम आदमी का गुस्सा शब्दों की अभिव्यक्ति से इतर हिंसात्मक रूप अख्तियार कर ले तो समझ लेना चाहिए कि कमी हमारी ही व्यवस्था में है; आम आदमी में नहीं| फिर जो भी सत्ता में रहेगा उसका आम आदमी के प्रति कुछ दायित्व होगा और यदि वह उन दायित्वों को निभाने में अक्षम साबित हुआ तो ज़ाहिर है आम आदमी का गुस्सा कहीं तो फूटेगा। देखा जाए तो हाल के वर्षों में नेताओं पर हमलों की जितनी भी वारदातें हुई हैं; अधिकांशतः कांग्रेस के बड़े नेताओं के साथ हुई हैं। इसकी भी वजह सत्ता है। कारण; सत्ता में रहने वाले को बढती मंहगाई, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों की जिम्मेदारी लेनी होगी लेकिन कांग्रेस के नेता इससे बचते रहे हैं। यही वजह है कि सरकार से जुड़े नेताओं के प्रति आम आदमी के मन में असंतोष है जिसकी परिणिति इस प्रकार के हमलों के रूप में सामने आ रही है।

 

पी.चिदंबरम, कलमाड़ी, जनार्दन द्विवेदी, सुखराम, शरद पवार जैसे वरिष्ठ कांग्रेसियों पर हुए हमले आम आदमी के सवालों को न सुलझा पाने का नतीजा थे। और ऐसा हो भी क्यों न? आखिर आम आदमी को इन बातों से कोई सरोकार नहीं कि प्रधानमंत्री की अमेरिका ने तारीफ़ की या आडवाणी एक और रथ यात्रा निकालने की तैयारी में हैं। वह तो सरकार से जानना चाहता है कि बेतहाशा बढ़ती मंहगाई पर लगाम क्यूँ नहीं लग पा रही है? क्या कारण है कि भ्रष्टाचार नासूर की तरह हमारी व्यवस्था में घर कर गया है? क्यूँ सरकार अपने ही घर में विफल हो गई है? क्यूँ नेता बे-लगाम बयानबाज़ी द्वारा स्वयं के हित साध रहे हैं? क्यूँ आम आदमी लोकतंत्र का हिस्सा होते हुए भी उससे छिटक गया है? जिस दिन जनता को उसके इन सवालों का जवाब मिल जाएगा; नेताओं को पड़ने वाले तमाचे भी बंद हो जायेंगे।

 

शरद पवार ने कृषि मंत्री रहते जो बे-लगाम भाषणबाजी की थी उससे कुछ हद तक मंहगाई बढ़ गई थी। मुनाफाखोरों ने उनके बयानों से जमकर चांदी काटी। फिर पवार का मन कृषि मंत्रालय संभालने में कम और आई.सी.सी. का अध्यक्ष बनने में अधिक था| महाराष्ट्र के प्रमुख नेता होने के कारण भी पवार महाराष्ट्र की राजनीति को प्रमुखता देते थे| बेटी सुप्रिया और भतीजे अजीत की आपसी राजनीतिक प्रतिद्वंदिता में पवार शायद यह भूल बैठे थे कि वह केंद्रीय मंत्री होने की वजह से जनता के प्रति भी जवाबदार हैं| उनके गाल पर पड़ा यह तमाचा शायद उन्हें अपने कर्तव्यों की याद दिला पाए।

 

सरकार में बैठे स्वयंभू नेताओं को समझ लेना चाहिए कि बार-बार लोकतंत्र की दुहाई देकर आप आम आदमी के सपनों को नहीं तोड़ सकते। हर बड़े नेता पर हुए हमले के बाद राजनीतिक पार्टियां एक दूसरे पर दोषारोपण करने लग जाती हैं। आखिर क्यूँ वे अपनी कमियों को दूर करने का प्रयास नहीं करतीं? सत्ता जहां व्यक्ति में उच्चता का भान कराती है; वहीं सत्ता से दूर होने का यह फायदा होता कि हम अपनी कमजोरियों को ढूंढ कर उन्हें दूर करने का प्रयास करें। मगर यहाँ तो सभी पद के लिए भूखे बैठे हैं| किसी को जनता की फ़िक्र नहीं। ऐसे में नेताओं पर तमाचे पड़ना एकदम जायज़ है। ज़रा सोचिए; यही तमाचा किसी गरीब या बेबस को पड़ता तो वह शर्म से गढ़ जाता मगर एक शीर्ष नेता के गाल पर पड़े तमाचे से भी नेताओं ने कोई सबक नहीं लिया। सभी लड़ रहे हैं और सरे-आम लोकतंत्र की हत्या कर रहे हैं| यही हाल रहा तो ऐसे हमले रोज़ सुनने व देखने को मिलेंगे| सरकार समेत सभी नेताओं को अब चेत जाना चाहिए वरना जनता अब जाग चुकी है और वह अब और शोषित होना नहीं चाहती।